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हिंसा के विरोध में इंफाल में प्रदर्शन करते लोग।

मणिपुर को राजनैतिक समाधान चाहिए, लाठी-गोली नहीं

विपक्षी कांग्रेस को ही नहीं, देश और समाज की चिंता करने वाले हर नागरिक को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मणिपुर से मुंह फेर लेने की आलोचना करने का अधिकार है। यह खास स्थिति अभी फिर से इसलिए भी आ गई है कि प्रधानमंत्री तो दुनिया भर में घूमकर रूस-यूक्रेन लड़ाई रुकवाने की पहल जैसे कार्यक्रम चलाने का दावा करते हैं और सोलह महीने से आंतरिक हिंसा से जूझ रहा मणिपुर एक बार फिर से भभक पड़ा है। हिंसा और मौत का तांडव तो चल ही रहा है पहली बार राजभवन और मुख्यमंत्री निवास की रखवाली भी मुश्किल होने लगी है। और बच्चे तो खुलकर आंदोलन पर उतरे हैं उनकी आड़ में बम और रॉकेट वाले आतंकी इरादों के लोग भी आ गए हैं और राजभवन पर भी निशाना साधा जाने लगा है। मुख्यमंत्री अपने यहां तैनात एजेंसियों की कमान अपने हाथ में मांग रहे हैं तो सरकार के लोग सुरक्षा की मांग करने लगे हैं। शासक दल के नेता और मंत्री-विधायक खास तौर से गुस्से का निशाना बन रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री अगर मुंह बंद रखें तो उनकी आलोचना होनी ही चाहिए। मणिपुर सरकार ने सारे स्कूल-कॉलेज बंद करने का आदेश दिया है लेकिन सारे बच्चे सड़कों पर जंग लड़ रहे हैं।

मणिपुर कोई अभी अभी इस मुश्किल स्थिति को नहीं झेल रहा है। यह स्थिति पिछले सोलह महीने से है। और हैरानी की बात यह है कि हिंसा, आगजनी, विस्थापन का इससे भी बुरा दौर झेलने से लेकर अभी तक प्रधानमंत्री को इस अभागे राज्य में जाने का और लोगों से बात करने का वक्त नहीं मिला है। विपक्ष ने जब संसद में बहुत हंगामा मचाया तब जाकर उन्होंने एक भाषण भर दिया लेकिन ऐसी कोई बड़ी पहल नहीं हुई है जिससे पूर्वोत्तर का यह राज्य शांत हो।

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लोकसभा चुनाव में पूर्वोत्तर में भाजपा को भारी नुक़सान होने के बाद भी न केंद्र सरकार और न ही भाजपा की तरफ़ से कोई पहल हुई है। उलटे सोशल मीडिया पर संघ/मोदी समर्थकों की तरफ से यह अभियान चला कि अगर भाजपा सरकार ने कुकी मैतेई विवाद पर अदालत में वह विवादास्पद पोजीशन न ली होती तो पूरे पूर्वोत्तर को ईसाई बनाने का विदेशी षडयन्त्र जाने कहां तक पहुँच गया होता। हम सब जानते हैं कि इस सवाल पर सरकार की तरफ से सही अदालती पैरवी होना और मोदी जी जैसे बड़े नेता द्वारा अपनी तरफ से पंच बनकर मसला सुलझाने का भरोसा देना ही एकमात्र समाधान है। अभी तक किसी बड़े नेता की तरफ से ऐसा आश्वासन नहीं दिया गया है और राज्य के मुख्यमंत्री अपनी मैतेई पक्षधरता को लेकर पहले ही विवाद सुलझाने की किसी हैसियत में नहीं रह गए हैं।

ये सारी चीजें वैसे ही बनी हुई हैं और प्रधानमंत्री तीसरी पारी में कुछ ज्यादा ही जोर-शोर से विदेश यात्रा करने में लगे हैं। लेकिन दो कारणों से हिंसा की ताजा घटनाएं तत्काल मुल्क और प्रशासन का ध्यान अपनी तरफ खींच रही हैं। एक तो अचानक जिस तरह से हिंसा फूटी है उसके लिए कोई भी तैयार नहीं लगता। प्रदेश सरकार ही नहीं, बड़ी संख्या में तैनात केन्द्रीय एजेंसियों के लोग भी इस हिंसा को संभाल न पाए और राजभवन से उनको अपने पैर वापस खींचने पड़े। छह तारीख के बाद से कम से कम 11 लोग मारे गए हैं और दूसरा, सुरक्षा एजेंसियां रॉकेट, ड्रोन और बमों के इस्तेमाल को लेकर खास चिंतित हैं। 

अभी भी सेना और सुरक्षा बालों से लूटे गए हथियार पूरी तरह रिकवर नहीं हुए हैं। और चिंता की खास बात राजधानी के उपद्रव के साथ ही जिरीहम जिले का हिंसा का केंद्र बनाना है जहां मैतेई, कुकी, बंगाली, नेपाली, नागा और अन्य समुदायों के लोग साथ साथ रहते हैं। 
यह जिला पहले भी काफी हिंसा देख चुका है और नई घटनाएं बताती हैं कि सोलह महीने बाद भी इन समूहों के बीच अविश्वास भाव ही नहीं, शत्रु भाव बरकरार है।
इससे ज्यादा अविश्वास अपनी राज्य और केंद्र सरकार को लेकर बना हुआ है। इस बार की हिंसा के बाद विधायकों और मंत्रियों की टोलियां मुख्यमंत्री और फिर सब मिलकर राज्यपाल लक्ष्मण आचार्य के पास पहुंचे और उनसे राज्य में तैनात लगभग एक दर्जन केन्द्रीय एजेंसियों की कमान मुख्यमंत्री को सौंपने की मांग की। मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का कहना था कि ऐसे अधिकार के बगैर वे प्रशासन से कुछ भी करा पाने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि मुख्यमंत्री और राज्य सरकार अपने लोगों का विश्वास खो चुकी है। यह स्थिति मई 2023 से ही बनी हुई है और भाजपा बीरेन सिंह को गद्दी पर रखकर अपनी राजनीति भर चला रही है जो बहुसंख्यक मैतेई को अपने पक्ष में रखने का है। पर ऐसा राजनैतिक लाभ भी नहीं हुआ है क्योंकि सभी इस रणनीति का दोष समझते हैं और इसी चलते भाजपा राज्य की दोनों लोकसभा सीटें हार गई थी।
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राज्य के दो प्रमुख समुदायों के बीच परस्पर अविश्वास का भाव और राज्य सरकार के प्रति अविश्वास का भाव जैसी दोहरी समस्या शुरू से सभी को समझ आ रही थी। अदालती फ़ैसले ने इसे और बढ़ाया। क़ायदे से राज्य सरकार को आगे बढ़कर अपने प्रति अविश्वास दूर करने के साथ सभी समुदायों में मेलजोल बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए था। ऐसा कुछ नहीं हुआ और राज्य सरकार पूरी तरह एक पक्ष में दिखाई देने लगी। ऐसी स्थिति में ‘बड़े भाई’ अर्थात केंद्र सरकार को ऐसी कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन नरेंद्र मोदी की कार्यशैली ऐसी बन गई है कि वे कुछ चीजों की जिद पाल लेते हैं। उन पर कदम उठाने की कौन कहे, जुबान खोलने से भी परहेज करते हैं। उनके सहायक अमित शाह ने जरूर शुरू में कानून-व्यवस्था के नाम पर कुछ सक्रियता दिखाई लेकिन मुश्किल यह है कि यह कानून-व्यवस्था भर का मसला ही नहीं है। दुखद यह है कि अभी भी केन्द्रीय बल यही प्रयास कर रहे हैं जबकि अभी आंदोलन सारे जमातों से आने वाले बच्चे-बच्चियां चला रहे हैं। उनके बीच कबीलाई विभाजन नहीं है और उनका एक मात्र नारा केन्द्रीय बालों को प्रदेश से बाहर भेजने का है।   

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अरविंद मोहन
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