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EWS नहीं सवर्ण आरक्षण: SC ने जातिगत आरक्षण पर मुहर लगायी?

आर्थिक आधार पर आरक्षण को संवैधानिक मान्यता देने की कोशिश फिलहाल कामयाब हो गयी है। सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की खण्डपीठ का खण्डित फ़ैसला यही है। मगर, इस फ़ैसले के साथ यह भी पुष्ट हो गया है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण पाने वाला ‘सामान्य वर्ग’ वास्तव में एससी, एसटी और ओबीसी के बगैर सवर्ण वर्ग है।

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद ईडब्ल्यूएस कैटेगरी अब वास्तव में अपर कास्ट कैटेगरी हो गयी है। (अ)न्याय इस प्रश्न का उत्तर के रूप में हुआ है कि अगर एससी, एसटी और ओबीसी को आरक्षण मिलेगा तो सवर्णों को क्यों नहीं? सुप्रीम कोर्ट की खण्डपीठ के बहुमत ने ईडब्ल्यूएस कैटेगरी में पहले से आरक्षण के लाभुक वर्ग को शामिल करने की मांग को ठुकराते हुए वास्तव में इस प्रश्न का जवाब दिया है।

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भारत में जातिगत आधार पर आरक्षण नहीं है। यहाँ शैक्षणिक और सामाजिक आधार पर पिछड़े समूहों को आरक्षण है जिसकी पहचान दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ी जाति के रूप में हुई है। पहली बार ऐसे आरक्षण को मान्यता मिली है जो आर्थिक आधार पर पिछड़े सवर्णों का समूह है और जिसे सामान्य वर्ग जबरदस्ती कहा जा रहा है। अगर वास्तव में आर्थिक आधार पर पिछड़ा वर्ग को 10 फ़ीसदी आरक्षण मिलता तो इसमें ग़ैर सवर्ण जातियों के ग़रीब क्यों नहीं शामिल होते?

सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के लिए अपनी ही तय की गयी लक्ष्मण रेखा को लांघा है। इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की खण्डपीठ ने यह तय किया था कि आरक्षण की सीमा किसी भी सूरत में 50 फ़ीसदी से अधिक नहीं हो सकती। जब-जब एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण बढ़ाने की बात हुई न्यायपालिका ने सुप्रीम कोर्ट की बनायी लक्ष्मण रेखा के टूटने का भय दिखाया। मगर, जब सामान्य वर्ग के नाम पर सवर्णों के लिए यही लक्ष्मण रेखा तोड़ने की आवश्यकता आयी तो न्यायपालिका का संकोच ख़त्म हो गया। पांच जजों की खण्डपीठ ने अपने से बड़ी 9 जजों वाली खण्डपीठ के फ़ैसले की भी परवाह नहीं की। संवैधानिक रूप से यह कितना जायज है- यह सवाल बना रहेगा।

जब पीवी नरसिम्हाराव की सरकार ने ईडब्लूएस कैटेगरी के लिए 10 फ़ीसदी आरक्षण लागू करने का फ़ैसला किया था, तब भी 50 फीसदी की लक्ष्मण रेखा सामने आ गयी थी। न्यायलयीन समीक्षा ने इसे मुमकिन नहीं होने दिया। अब जबकि नरेंद्र मोदी की सरकार ने संविधान संशोधन के ज़रिए उसी फ़ैसले को लागू किया, तो न्यायलयीन समीक्षा और फैसला उसकी पुष्टि करता दिख रहा है। तार्किक आधार पर कुछ भी नहीं बदला है।
“आरक्षण से मेधा का अपमान होता है।”- ऐसा कहने वाले गैर आरक्षित वर्ग, ‘सामान्य’ वर्ग के लोग अब अपने इसी तर्क से पीछे हट गये हैं। अब उनकी नज़र में मेधा प्रतिष्ठित होगी क्योंकि आर्थिक रूप से कमजोर तबक़े से वे पहले से आरक्षित वर्ग को बाहर धकेलने में सफल हो गये हैं।

ऐसा क्यों है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करने वाले और दलितों-पिछड़ों के लिए आरक्षण का विरोध करने वाले लोग एक ही ओर साथ खड़े मिलते हैं? इसे समझना ज़रूरी है।

ईडब्ल्यूएस के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था वास्तव में आरक्षण के लिए प्रतिस्पर्धा पैदा करने की कोशिश है। “उन्हें आरक्षण मिलेगा, तो हमें भी मिलना चाहिए” या “फिर हमें आरक्षण नहीं मिलेगा तो उनके लिए भी आरक्षण ख़त्म होना चाहिए।” आर्थिक आधार बनाम सामाजिक व शैक्षणिक आधार की लड़ाई के तौर पर एक छद्म लड़ाई खड़ा करने की कोशिश की गयी है। दुर्भाग्य से न्यायालय भी इसका हिस्सा बन गया है।

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ताज़ा फ़ैसले में दो उलट धारणाएँ भी सामने आयी हैं। बहुमत का फ़ैसला कहता है कि आर्थिक आधार पर 10 फ़ीसदी आरक्षण में एससी, एसटी और ओबीसी को शामिल नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके लिए पहले से आरक्षण है। अल्पमत का फ़ैसला कहता है कि ऐसा किया जाना चाहिए क्योंकि आर्थिक आधार पर आरक्षण में किसी वर्ग को वंचित नहीं किया जा सकता। यह सवाल उठना लाजिमी है कि आरक्षण का आधार अगर आर्थिक है तो इस आधार पर लाभुक वर्ग क्यों जातिगत आधार पर चुना जा रहा है?

‘सामान्य वर्ग’ जातिगत समूह में बदल जाता है अगर इसमें से एससी, एसटी और ओबीसी को निकाल लिया जाए। यह सामान्य वर्ग सवर्णों का समूह हो जाता है। जब ऐसा है ही तो अदालत ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के बजाए इसे सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण कहने का साहस क्यों नहीं दिखाती?

ईडब्ल्यूएस कैटेगरी को 10 फीसदी आरक्षण संवैधानिक हो जाने के बाद देश में कोई वर्ग ऐसा नहीं रह जाता है जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है। जाहिर है रोजगार के घटते अवसरों के बीच यह आरक्षण व्यवस्था बेमतलब है। ‘सबको आरक्षण’ का सिद्धांत वास्तव में ‘किसी को आरक्षण नहीं’ का सिद्धांत बन चुका है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद देश में आरक्षण व्यवस्था अतार्किक हो गयी है।

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अशोक भारती /प्रेम कुमार
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