नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध देश में इतना बड़ा आंदोलन उठ खड़ा होगा, इसकी कल्पना नरेंद्र मोदी और अमित शाह को क्या, कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों को भी नहीं होगी। यदि अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया के छात्र भड़क उठे हैं तो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी और देश के अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र भी इस क़ानून के विरुद्ध मैदान में उतर आए हैं।
यह ठीक है कि देश के विपक्षी दल इस जनोत्थान से खुश हैं और वे इसे उकसा भी रहे हैं लेकिन हम इससे इनकार नहीं कर सकते कि यह आंदोलन स्वतःस्फूर्त है। बीजेपी की प्रतिक्रिया ऐसी है, जो इस आंदोलन में आग में घी का काम कर रही है।
हालांकि भारत के मुसलमान नागरिकों को इस नए क़ानून से ज़रा-सा भी नुक़सान नहीं है लेकिन पड़ोसी देशों के मुसलमान शरणार्थियों को नागरिकता से वंचित करने का प्रावधान किसी भी भारतीय या अभारतीय मुसलमान को अपमानित महसूस करवा सकता है।
मैं पूछता हूं कि पाकिस्तान के कितने मुसलमान (1947 में भारत से गए हुए नहीं) आज तक भारत आए हैं? कुछ दर्जन पाकिस्तानी मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करने के इस काम को बीजेपी सरकार ने इतना तूल शायद इसलिए दे दिया कि वह बड़ी हिंदुत्ववादी दिखना चाहती थी। लेकिन पूर्वोत्तर के हिंदुओं ने इस मंशा को लहूलुहान कर दिया है।
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