यह बहुत अच्छा हुआ कि देश की सभी महिलाओं के लिए अब समान अधिकार के दरवाजे खोलने की मांग उठी है। भगवान की आराधना में भेद-भाव पैदा करने वाली कोई भी परंपरा कोरे पाखंड के अलावा कुछ नहीं है। जिस महिला के पेट से आदमी पैदा हुआ है, वह आदमी तो मंदिर, मसजिद और अगियारी में जा सकता है और वह औरत ही नहीं जा सकती, यह कौन-सा तर्क है?
किसी रजस्वला महिला को देखकर यदि किसी देवता का ब्रह्मचर्य भंग होता है तो ऐसे देवता को किसी कठोर गुरु की देखरेख में दुबारा गुरुकुल में भेजा जाना चाहिए। बोहरा समाज में स्त्रियों का खतना करना भी उचित नहीं है। कई धार्मिक और जातीय रीति-रिवाज सदियों पहले इसलिए चल पड़े कि वे देश-काल के हिसाब से ठीक लगे होंगे लेकिन अब उनको त्यागना समयानुकूल है। इसमें अदालत के हस्तक्षेप की ज़रूरत क्या है?
सभी धर्मों के ठेकेदारों को चाहिए कि वे अपने अनुयायियों को इन पाखंडों से मुक्त करें। यह, अदालतों का नहीं, उनका अपना फर्ज है। ऐसे मसलों पर धर्मध्वजी चुप रहें और अदालतें अपना मुंह खोलें, इससे बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है?
राम और कृष्ण का जन्म कहां हुआ था, ईसा मसीह ईश्वर के बेटे थे और मुहम्मद साहब अल्लाह के प्रतिनिधि थे, ऐसे मुद्दे भी आप क्या अदालत से तय करवाएंगे? ये मज़हबी मामले विश्वास के प्रतीक हैं, तर्क के नहीं, क़ानून के नहीं। इन विश्वास के मामलों को हम अंधविश्वास के मामले न बनने दें। मुल्ला-मौलवी, पंडित-पादरी, ग्रंथी, मैं सबसे विनयपूर्वक प्रार्थना करता हूं कि वे करोड़ों लोगों को अंधविश्वास की ग्रंथियों (गठानों) से ख़ुद मुक्त करें।
अपनी राय बतायें