उत्तर प्रदेश का चुनाव महत्वपूर्ण तो है ही दिलचस्प भी है। अगर प्रदेश का आकार उसके महत्व को बढ़ाता है तो चुनाव के दौरान उठते मुद्दे और बदलती रणनीति इसे और दिलचस्प बना रहे हैं। आज बीजेपी का सारा जोर प्रतिद्वन्द्वी समाजवादी पार्टी को अपराधी गिरोह और उसका शासन वापस होने को गुंडा राज की वापसी बताना रह गया है।
कई बार इस गुंडा राज को मुसलमानों का अप्रत्यक्ष राज तो कई बार यादव राज बनाने और बताने का प्रयास भी हो रहा है जो सपा को यादव और मुसलमान समर्थक बताकर हिन्दुओं और गैर यादव पिछड़ों के साथ अगड़ों और दलितों को अपनी तरफ करने की रणनीति भी है।
एक हल्का प्रयास अखिलेश और रालोद नेता जयंत चौधरी के बीच दरार दिखाने और बनाने का भी है लेकिन यह प्रयास चुनाव के पश्चिम उत्तर प्रदेश रहने तक ही टिकेगा।
दूसरी ओर अखिलेश यादव का अभियान भी किसानों की समस्या, बेरोगजारी और महंगाई या कोरोना काल में हुई परेशानियों का जिक्र करने की जगह गैर-यादव पिछड़ों को लुभाने, हिन्दुओं का ध्रुवीकरण रोकने और किसानों की नाराजगी को भुनाने की है। शासन से उपजी नाराजगी को वे दूसरी पार्टियों की तरफ न जाने देने पर भी सचेत हैं।
मायावती अपने दलित आधार को बचाने की कोशिश में हैं तो प्रियंका गांधी महिलाओं के सहारे अपनी राजनैतिक पारी को अलग तरीके से शुरु कर रही हैं।
और इसी चक्कर में चुनाव बदल गया है। जिस तीन तलाक, धारा 370, राममन्दिर, अयोध्या-काशी-मथुरा, पाकिस्तान, जिन्ना, कब्रिस्तान-श्मशान और ज़ेवर, कुशीनगर, पूर्वांचल एक्सप्रेसवे वगैरह के सहारे बीजेपी चुनाव लड़ना चाहती थी, वह कहीं नहीं दिखते। सपा और उसके पुराने अभियानों को धार देने वाले आजम खान जैसे तेवर की बातें भी गायब हैं।
बसपा और कांग्रेस दो तरफा हो गए चुनाव में अपनी मौजूदगी बताने भर की जद्दोजहद में लगे हैं।
अचानक अखिलेश यादव और सपा के लिए भीड़ उमड़नी शुरु हुई और नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के मुकाबले ज्यादा उत्साह और संख्या दिखने लगी। बीजेपी के लिए यह असहज करने वाली बात थी। इस बीच प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के चालीस फीसदी टिकट महिलाओं को देने की घोषणा करके नया दांव चला जिसका रंग सब पर पड़ा।
लेकिन खुद कांग्रेस द्वारा आयोजित महिला मैराथनों में जिस तरह की भीड़ उमड़ी (बिना सांगठनिक आधार वाले शहरों में भी) उससे सनसनी फैल गई।
बीजेपी की तरफ से विकास योजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास बढ़ा, भीड़ जुटाने के प्रयत्न बढे। अखिलेश के यहां भीड़ के साथ चुनाव के सहयोगी भी भीड़ लगाने लगे-अपना दल (कृष्णा पटेल), राम अचल राजभर, महान दल, राष्ट्रीय लोक दल, आप वगैरह वगैरह। बीजेपी को अपना दल और संजय निषाद की पार्टी से भी गठबन्धन में दिक्कत होने लगी।
बीजेपी अपने विधायकों के खिलाफ एंटी-इंकम्बेंसी को स्वीकार करते हुए लगभग डेढ़ सौ लोगों का टिकट काटने की तैयारी करने लगी थी। पर वह रुक गई।
चुनावी दलबदल
चुनाव के समय दलबदल बहुत सामान्य चीज है और इधर बीजेपी ज्यादा उत्साह से दलबदल कराती रही है (बंगाल में तो हद ही हो गई थी)। पर यह दलबदल कई मायनों में ज्यादा असरदार रहा। इसने गैर-यादव पिछड़ों के बीजेपी के पक्ष में होने की हवा पलटी (पिछले दो चुनावों में बीजेपी की जीत का यह खास पक्ष था) और इनमें से अधिकांश नेता अपने-अपने इलाके और समाज में प्रभावी भी रहे हैं।
लेकिन इससे ज्यादा फर्क बीजेपी के लोगों का उत्साह घटाने और सपा कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ने के रूप में दिखा।
बीजेपी ने तत्काल भगदड़ मचने के डर से विधायकों का टिकट काटने का कार्यक्रम काफी कम कर दिया। अपने कई अलोकप्रिय विधायकों को भी फिर से मैदान में उतारा गया।
पर उत्तर प्रदेश चुनाव का असली और अब तक का सर्वाधिक प्रभावी चमत्कार अभी बाकी था। यह चमत्कार है लगभग सभी दलों द्वारा ‘पिछडों’ को सौ में साठ टिकट देना। डॉ. राममनोहर लोहिया का नारा था कि आबादी में साठ फीसदी हिस्सा रखने वाले पिछड़ों को पद भी साठ फीसदी मिलने चाहिए।
पिछड़े वोटों की गोलबन्दी और फिर उसके लिए मची मारामारी, दलित और आदिवासी सीटों के लिए आरक्षण और अब महिला वोटरों को लुभाने के लिए महिलाओं को टिकट देने की होड़ ने उनका यह सपना पूरा करा दिया है।
छोटी जातियां गोलबंद
जनरल सीट से दलित उम्मीदवार बड़ी संख्या में उतरे हैं और बड़ी पार्टियों ने भी यह काम किया है जबकि उम्मीदवारी के लिए मारामारी मची रही। टिकट मिलने तक तो यह स्थिति है, जीत और सरकार में क्या होगा, यह परिणाम आने पर तय होगा। लेकिन छोटी-छोटी जातियों के गोलबन्द होने और टिकटों के लिए दबाव बनाने (और पिछली जीत में निर्णायक भूमिका निभाने) के चलते सभी दलों के लिए मजबूरी हो गई कि बड़े से बड़ा ताकतवर नेता किसी राजभर के आगे तो किसी चौहान के आगे तो किसी निषाद के आगे झुकने को मजबूर है। किसी पिछड़ी जाति महिला को राजमाता कहने को मजबूर है।
और इधर महिलाओं की वोटिंग और बढ़ती राजनैतिक चेतना (जिसके प्रमाण हर कहीं दिखते हैं) ने प्रियंका को नई पहल के लिए बल दिया और कांग्रेस को प्रभावी न मानने वालों पर भी इसका असर साफ दिखता है।
उत्तर प्रदेश में तो सभी दल इससे प्रभावित लगते हैं लेकिन खुद कांग्रेस ने अन्य राज्यों में इस तरह टिकट नहीं दिया।
इन बडे बदलावों का असर व्यावहारिक जमीन पर कम ही दिखा क्योंकि पार्टियों ने अपराधियों और करोडपतियों को टिकट देने में बहुत कमी नहीं की। एडीआर की रिपोर्ट आने तक बीजेपी अपराधियों का मामला उठा रही थी पर बाद में चुप हुई। जिस अखिलेश ने लड़ाई को सीधा बना दिया है, वह अभी तक बहुत शांत मन से अपने रास्ते बढ़ते लग रहे हैं। उनका गठबन्धन भी ढंग से हुआ-सिर्फ ‘आप’ से बात किसी नतीजे तक नहीं आई।
लेकिन अखिलेश की सबसे बड़ी सफलता रही मुसलमान और अहीर भर का नेता होने का लेबल हटना। यह काम स्वामी प्रसाद मौर्य वगैरह के दल बदल से हुआ।
मुसलमानों का लगभग पूरा समर्थन एक जगह आने से ही उनको सबसे ज्यादा बल मिला है। पश्चिम में सबसे प्रभावी जाटों का साथ मिला है। बाकी जातियों का हिसाब भी इस बार एकतरफा नहीं है। ऐसे में बसपा का आधार रहे जाटव वोट अगर इस बार बिखरते हैं (बाकी दलित जातियां पहले टूट चुकी हैं) तो वे निर्णायक हो सकते हैं।
उनके बीजेपी की तरफ जाने की गुंजाइश है, साथ ही उनके बीजेपी विरोधी हवा के साथ भी बहने और बसपा के साथ बने रहने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। अभी तक ये साफ नहीं है कि वो किस ओर रुख़ करेंगे।
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