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क्या कोरोना संकट के बाद भी वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से होगी अदालतों में मामलों की सुनवाई?

कोरोना वायरस की महाआपदा ने देश की न्यायिक व्यवस्था को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर दिया है। भले ही अभी इस तरफ़ बहुत कम लोगों का ध्यान गया है लेकिन आने वाले समय में इस क्षेत्र में आपको व्यापक परिवर्तन देखने को मिल सकते हैं। क्या कभी किसी ने परिकल्पना भी की थी कि देश की न्यायिक प्रणाली में कोई ऐसा भी समय आ सकता है, जब देश में न्यायिक प्रशासन की व्यवस्था देश के अदालतों के परिसरों में न होकर वर्चुअल कोर्ट के माध्यम से नियंत्रित होगी।

भारतीय सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि कोर्ट के समक्ष सूचीबद्ध केसों की सुनवाई ही न हो तथा सिर्फ़ अति आवश्यक केसों की सुनवाई के अलावा सभी केसों की सुनवाई अनिश्चितकाल के लिए टाल दी गई हो। कोरोना के कारण 13 मार्च 2020 के नोटिस के बाद, न केवल सुप्रीम कोर्ट परिसर में वकील, कोर्ट स्टाफ़, वादियों के प्रवेश पर अंकुश लग गया, बल्कि 16 मार्च 2020 से सुप्रीम कोर्ट में सभी केसों की सुनवाई भी अनिश्चितकाल के लिए टाल दी गई है। सुप्रीम कोर्ट परिसर के हाई सिक्योरिटी ज़ोन में प्रवेश के लिए, वकीलों, उनके स्टाफ़ व कोर्ट स्टाफ़ को दिए गए सभी इलेक्ट्रॉनिक प्रॉक्सिमिटी कार्ड को भी अगले आदेश तक निलंबित कर दिया गया है।

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हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अति आवश्यक मामलों में सुनवाई अवश्य की है, लेकिन सिर्फ़ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से। कुछ यही प्रक्रिया देश की सबसे हाई टेक मानी जाने वाली हाई कोर्ट - यानी कि दिल्ली हाई कोर्ट ने भी अपनाई है। वहाँ भी सिर्फ़ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्मय से सिर्फ़ अति आवश्यक केसों की सुनवाई की जा रही है। देश के बाक़ी हाई कोर्ट का भी कुछ यही नज़ारा है।

लेकिन 6 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के मद्देनज़र स्वतः संज्ञान लिया और हुए देश भर में वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से अदालती सुनवाई के लिए दिशा-निर्देश दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट की इस विशेष खंडपीठ में मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे के अलावा न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ तथा न्यायाधीश एल नागेश्वर राव मौजूद थे। मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विज्ञान व प्रौद्योगिकी के माध्यम से न्यायिक प्रशासन के स्तर को सुधारा जा सकता है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी की मदद से तेज़ गति से न्यायिक प्रशासन को लागू किया जा सकता है; न्यायिक प्रक्रिया के पुराने तौर तरीक़ों के बदले, ई-कोर्ट जैसे पोर्टल के माध्यम से ज़िला अदालतों को भी अब बदले जाने का समय आ गया है। 

2003 में स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र बनाम प्रफुल देसाई नामक केस में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि विज्ञान व प्रौद्योगिकी की मदद से वर्चुअल कोर्ट बनाई जा सकती हैं, जो वर्तमान में ईंटों व पत्थर से बनी अदालतों के समान ही होंगी।

अदालत के अनुसार, ‘वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के दौरान दोनों पक्ष एक-दूसरे के समक्ष उपस्थित रहते हैं, जो एक-दूसरे को देख सकते हैं, सुन सकते हैं, बात कर सकते हैं, बस छू नहीं सकते। वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के दौरान गवाही दर्ज कराई जा सकती है, जो कि क़ानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के समान मानी जा सकती है।’  

सुप्रीम कोर्ट ने 6 अप्रैल को कहा कि देश में कोरोना वायरस की महामारी को देखते हुए यह आवश्यक है कि देश की सभी अदालतें ‘सोशल डिस्टैन्सिंग’ के नियम को पूरी तरह से लागू करें। कोर्ट ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 की मदद लेते हुए देशभर की अदालतों को निर्देश दिया है कि सुप्रीम कोर्ट व देश के विभिन्न हाई कोर्ट यह सुनिश्चित करें कि अदालत परिसर में आवश्यक लोगों (वकील, वकीलों का स्टाफ़ व कोर्ट का स्टाफ़) की फिजिकल उपस्थिति कम से कम हो तथा सभी सोशल डिस्टैन्सिंग के नियम का कठोरता से पालन किया जाए। 

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वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर

सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट अपने यहाँ मामलों की सुनवाई के लिए वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की सुविधा के लिए समुचित इन्फ्रास्ट्रक्चर की व्यवस्था करें। हर राज्य की हाई कोर्ट को यह अधिकार होगा कि वह अपने क्षेत्र में वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग तथा इससे जुड़े अन्य मामलों व सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को लागू करने के लिए अपने नियम बनाएँ। ज़िला अदालतें, अपने क्षेत्र की हाई कोर्ट द्वारा बनाई गई वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की मदद से अदालती कार्यवाही करें। ज़िला अदालतें उन सभी वादियों और वकीलों को भी वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की सुविधा प्रदान करें, जिनके पास यह सुविधा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि जब तक अलग-अलग हाई कोर्ट इस मामले में अपनी-अपनी नियमावली नहीं बना लेते हैं, तब तक वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की कार्यवाही ट्रायल कोर्ट या अपील कोर्ट में सिर्फ़ बहस की सुनवाई तक ही सीमित रहेगी तथा किसी भी मामले में गवाही के मामलों में इसे लागू नहीं किया जाएगा, जब तक कि सभी पक्ष इस बारे में अपनी सहमति न दे दें।

अदालतों को भी यह अधिकार होगा कि अपने अदालत कक्ष में किसी के प्रवेश को सीमित कर सकते हैं, यदि मामलों में बहस चल रही हो। लेकिन अदालतें हर किसी को अदालत कक्ष में बेवजह प्रवेश से नहीं रोक सकती हैं, जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि वह व्यक्ति किसी बीमारी से ग्रसित है। सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले की अगली सुनवाई चार सप्ताह बाद करेगा।

सुप्रीम कोर्ट के इन दिशा-निर्देशों के बाद सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष विकास सिंह ने चीफ़ जस्टिस को पत्र लिखकर माँग की है कि कोरोना वायरस के बाद भी सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ़ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से ही मामलों की सुनवाई हो तथा कोर्ट के अंदर होने वाली पारंपरिक व्यवस्था को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाए। विकास सिंह के इस सुझाव पर सुप्रीम कोर्ट के कई वकीलों ने प्रतिकूल प्रतिक्रिया दी है।

सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य वकील संजीव भारद्वाज को विकास सिंह के तर्क ठीक नहीं लगे।

संजीव भारद्वाज ने कहा कि यदि आगे से सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ़ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से ही केसों की सुनवाई होगी तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को दिल्ली के लुटियन ज़ोन में पाँच-पाँच एकड़ के बंगले में रहने की क्या ज़रूरत है, वह अपने होम टाउन में रहकर सिर्फ़ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से मामलों की सुनवाई कर सकते हैं।

आज के समय में यह संभव नहीं है कि कोरोना प्रकोप के एकदम बाद वर्चुअल कोर्ट के नियम को देश भर में लागू किया जा सके, इसके लिए एक बहुत बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर और एक बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था चाहिए।

पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या भारत जैसे देश में जहाँ देश की 70 फ़ीसदी आबादी ग़रीब है, वहाँ पर वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से वर्चुअल कोर्ट की संकल्पना संभव है? मैं स्वयं बड़ी ज़िम्मेदारी से कह सकता हूँ कि सुप्रीम कोर्ट के ही आधे से ज़्यादा वकील वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से अदालती कार्यवाही कैसे हो, इस बारे में नहीं जानते। फिर हाई कोर्ट व ज़िला अदालतों के वकीलों की क्या स्थिति होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अलावा देश के कितने प्रतिशत वकील हैं जिनके पास वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के लिए अपने लैपटॉप, कम्प्यूटर आदि की सुविधाएँ हैं, क्या सुप्रीम कोर्ट या सरकार ने उक्त आदेश पारित करने से पहले इसका कोई आँकड़ा जानने का कोई प्रयास किया है? आज भी सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के एक नोटिस की तामील प्रतिवादी पर होने में महीनों लग जाते हैं।

विचार से ख़ास

अब देश के सबसे बड़े इलाहाबाद हाई कोर्ट का ही उदाहरण लें। यहाँ के मुख्य न्यायाधीश ने 4 अप्रैल 2020 को एक आदेश जारी कर कहा है कि माइनर बेल (फौजदारी के वह मामले जो जघन्य अपराध की परिभाषा में नहीं आते हैं) के पहले से दायर मामलों की सुनवाई 7 अप्रैल 2020 से शुरू की जाएगी। लेकिन इन किसी भी मामलों में वकील को अदालत कक्ष में आने की ज़रूरत नहीं है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के ही वकील वी के जैन ने प्रश्न उठाया है कि हो सकता है कि हाई कोर्ट इन सभी मामलों में जमानत दे दे, लेकिन अगर अदालतें वकील की बहस ही नहीं सुनेंगी तो जमानत जैसे गंभीर मामलों में यह कैसी सुनवाई होगी? 

पूरे विश्व में अदालती प्रक्रिया का सबसे मूलभूत सिद्धांत है- खुली अदालत में सुनवाई। खुली अदालत में सुनवाई से न केवल वादी या प्रतिवादी, बल्कि उनके वकील तथा अन्य आम जनता भी केस की सुनवाई अपने सामने देखती है तथा यह खुली अदालती प्रक्रिया का ही परिणाम है कि एक आम आदमी का अदालत पर विश्वास होता है, लेकिन क्या वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की हाई टेक न्यायिक प्रक्रिया खुली अदालती प्रक्रिया के सिद्धांत पर खरी उतरती है?

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अनिल कर्णवाल
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