उत्तर प्रदेश के नतीजों पर अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया आ गई और उसके साथ ही ईवीएम की गड़बड़ी या बारीक धांधली के आरोप भी शांत से होने लगे हैं। हो सकता है कि बीजेपी के चुनाव प्रबंधन और अपनी विफलताओं को छुपाने की रणनीति के कुछ और पेंच बाद में सामने आएं।बीएसपी और ओवैसी की पार्टी द्वारा बीजेपी की जीत या सपा की पराजय में निभाई भूमिका के प्रमाण या फल (जैसे राष्ट्रपति चुनाव या आगे कभी मदद के लेन-देन) अभी आ सकते हैं। लेकिन यह चुनाव निश्चित रूप से बीजेपी के हक में गया जबकि पांच राज्यों के कुल विधायकों में बीजेपी के जीते विधायक पिछली बार से लगभग बीस फीसदी कम हैं। यह बीजेपी के पक्ष में हिंदुओं (खासकर अगड़ों और गैर यादव- गैर जाटव समाज के ध्रुवीकरण के साथ हुआ है) की एकजुटता और मजबूत नेतृत्व के चलते हुआ, और इसके चलते मोदी और योगी का कद बढ़ा है। यह चुनाव बताता है कि अगर हिंदुत्व जैसी गोंद और मोदी-योगी जैसा नेतृत्व (इसे इंदिरा गांधी के नेतृत्व जैसा मानना चाहिए) हो तो लोग शासन की काफी विफलताओं को भुलाकर दोबारा मौका देने को तैयार रहते हैं।
कोरोना, किसान आन्दोलन, बेरोजगारी और महंगाई मुद्दा न थे यह कौन कह सकता है लेकिन मजबूत नेतृत्व हो तो यह भरोसा दिलाया जा सकता है कि आगे चीजों को संभाल लिया जाएगा। बीजेपी का चुनाव प्रबंधन तो बेमिसाल था। हर बूथ के प्रबंधन से लेकर छोटी-छोटी बातों (जिसमें कई को हम बेईमानी की श्रेणी में भी डाल सकते हैं) से लेकर मुद्दों और रणनीति में क्षेत्र और समय के अनुसार बदलाव और नरेंद्र मोदी समेत सब वजनदार लोगों को मैदान में लगाकर कारपेट बाम्बिंग करना इस प्रबंधन का कमाल थ। कहना न होगा कि इसके सूत्रधार खुद नरेन्द्र मोदी थे और संघ से लेकर भाजपा के हर वर्ग का अनुशासित सहयोग नहीं मिला।
दूसरी तरफ साढ़े चार साल साल से नदारद रहकर परीक्षा के समय कुंजियों के भरोसे (एक मित्र पत्रकार द्वारा दी गई उपमा) परीक्षा में अव्वल आने की अखिलेश यादव की रणनीति ने भले ही उनके वोट प्रतिशत में अपूर्व वृद्धि की, उनके विधायकों की संख्या तीन गुनी कर दी लेकिन इस तरीके की सीमा भी बता दी।
अखिलेश के पक्ष में जिस तरफ का उत्साह और शासन से नाराजगी का जुनून दिखता था वह वोट में न बदला हो, यह नहीं कहा जा सकता। इसी चीज ने बीजेपी से ज्यादा बीएसपी और कांग्रेस जैसे दलों का लगभग सफाया कर दिया लेकिन यह मोदी और योगी के प्रबंधन और पर्सनालिटी के जादू से पार न पा सका। मोदी-योगी ही नहीं अमित शाह की सभाओं (वैसे वे क्यों आम सभा कर रहे थे या उनके कहने से कौन वोट देगा यह समझ नहीं आया) तक में जुटी भीड़ उत्साहहीन लगी, साधनों का खेल लगा और इस आधार पर काफी सारे राजनीतिक पंडित बदलाव की बात करते थे। अखिलेश को मुसलमानों और अहीरों का वोट मुलायम सिंह वाले दौर की सपा से भी ज्यादा मिला, उन्होंने एक बार कई नेताओं का दलबदल कराके गैर-यादव पिछड़ों का समर्थन न मिलने का मिथ तोड़ने की कोशिश की (इसका हल्का फायदा हुआ) लेकिन वे भूल गए कि मुलायम के दौर में सपा के दिग्गज अगड़े नेता और दलित समेत सभी जातियों के जनाधार वाले नेता थे। उन्होंने यादव-मुसलमान गठजोड़ से (इसमें उनसे भी ज्यादा मुसलमानों का योगदान था जो मान-अपमान भूलकर और सारे उकसावे के बावजूद एकजुट होकर सपा को वोट देते रहे) जितना बड़ा वोट बैंक तैयार किया इसकी प्रतिक्रिया में अकेले अगड़ों का उससे ज्यादा बड़ा आधार बीजेपी के पास बना रह गया. उसमें दरार दिख रही थी लेकिन सपा उसे चौड़ा नहीं कर पाई।
कांग्रेस और बीएसपी की लड़ाई की ज्यादा चर्चा करने की जरूरत नहीं लगती। हाँ, इतना जरूर रेखांकित किया जाना चाहिए कि जहाँ बीजेपी महिला और अति-पिछड़ा या गैर जाटव उम्मीदवारों की संख्या थोड़ी बढ़ाकर काफी सारा महिला वोट हासिल किया वहीँ चालीस फीसदी टिकट के साथ महिलाओं के लिए काफी कुछ करने का वायदा कांग्रेस के काम नहीं आया। लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने बेरोजगारों को छह हजार रुपये महीना देने का वायदा किया लेकिन मोदी के छह हजार साल पर लोगों ने ज्यादा भरोसा किया। यह भरोसे लायक नेतृत्व और संगठन की ताकत का मामला है।
इसी तरह कांग्रेस ने बिना संगठन को साथ लिए या अपना आधार समझे हुए एक दलित को मुख्यमंत्री की कुर्सी तो दे दी लेकिन न तो उनका दलितों में कोई काम था और वे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में जाटों से आगे निकले। अखिलेश तो पांच साल चुप्पी के बीच आखिरी छह महीन जगे और मजबूती से लड़े लेकिन मायावती पांच साल ही नहीं चुनाव में भी सोती रही और लगभग सवा सौ सीटों से ऐसे उम्मीदवार उतारे जो भाजपा को मदद कर रहे थे. अब यह क्या सौदा था या ओवैसी से भी क्या भाजपा का रिश्ता था, यह सब सवाल अनुत्तरित हैं।सपा को अपने इतिहास से भी नुकसान हुआ और अखिलेश ने पिछली दफे जो किया या अभी जो कर रहे थे वह राजनीतिक मुद्दा न बन सका. अपराध से मुलायम सिंह की पार्टी का जो रिश्ता था वह अखिलेश की पार्टी का नहीं है लेकिन अखिलेश यह बता-जता न सके। बीजेपी के कुशल रणनीतिकारों ने इसका लाभ लिया।
अखिलेश अपनी पिछली सरकार की उपलब्धियों को भी चुनावी मुद्दा बनाने से चूके। सिर्फ योगी सरकार के कामकाज पर चोट की जगह उसके साथ अपनी उपलब्धियों को गिनवाने से लाभ होता। लेकिन इस चुनाव में महिलाओं की, दलितों और मुसलमानों की, अति पिछड़ों की भागीदारी और राजनीतिक चेतना बढी है, यह सबसे सार्थक उपलब्धि है। इसके लिए प्रियंका को भी श्रेय देना होगा और स्वामी प्रसाद- दारा सिंह-धर्म सिंह सैनी को भी।
पर, अखिलेश की असली उपलब्धि हिन्दू-मुसलमान, हिंदुस्तान-पाकिस्तान, गजवा ए-हिन्द- हिजाब जैसे मुद्दों का कहीं जमीन न पकड़ना है। उन्होंने उल्टी-सीधी प्रतिक्रिया देकर बीजेपी और संघ परिवार को उसका अवसर नहीं दिया। एक सुखद बदलाव विधानसभा में माफिया और अपराधियों की संख्या कम होना भी है। बीजेपी की भारी जीत के बावजूद मुसलमान विधायकों की संख्या बढ़ी है तो उम्मीद करनी चाहिए कि इस समाज का काम योगी राज-2 में पहले से बेहतर होगा और अखिलेश यादव तथा सपा की जिम्मेवारी है कि वह मुसलमान हितों का रखवाला बनें। जिस तरह यह चुनाव योगी-भाजपा को गवर्नेंस का पाठ पढाता है वैसे ही अखिलेश यादव को भी यह पाठ सीखना पड़ेगा कि पूरे पांच साल की सक्रियता, एक साफ वैचारिक प्रशिक्षण और बढ़िया संगठन खडा किये बिना सिर्फ एंटी इंकम्बेंसी और जोड़-तोड़ के सहारे राजनीति ज्यादा दूर तक नहीं जाती, कम से कम बीजेपी और संघ जैसे विपक्ष के सामने तो कतई नहीं।
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