अख़बारों में ख़बर है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1991 के पूजास्थल क़ानून के ख़िलाफ़ दायर एक याचिका को स्वीकार कर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है। इस पर ‘दैनिक जागरण’ की ख़बर इस प्रकार है, सुप्रीम कोर्ट में इस क़ानून की वैधानिकता पर विचार होना कुछ हिंदू संगठनों द्वारा श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर किए गए दावे के लंबित मुक़दमों को देखते हुए महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि 1991 का क़ानून इन पर रोक लगाता है।
अख़बार ने आगे लिखा है, ‘सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका बीजेपी नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दाखिल की है।’ इन सूचनाओं के बाद मुझे लगता है कि मामला क़ानूनी कम, राजनीतिक ज़्यादा है। ख़बर यह भी है कि विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के संयुक्त संगठन मंत्री डॉ. सुरेंद्र जैन ने कहा है कि कांग्रेस सरकार में बने पूजा स्थल क़ानून को चुनौती मिलने से देश में ग़ुलामी के प्रतीकों के हटने की आस जगी है।
‘नवभारत टाइम्स’ की ख़बर है, 90 के दशक में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में बाबरी मसजिद, वाराणसी में ज्ञानवापी मसजिद और मथुरा में शाही ईदगाह के ख़िलाफ़ आंदोलन तेज़ कर दिया था। तब क़ानून में यह प्रावधान किया गया कि अयोध्या की बाबरी मसजिद के सिवा देश की किसी भी अन्य जगह पर किसी भी पूजा स्थल पर दूसरे धर्म के लोगों के दावे को स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसमें कहा गया कि देश की आज़ादी के दिन यानी 15 अगस्त, 1947 को कोई धार्मिक ढांचा या पूजा स्थल जहाँ, जिस रूप में भी था, उन पर दूसरे धर्म के लोग दावा नहीं कर पाएँगे। इस क़ानून से अयोध्या की बाबरी मसजिद को अलग कर दिया गया या इसे अपवाद बना दिया गया।
इसे अयोध्या से संबंधित एक तथ्य से जोड़कर देखा जाना चाहिए। विकीपीडिया (अंग्रेज़ी) के अनुसार, दिसंबर 1949 में हिन्दू संगठन अखिल भारतीय रामायण महासभा ने रामचरितमानस के पाठ का आयोजन किया और इसके अंत में 22-23 दिसंबर 1949 की रात 50-60 लोगों ने भगवान राम की मूर्ति रख दी। उस समय के गृह मंत्री वल्लभभाई पटेल और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द बल्लभ पंत और मंत्री लाल बहादुर शास्त्री से मूर्तियाँ हटवाने के लिए कहा था पर मूर्तियाँ नहीं हटीं और आख़िरकार जो हुआ सो आप जानते हैं। ऐसे में यह नहीं माना जा सकता है कि बात सिर्फ़ पूजा स्थल पर कब्जे की है। मामला राजनीति का है।
मामला सुप्रीम कोर्ट में है और अयोध्या विवाद पर हाल का फ़ैसला और उससे संबंधित विवादों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने इस जनहित याचिका पर सुनवाई करने का निर्णय लिया है तो यह देखा जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में कौन से मामले लंबित हैं, कितने समय से लंबित हैं और अयोध्या मामले पर सुनवाई से देश के माहौल में क्या बदलाव आया आदि।
मामला सिर्फ़ नागरिकों के क़ानूनी अधिकारों के उल्लंघन का नहीं है और शुद्ध रूप से राजनीतिक इस मामले को अदालत ने स्वीकार कर लिया है तो जनता को यह बताया जाना चाहिए कि जनहित याचिकाओं को और लोगों के साथ सुप्रीम कोर्ट भी प्रचार याचिका मानता रहा है।
याचिका दायर करने वालों पर जुर्माना भी लगता रहा है। हाल का ऐसा ही एक मामला था जब सुप्रीम कोर्ट ने धारा 370 हटाने के ख़िलाफ़ फारुक अब्दुल्ला के बयान को देशविरोधी और राजद्रोह मानने से इनकार कर दिया।
राजद्रोह क़ानून
बेशक, यह एक विचार है और बहुत सारे लोग इससे सहमत हो सकते हैं। उसी तरह एक विचार राजद्रोह क़ानून को ख़त्म करने और उसके दुरुपयोग का भी है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि एक जनहित याचिका राजद्रोह क़ानून के दुरुपयोग और कांग्रेस पार्टी द्वारा इसे हटाने के आश्वासन के मद्देनज़र दायर की जा सकती है। जनहित में सुप्रीम कोर्ट स्वयं भी इस पर फ़ैसला कर सकता है। दूसरी ओर, फारुक अब्दुल्ला वाले मामले में अदालत ने कहा था कि यह प्रचार के लिए मुक़दमा करने का मामला है। हमें ऐसी याचिकाएँ दायर करने वालों के ख़िलाफ़ जुर्माना लगाना चाहिए। और अदालत ने 50,000 रुपए का जुर्माना लगाया था।
निश्चित रूप से प्रचार के लिए जनहित याचिका दायर करना एक समस्या है और समय-समय पर ऐसे मामले सामने आते रहे हैं, जुर्माने के बावजूद ऐसे मामले कम नहीं हो रहे। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को क्या इसपर विचार नहीं करना चाहिए कि कैसे जनहित के मामले पूरी तरह जनहित में हों उसकी आड़ में राजनीति या स्वार्थ न हो। ख़ासकर तब जब सुप्रीम कोर्ट के समय का महत्व है और मानहानि के मामले भी लंबित हैं। दूसरी ओर धार्मिक मामले को मौलिक अधिकार का उल्लंघन कहकर दायर की गई याचिका आई और स्वीकार भी कर ली गई जबकि कई दूसरे महत्वपूर्ण मामले लंबित हैं।
निश्चित रूप से यह सुप्रीम कोर्ट का विशेषाधिकार है लेकिन जनहित के नाम पर लोग अपने अधिकार और क़ानून का दुरुपयोग न करें – यह कैसे सुनिश्चित होगा।
ख़ासकर तब जब इसे बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने दायर किया है। उन्होंने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कांग्रेस सरकार की ओर से वर्ष 1991 में बनाए गए पूजा स्थल क़ानून- को चुनौती दी थी। उन्होंने पूजा स्थल क़ानून को भेदभावपूर्ण और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए कहा था कि केंद्र सरकार क़ानून बनाकर हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख समुदाय के लिए कोर्ट का दरवाजा बंद नहीं कर सकती है। क़ानूनी पहलू तो अदालत को देखने हैं लेकिन मेरा मानना है कि पुरातत्व महत्व के मामले जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अधीन हैं तो अयोध्या समेत बाक़ी के पूजा स्थल क्यों नहीं? और इस लिहाज से 1991 का क़ानून सही लगता है और यह अयोध्या विवाद के मद्देनज़र ही लाया गया होगा। अगर बाद के मामले समय पर नहीं निपटाए जा सकते हैं तो क्या पुराने मामले उठाना सही है। एक समाज के रूप में हमें नैतिक होना चाहिए। और प्राथमिकताएँ भी जनहित में होनी चाहिए।
भगवान राम के अधिकार अगर उनके उत्तराधिकारियों के लिए सुनिश्चित किए जा चुके हैं तो हमारी चिन्ता यह भी होनी चाहिए कि मोहम्मद अली जिन्ना की संपत्ति का फ़ैसला हो जाए। उसका भी उपयोग हो। भारत सरकार को उपयोग करना है तो भी।
हम 2000 करोड़ रुपए की इस संपत्ति की चिन्ता नहीं कर रहे हैं पर उन पूजा स्थलों को लेकर परेशान हैं जिससे कोई विवाद नहीं हैं और ऐसे ही मामले को निपटाने की कोशिश में वर्षों विवाद चला, अशांति रही और सैकड़ों मौतें हुईं। हम ऐसे मामले में यथास्थिति नहीं स्वीकार कर पाते हैं, क़ानून का राज चाहते हैं जबकि कई मामलों में क़ानून का राज है ही नहीं। अयोध्या मामले में फ़ैसला आसान नहीं था। जो हुआ था वह न्याय नहीं, समाधान है। एक देश के रूप में हम पुरातत्व महत्व की बाबरी मसजिद को सुरक्षित नहीं रख पाए और उसे गिराने वालों की पहचान भी नहीं कर पाए। ऐसी हालत में क्या हमें फिर से ऐसे विवाद में पड़ना चाहिए?
निश्चित रूप से यह क़ानूनी मामला नहीं है और इसे समाज को तय करना चाहिए। पर हमारे समाज को ऐसी चिन्ता है क्या? वह मंदिर बनवाकर ही ख़ुश है। क्या उसे क़ानूनी अधिकार के नाम पर मंदिर चाहिए और इससे हो सकने वाले नुक़सान का अनुमान है कि नहीं - यह सब देखना-बताना मीडिया का काम है जो आजकल पूरी तरह प्रचारक की भूमिका में है। ऐसे में यह कैसे तय होगा कि जनहित याचिका राजनीतिक प्रभाव या मक़सद से तो दायर नहीं की गई है?
वैसे भी जब आज़ादी के पहले के क़ानून चल रहे हैं, हम महामारी अधिनियम 1897 पर भरोसा कर रहे हैं तो 1991 के क़ानून पर पुनर्विचार की ज़रूरत क्यों है और अगर हो तो प्राथमिकताएँ कैसे तय होंगी? ख़ासकर इसलिए कि ऐसे मामले मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ने की तरह है। धार्मिक विवाद की आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता है। ऐसे में पुराने क़ानून पर विचार हो तो जनहित के दूसरे मामलों को प्राथमिकता क्यों नहीं? अख़बारों का काम था कि जनहित के कौन से मामले उठाए जाते हैं, कौन उठाता है और कौन से नहीं उठाए गए उस पर प्रकाश डाले तो इससे संबंधित राजनीति का खुलासा होगा। पर वह नहीं के बराबर होता है। पिछली बार जुर्माना लगाने की ख़बर को अख़बारों ने प्राथमिकता नहीं दी थी।
अपनी राय बतायें