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1985 में मुस्लिम महिलाओं के गुज़ारा भत्ता फ़ैसले से बदल गई देश की राजनीति?

सुप्रीम कोर्ट ने एक बहुत ही ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए कहा है कि अब मुस्लिम तलाक़शुदा महिलाएं भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता मांग सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला कई मायनों में अहम है और देश में समान नागरिक क़ानून (यूनिफार्म सिविल कोड) लागू करने की दिशा में एक बड़ा क़दम है। यह फ़ैसला 1985 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ही शाहबानो मामले में मुस्लिम तलाक़शुदा महिला को गुज़ारा भत्ता दिए जाने का समर्थन करता है और इस फैसले को तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा संसद में संविधान संशोधन कर मुस्लिम तलाक़शुदा महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किये जाने को ग़लत ठहराता है, इसलिए इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

आज से 39 वर्ष पहले मौजूदा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पिता वाई वी चंद्रचूड़ ने शाहबानो मुक़ददमे में तलाक़शुदा महिला शाहबानो को गुज़ारा भत्ता दिए जाने के बारे में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था।

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इसे लेकर अस्सी के दशक में एक बड़ा राजनीतिक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। इस फ़ैसले का समर्थन करने वाले और लोकसभा में बहुत ही तर्कसंगत से फैसले को जायज़ ठहराने वाले तत्कालीन केंद्रीय ऊर्जा राज्य मंत्री आरिफ मुहम्मद खान (वर्तमान में केरल के राज्य्पाल) को जब लगा कि उनकी कांग्रेस पार्टी अपने छुद्र राजनीतिक हितों और अपने 'मुस्लिम वोट बैंक' को गंवाने के डर से शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को संसद में एक संविधान संशोधन के ज़रिये बदलना चाहती है तो उन्होंने राजीव गाँधी के मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया।  

दरअसल, उस समय कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी मुस्लिम नेता, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ थे और उसे बदलवाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पर दबाव डाल रहे थे। राजीव गांधी मंत्रिमंडल के कई वरिष्ठ सदस्यों जैसे पी वी नरसिम्हा राव, अर्जुन सिंह, एन डी तिवारी, पी शिवशंकर, वसंत साठे आदि ने भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की इस बेजा मांग का समर्थन किया। 

कांग्रेस पार्टी के कई मुस्लिम नेता जैसे मोहसिना क़िदवई, मुफ़्ती मुहम्मद सईद, ज़ियाउर्रहमान अंसारी, सी के जाफ़र शरीफ़, ग़ुलाम  नबी आज़ाद और नज्मा हेपतुल्लाह जैसे लोग भी इसी राय के थे कि शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को संसद के ज़रिये बदला जाये। दिलचस्प बात यह है कि शुरू में खुद राजीव गाँधी फैसले के पक्ष में थे और उन्हीं के कहने पर आरिफ़ मुहम्मद खान ने लोकसभा में दो घंटे भाषण देकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया लेकिन जब उन्हें लगा कि राजीव गाँधी इस मुद्दे पर अपने स्टैंड से पीछे हट गए हैं तो उन्होंने राजीव मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। ग़ौरतलब बात ये है कि बीजेपी, शिवसेना और वामपंथी दलों को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की इस नाजायज़ मांग का समर्थन किया था।

ग़ौरतलब बात यह है कि जब राजीव गाँधी सरकार ने कांग्रेस पार्टी के मुस्लिम नेताओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में मुस्लिम महिला संरक्षण अधिनियम, 1986 एक्ट को एक संविधान संशोधन के ज़रिये बदलवा दिया तो बताया जाता है कि उसी रात उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना अली मियां नदवी से कहा कि ‘शाहबानो फ़ैसले को रद्द करने के लिए आप जैसा क़ानून चाहते थे वैसा क़ानून मैंने संसद से पारित करवा दिया है। अब आप एक प्रेस कांफ्रेंस करके मेरा धन्यवाद कीजिए और अब मैं अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने जा रहा हूँ उसके विरोध में आप लोग कुछ नहीं बोलेंगे।’
उल्लेखनीय है कि इस घटना के कुछ समय बाद ही अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुल गया और उस समय कोई सैटेलाइट टीवी चैनल नहीं था इसलिए उसे दूरदर्शन के ज़रिये देश भर में दिखाया गया और कांग्रेस पार्टी ने उसका पूरा श्रेय लेने की कोशिश की।

हाल ही में कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने तो खुलकर कहा कि अयोध्या में राममंदिर का निर्माण राजीव गाँधी के कारण संभव हो सका। 

इसी घटना के फ़ौरन बाद संघ परिवार ने अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए अपना आंदोलन शुरू कर दिया। बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने यह बात खुल कर कही कि शाहबानो फ़ैसले को संसद द्वारा बदलवाए जाने के बाद ही उन्होंने अयोध्या आंदोलन शुरू किया। कई वरिष्ठ पत्रकारों और लेखकों ने इस मुद्दे पर लिखी किताबों में यह स्पष्ट किया है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने और  वहां राममंदिर के निर्माण का प्रोजेक्ट राजीव के क़रीबी अरुण नेहरू का था। उन्होंने राजीव गाँधी को एक नोट दिया था जिसमें कहा गया था कि ‘शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला संसद द्वारा बदलवाने पर यह सन्देश गया है कि कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों के समक्ष समर्पण कर दिया है इसलिए अब बहुसंख्यक हिन्दुओं को खुश करने के लिए राममंदिर का निर्माण कराया जाना चाहिए।’

विचार से और

राजीव के क़रीबी सहयोगी रहे मणिशंकर अय्यर ने हाल ही में प्रकाशित अपनी एक किताब में भी यह उल्लेख किया है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला अरुण नेहरू के कहने पर खुलवाया गया। लेकिन इसी किताब के विमोचन समारोह में जब सोनिया गाँधी की मौजूदगी में मैंने मणि शंकर अय्यर से पूछा कि अरुण नेहरू तो 1987 में कांग्रेस पार्टी से बाहर कर दिए गए थे और फिर 1987 में राजीव गाँधी सरकार के गृहमंत्री बूटा सिंह और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने किस के कहने पर विश्व हिन्दू परिषद् के साथ लिखित समझौता करके अयोध्या में विवादास्पद भूमि पर राममंदिर के लिए शिलान्यास कराया तो पहले तो उन्होंने स्वीकार किया कि उसके लिए राजीव गाँधी ज़िम्मेदार थे पर फिर सोनिया गाँधी की ओर देखकर तुरंत यह जोड़ दिया कि उसके लिए आर के धवन और माखन लाल फोतेदार ज़िम्मेदार थे।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार यहीं से सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत हुई जिसकी परिणति पहले अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खोले जाने और फिर उसके विध्वंस के रूप में हुई और भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने का रास्ता साफ़ हुआ। इसके अलावा अपने आप को मुसलमानों की एकमात्र नुमाइंदगी का दावा करने वाली संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देशव्यापी स्तर पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू कर दिया और राजीव गांधी सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वह संसद में संविधान संशोधन कराकर इस फ़ैसले को बदल दे। 

ख़ास ख़बरें

शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला और उसको लेकर अस्सी के दशक में हुई राजनीति ने देश को काफी प्रभावित किया। लेकिन अब मुस्लिम तलाक़शुदा महिला को न्याय दिलाने के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है उसके कई निहितार्थ हैं। एक तो यह कि ज़ाब्ता फ़ौजदारी (सीआरपीसी) में धर्म, संप्रदाय और जाति के आधार पर फैसले नहीं होने चाहिए और संविधान की जो मूल भावना है कि समान नागरिक संहिता बनायी जानी चाहिए उसका अब वक़्त आ गया है। 

दूसरे यह कि समान नागरिक संहिता के बारे में सरकार क्या सोचती है उसका एक ड्राफ़्ट देश की जनता के सामने पेश किया जाना चाहिए ताकि उसपर एक आम सहमति बन सके और उसे जल्द से जल्द लागू किया जा सके। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि अदालतों के इस तरह के प्रगतिशील फैसलों का स्वागत किया जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पिछले चालीस वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं)

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क़ुरबान अली
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