केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान के साथ ‘इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस’ के अधिवेशन में जो बर्ताव किया गया, क्या वह इतिहासकारों और विद्वानों को शोभा देता है? यह ठीक है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे पद संवैधानिक होते हैं और इन पदों पर बैठे लोगों को रोजमर्रा की राजनीति में नहीं उलझना चाहिए लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि जिस कार्यक्रम में ऐसे उच्चपदस्थ व्यक्ति उपस्थित हों, उसमें अन्य वक्तागण अमर्यादित राजनीतिक भाषण झाड़ें और वह बैठा-बैठा सुनता रहे? कम से कम आरिफ़ ख़ान जैसे प्रखर विद्वान और तेजस्वी वक्ता से ऐसी आशा करना अनुचित है।
इतिहास कांग्रेस के विद्वान कश्मीर-विलय या नागरिकता संशोधन क़ानून जैसे नाजुक और तात्कालिक मामलों पर संसद और सरकार को कोसें, बार-बार संविधान के उल्लंघन की डोंडी पीटें और उम्मीद करें कि वहां उपस्थित राज्यपाल जो कि एक संवैधानिक प्रमुख हैं, अपने मुंह पर पट्टी बांधे रहें, यह कैसे हो सकता है?
जब पहले दो वक्ताओं ने इस मर्यादा को भंग किया तो राज्यपाल आरिफ़ ने अपने भाषण में उनका पांडित्यपूर्ण जवाब देने की कोशिश की। उन्होंने इतिहासकारों को भारत-विभाजन का इतिहास दुबारा पढ़ा दिया। उन्होंने अपनी बात के समर्थन में जब गाँधी और मौलाना आज़ाद को उद्धृत किया तो एक इतिहासकार ने उनसे गोडसे की तारीफ करने के लिए कहा और मंच पर उनके पास जाकर उन्हें धमकाने की कोशिश की। कुछ छात्रों ने पहले से बनाई हुई तख्तियां हिला-हिलाकर नारे लगाए, मतलब यह पूर्व-नियोजित षड्यंत्र था।
राज्यपाल आरिफ़ ख़ान को जो जानते हैं, उन्हें पता है कि वह कितने जांबाज़ आदमी हैं। आरिफ़ ने कहा कि वह विरोध का स्वागत करते हैं लेकिन वह किसी से डरने वाले नहीं हैं। ये वही आरिफ़ ख़ान हैं, जिन्होंने शाह बानो के मामले में इतिहास बनाया था। उस समय कई जानलेवा हमलों के बावजूद वह अपनी टेक पर डटे रहे। मुसलिम महिलाओं की मुक्ति के मसीहा भी आरिफ़ ही हैं, क्योंकि तीन-तलाक़ को ग़ैर-क़ानूनी घोषित करवाने में भी उनकी भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है। दुर्भाग्यपूर्ण यही है कि हमारे देश में खुली बहस का दायरा सिकुड़ता जा रहा है और असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। इसीलिए इतिहास बनाने वाले एक शख़्स पर इतिहास लिखने वाले कुछ लोगों ने हमला बोल दिया।
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