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रोज बदलते यूपी के परिदृश्य में क्या अखिलेश किंग बन पायेंगे? 

अखिलेश और सपा जिस तरह से उठ खडे़े हुए हैं, बीजेपी की सब तैयारियां बेअसर लगने लगी हैं और बड़ी तेजी से चुनाव सीधे मुकाबले में बदल गया है। प्रियंका के महिला कार्ड का असर भी उम्मीद से बेहतर हुआ पर वह चुनावी भूमिका निभाएगा यह कहना मुश्किल है। बहन जी वैसे ही मैदान छोड़ती लग रही हैं तो सम्भव है मतदान के दिन तक ज्यादातर दलित मतदाता भी उनका साथ छोड़ दें। 
अरविंद मोहन

इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है कि चुनाव तो पांच राज्यों में हो रहे हैं और चर्चा सारी उत्तर प्रदेश ही लिए जा रहा है। इस हिसाब से प्रियंका की महिला वाली पहल चर्चा पाती है या अखिलेश यादव की रैलियों में उमड़ी भीड़। प्रियंका की बातें मतदाताओं पर क्या असर डालेगी, यह तो दो महीने बाद पता चलेगा।  

नरेन्द्र मोदी की उत्तर प्रदेश की हर यात्रा चुनाव को ध्यान में रखकर बनी तब चर्चा हुई, चुनाव घोषणा में भाजपा के लाभ की स्थिति रखी गई तब चर्चा हुई, अखिलेश की रैलियों ने मोदी-शाह की सारी तैयारियों को न केवल बैकफुट पर धकेला बल्कि की लड़ाई को चतुष्कोणीय की जगह सीधी बना दी। 

और जब भाजपाई खेमा ही नहीं कई राजनैतिक पंडित भी यादववाद का आरोप लगाने लगे तो उसने स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिन्ह चौहान और धर्मपाल सैनी जैसे पिछड़े नेताओं के दलबदल से चुनावी तसवीर ही बदल दी। इससे न सिर्फ यादववाद का आरोप गायब हुआ बल्कि भाजपा के पास गैर-यादव पिछड़ा वोट का ठोस आधार होने का मिथ भी टूटा। 

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लेकिन बात उतने पर नहीं रुकी-भले ही भाजपा ने तत्काल अपने प्रबन्धन कौशल से उस भगदड़ को सम्भाल लिया जो स्वामी प्रसाद के इस्तीफे से शुरु हुई थी। बल्कि अखिलेश यादव ने दलबदलने वाले भाजपाइयों को टिकट न देने की घोषणा करके संकेत दिया कि यह पटाखाबाजी भी थम गई है। 

टिकट बंटवारे की रणनीति

पर भाजपा ने टिकट बांटने में जिस हिसाब से पिछड़ों का हिस्सा बढ़ा दिया उससे साफ लग रहा है कि ‘कोर्स करेक्शन’ में मोदी का जबाब नहीं है। इससे अपना दल और निषाद पार्टी के नेताओं की भी पूछ बढ़ गई और उन्हें कुछ ज्यादा सीटें मिल जाएंगी। पर असली फर्क निवर्तमान विधायकों को महसूस हुआ जिनके ऊपर काफी समय से टिकट कटने की तलवार लटक रही थी। 

सवा सौ से लेकर डेढ़ सौ भाजपा विधायकों का टिकट काटने की तैयारी थी और नरेन्द्र मोदी इस खेल के उस्ताद हैं। गुजरात में यह प्रयोग अभी तक चला है-मुख्यमंत्री के साथ पूरा कैबिनेट बदलने वाला। पर अखिलेश यादव की चुनौती बढ़ने और विधायकों का बगावती मूड देखकर भाजपा आलाकमान ने अपने लोगों के आगे ही सिर झुकाना कबूल किया। अब देखना है कि विधायकों के खिलाफ भारी एंटी-इंकम्बैंसी का उनका तर्क कहां तक चलता है और मोदी का मैजिक कितनों की नैया पार कराता है। 

akhilesh yadav in Up election 2022 - Satya Hindi

अपने विधायकों के डर का लाभ नन्दकिशोर गुर्जर (लोनी के विधायक) जैसों को भी मिला जिनकी करतूत से किसान नेता राकेश टिकैत नाराज होकर उठता धरना वापस लेकर बैठ गए और मोदी सरकार की दुर्गति हुई। किसान बिल वापसी और किसान आन्दोलन की सफलता वाला टर्निंग प्वाइंट वही था।

पांच राज्यों में उत्तर प्रदेश की ज्यादा चर्चा होने का कारण उसका दिल्ली से सबसे पास होना या आकार में बड़ा होना या हिन्दी पट्टी वाला होना भर नहीं है। ना ही इसका कारण पांचों विधान सभाओं में उसका आकार बड़ा होना या लोक सभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजना ही है। उसका कारण उत्तर प्रदेश का राजनैतिक महत्व है और अगर 2021 में कोरोना, पश्चिम बंगाल और किसान आन्दोलन, तीन मोर्चों पर बुरी तरफ पिटे नरेन्द्र मोदी और उनकी टोली ने उत्तर प्रदेश को फिर से जीत लिया तो सिर्फ योगी जी का दोबारा सत्ता में आना तय नहीं होगा, मोदी का तिबारा आना और और जाने क्या क्या बदलना तय हो जाएगा। 

akhilesh yadav in Up election 2022 - Satya Hindi

अगर इस जोड़ी को उत्तर प्रदेश ने भी ठुकरा दिया तो यह मोदी-मैजिक की विदाई पर अंतिम मोहर साबित होगा। फिर गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों को इंतजार की जगह बात सीधे 2024 लोक सभा चुनाव की होने लगेगी और सम्भव है कि मोदी-शाह की जोड़ी को मतदाताओं से पहले अपने दल और सहयोगी संघ का विरोध भी झेलना पड़ जाए। 

क्षेत्रीय दलों की चुनौती 

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चुनौती देने वाली नहीं है सो पांच राज्यों में उसे अगर अपनी एक सरकार बचाने और उत्तराखंड में जीतने का मौका मिला भी तो वह क्या चुनौती देगी, यह दूर की कौड़ी होगी। उससे पहले क्षेत्रीय दलों की चुनौती मजबूत होकर सामने आ जाएगी।

और कई लोग कहते हैं कि कांग्रेसी सत्ता को क्षेत्रीय दलों ने ही धूल चटाया तो अब भाजपा-संघ की सत्ता को भी क्षेत्रीय दल ही धूल चटाएंगे। 

उधर, ममता ताल ठोक रही हैं तो अखिलेश सबसे बड़ा प्रदेश जीतकर चुप थोड़े ही रहेंगे। सम्भव है फिर नीतीश कुमार और कई दूसरों की महत्वाकांक्षाएं जोर पकड़ने लगें।

उत्तर प्रदेश चुनाव मुहाने पर आकर जिस रूप में दिखता है, दो-तीन महीने पहले तक ऐसा नहीं लगता था। कोरोना से पस्त होकर भी योगी मस्त थे क्योंकि अखिलेश और मायावती जैसे विपक्षी संकट के समय गायब थे। वे कोरोना से दुर्गति का मसला नहीं उठा सकते थे। और सिर्फ़ राहुल-प्रियंका सक्रिय ही थे। 

उधर अयोध्या-काशी-मथुरा से नाराज हिन्दुओं को पटाने की सुभीता थी। पर अचानक ही अखिलेश और सपा जिस तरह से उठ खड़े हुए हैं, सब तैयारियां बेअसर लगने लगी हैं और बड़ी तेजी से चुनाव सीधे मुकाबले में बदल गया है। बल्कि कई बार भाजपा बैकफुट पर जाती लगती है। प्रियंका के महिला कार्ड का असर भी उम्मीद से बेहतर हुआ पर वह चुनावी भूमिका निभाएगा यह कहना मुश्किल है। बहन जी वैसे ही मैदान छोड़ती लग रही हैं तो सम्भव है कि मतदान के दिन तक ज्यादातर दलित मतदाता भी उनका साथ छोड़ दें। 

अखिलेश को छोटी पार्टियों और बागी नेताओं का सहयोग भी मिल रहा है-यहां बंगाल और अन्य राज्यों की तरह भाजपा विपक्ष में सेंध लगा पाने में अभी तक सफल नहीं है।
सो पांच साल की एंटी इंकम्बैंसी, कोरोना, बेरोजगारी और किसानों की भारी नाराजगी को भाजपा सिर्फ़ मोदी मैजिक से ही पार कर सकती है। और फिर मोदी मैजिक जारी भी रहेगा, कम से कम अगले लोक सभा चुनाव तक। लेकिन यह कहने के बावजूद पंजाब के बारे में भविष्यवाणी करने में कोई हर्ज नहीं है कि मोदी मैजिक का कोई असर नहीं होने वाला है-बल्कि वहां तो अमरिन्दर मैजिक भी कोई असर करता दिखाई नहीं देता। और अमरिन्दर ही क्यों, मुल्क की राजनीति के सबसे सीनियर नेता प्रकाश सिंह बादल की आंखों के सामने पहली बार अकाली दल सत्ता की लड़ाई से बाहर दिखता है। 
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पंजाब का चुनावी हाल

कायदे से उसे मुख्य विपक्षी दल होने और अमरिन्दर सरकार से नाराजगी का लाभ मिलना चाहिए। यह लाभ ले रही है आम आदमी पार्टी जिसे पिछली बार भी काफी समर्थन था लेकिन तब वह अपनी गलतियों से हार गई थी। इस बार भी मुख्यमंत्री का कोई भरोसे लायक चेहरा न होने के बावजूद भी वह मजबूत स्थिति में लग रही है।

कांग्रेस ने नेतृत्व बदलकर और पहली बार एक दलित चेहरे को आगे करके बड़ा दांव चला है क्योंकि पंजाब में दलितों की आबादी का अनुपात देश में सबसे ज्यादा है। लेकिन कई अन्य राज्यों की तरह यहां दलित गोलबन्द नहीं हैं और कांग्रेस के अन्दर बहुत खींच-तान है।   

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