बात बहुत मज़ेदार है। मज़ेदार बातें करने में बीजेपी के नेताओं का कोई सानी नहीं। फिर यदि बात गाय की हो तो बीजेपी के नेता किसी भी सीमा तक चले जाते हैं। अब ज़रा पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनने के लिए आतुर बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष के एक और मज़ेदार तथा ताज़ा बयान पर ग़ौर करें कि ‘गधे कभी भी गाय की अहमियत नहीं समझेंगे। ...हमें स्वस्थ रहने के लिए गोमूत्र पीना चाहिए। जो शराब पीते हैं वे कैसे एक गाय की अहमियत को समझेंगे?’
दक्षिणपंथियों ने गोमूत्र की अवैज्ञानिक महिमा की बातें तो पहले भी ख़ूब की हैं, लेकिन दिलीप घोष ने अब ‘गधे’ को गाय से जोड़ कर गज़ब कर दिया है।
गाय के दूध में सोना!
इन्हीं दिलीप घोष ने बीते नवम्बर में रहस्योद्घाटन किया था कि ‘भारतीय नस्ल की गायों में एक खासियत होती है। इनके दूध में सोना मिला होता है और इसी वजह से उनके दूध का रंग सुनहरा होता है। उनके एक नाड़ी होती है जो सूर्य की रोशनी की मदद से सोने का उत्पादन करने में सहायक होती है। इसलिए हमें देसी गायें पालनी चाहिए। अगर हम देसी गाय का दूध पिएंगे तो स्वस्थ रहेंगे और बीमारियों से भी बचाव होगा।’ब्रह्मचारी मोर
घोष बाबू के ऐसे बयान ने सहसा राजस्थान हाईकोर्ट के जज महेश शर्मा के उस बयान की याद ताज़ा कर दी है कि ‘मोर जिंदगी भर ब्रह्मचारी रहता है। उसके आंसू चुगकर मोरनी गर्भवती होती है। इसीलिए मोर को राष्ट्रीय पक्षी बनाया गया। मोर पंख को भगवान कृष्ण ने इसलिए सिर में लगाया क्योंकि वह ब्रह्मचारी है। साधु-सन्त भी इसलिये मोर पंख का इस्तेमाल करते हैं। मंदिरों में भी इसलिये मोर पंख लगाया जाता है। ठीक इसी तरह गाय के अंदर भी इतने गुण हैं कि उसे राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए।’कम दिमाग़, बतख और इंटरनेट
दिलीप घोष और जस्टिस महेश शर्मा की तरह ही त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव देब भी अपने विचित्र बयानों को लेकर ही पहचाने गये, भले ही इससे उनका ख़ूब उपहास हुआ हो। मैकेनिकल इंज़ीनियरिंग में डिग्री लेने वाले बिप्लव देब बता चुके हैं,
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“महाभारत के दौरान संजय ने हस्तिनापुर में बैठकर धृतराष्ट्र को बताया था कि कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध में क्या हो रहा है। संजय इतनी दूर रहकर आँख से कैसे देख सकते हैं। सो, इसका मतलब है कि उस समय भी तकनीक, इंटरनेट और सैटेलाइट था।’
बिप्लव देब, मुख्यमंत्री, त्रिपुरा
बिप्लव देब के ताज़ा बयान ने तो ऐसी सियासी हलचल पैदा कि इन्हें माफ़ी माँगनी पड़ी। अबकी बार उन्होने बंगालियों को बहुत बुद्धिमान और पंजाबी सरदारों और जाटों को कम दिमाग़ वाला बता दिया था। बिप्लब यह भी रहस्योद्घाटन कर चुके हैं ‘जब बत्तख पानी में तैरते हैं, तो जलाशय में ऑक्सीजन का स्तर अपने आप बढ़ जाता है। इससे ऑक्सीजन रिसाइकिल होता है। पानी में रहने वाली मछलियों को ज़्यादा ऑक्सीजन मिलता है। इस तरह मछलियां तेजी से बढ़ती हैं और ऑर्गनिक तरीके से मत्स्यपालन को बढ़ावा मिलता है।'
35 रुपये, 50 दिन और 21 दिन
यदि आप ऐसे सिरफिरे बयानों को लेकर अपना सिर धुनना चाहते हैं तो धुनते रहें, लेकिन बीजेपी के बड़े-बड़े नेताओं को ऐसे ही सियायी बयानों को फ़ायदा मिलता रहा है। याद है न कि 2014 में 35 रुपये लीटर पेट्रोल बेचने का सपना बेचकर बीजेपी ने मनमोहन सरकार का तख़्ता पलट दिया था।
यही हाल ‘काला धन’ और ‘अच्छे दिन’ का भी रहा। इसी तरह 50 दिन में नोटबन्दी के कष्टों से उबारने की बात की गयी थी तो 18 दिन चले महाभारत के युद्ध का वास्ता देकर 21 दिन में कोरोना के सफ़ाया का सब्ज़बाग़ भी दिखाया गया था।
घुसपैठ और ज़मीन
इसी तरह जब ‘विकास’ लापता हो गया तो ‘आत्मनिर्भर भारत’और ‘वोकल फॉर लोकल’ से उसे ढूँढ़ निकालने को कहा गया। इसी तर्ज़ पर कहा गया कि ‘पूर्वी लद्दाख में न तो कोई हमारी सीमा में घुस आया है, न ही कोई घुसा हुआ है और ना ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्ज़े में है।’ उधर, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह भी लद्दाख जाकर भाषण दे आये कि ‘भारत ने कभी किसी देश की एक इंच ज़मीन भी नहीं हथियाई।’ अब किससे पूछें कि गोवा और पांडिचेरी से पुर्तगालियों और फ्रांसीसियों की विदाई की ख़ातिर हो सैनिक कार्रवाई हुई थी, क्या उससे क्या भारत का क्षेत्रफल नहीं बढ़ा था?
ऐसे ही एक से बढ़कर एक मज़ेदार बयान को देखकर कभी-कभार तो शक़ होता है कि क्या जनता ने ऐसे ही मज़ेदार बयान सुनने के लिए बीजेपी को सत्ता दी है? बहरहाल, दिलीप घोष की मज़ेदार बातों को सुनकर ये कौतूहल क्या लाज़िमी नहीं है कि यदि गाय के दूध में सोना होता है तो दुनिया भर में सोने की खदानों से इसके अयस्क का खनन क्यों होता है?
क्यों दुनिया भर में धरती को खोदकर इसे क्षत-विक्षत किया जाता है? भारत में भी बीजेपी शासित कर्नाटक के कोलार ज़िले में सोने की खदानें हैं। इन्हें अब तक बन्द क्यों नहीं किया गया?
देसी गाय के दूध में यदि सोना है तो सोने का आयात और तस्करी क्यों होती है? गायों को सड़कों पर घूम-घूमकर कूड़ा-कचरा और पॉलीथीन क्यों खाना पड़ता है? गाय को माता बताकर उसे पूजने वालों, गऊ दान रूपी सनातनी कर्मकांड का महिमामंडन करने वालों के सत्ता-काल में भी गौवंश के प्रति ऐसा सतत अनर्थ आख़िर क़ायम कैसे है? ये कैसी विचित्र बात है कि जो शराब पीते हैं वो गाय की अहमियत को नहीं समझ सकते? मुझे कूड़ा-कचरा खाने वाली गायों के मूत्र के सेवन से सख़्त आपत्ति और परहेज़ है। लेकिन मेरी आपत्ति से उन्हें क्या?
बाबू मोशाय के जीवन का तो बस एक ही लक्ष्य है कि बंगाल के हिन्दुओं में धार्मिक अन्धविश्वास और भ्रान्तियों को फैलाकर ममता दीदी को सत्ता से बाहर करना और यदि मोदी-शाह की कृपा हो जाए तो सूबे का अगला मुख्यमंत्री बनना। दिलीप घोष को लगता है कि यदि सिरफिरी बातें करके बिप्लव देब त्रिपुरा में लगातार 20 साल मुख्यमंत्री रहे माणिक सरकार का तख़्तापलट कर सकते हैं, यदि लम्बी-लम्बी छोड़कर नरेन्द्र मोदी लगातार दो बार दिल्ली में पूर्ण बहुमत वाली सरकारें बना सकते हैं तो 2021 में बंगाल में उनकी किस्मत क्यों नहीं चमक सकती?
गिरिराज सिंह, लाल मुनि चौबे और सम्बित पात्रा भी उन लोगों में शुमार हैं जिन्होंने अपने वाहियात बयानों से ही अपनी पहचान बनायी है। कदाचित, यही लोग दिलीप घोष के आदर्श हों।
सत्ता की ख़ातिर और संविधान से मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी का मज़ा लेते हुए दिलीप घोष ने मेरे जैसे करोड़ों लोगों को गधा यानी मूर्ख होने का या अस्वस्थ होने का सर्टिफ़िकेट भी इसलिए दे दिया क्योंकि हम जैसों को गोमूत्र नहीं पीना। अब यदि दिल्ली घोष के बयान से किसी को ठेस पहुँची हो या उसकी मानहानि हुई है तो हुआ करे, उनकी बला से। बीजेपी के तमाम नेताओं की तरह वह भी तो ख़ुद को क़ानून और संविधान से ऊपर ही समझ रहे होंगे! लेकिन गधे की विशेषता बताने वाले बयान को लेकर मुझे अनायास ही मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान उर्फ़ ग़ालिब के चर्चित किस्सों की याद आ गयी।
‘गधे आम नहीं खाते!’
हुआ यूँ कि ग़ालिब को आम बहुत पसन्द थे। इतने कि उन्हें आम के आगे गन्ने की मिठास भी कमतर लगती थी। उन्होंने एक दोस्त से कहा था कि ‘मुझसे पूछो तुम्हें ख़बर क्या है, आम के आगे नेशकर क्या है’। नेशकर यानी गन्ना। आम के प्रति ग़ालिब की चाहत को देखते हुए ही गर्मी के मौसम में उनके दोस्त उन्हें तरह-तरह के आमों की टोकरियाँ भिजवाया करते थे। लेकिन ग़ालिब के एक अज़ीज़ दोस्त हकीम रज़ी उद्दीन ख़ानको आम बिल्कुल पसन्द नहीं थे।
एक दफ़ा ग़ालिब और हकीम रज़ी उद्दीन अपने घर के बरामदे में बैठे थे। आम को लेकर दोनों एक-दूसरे की पसन्द-नापसन्द से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। इसके बावजूद, उनकी गुफ़्तगू के दौरान, जैसे ही घर के सामने से एक गधागाड़ी गुज़री तो इसके गधे ने रास्ते में पड़े आम के छिलके को सूंघा और अपना मुंह हटाकर चलता बना। यह देख हकीम साहब ने अचानक विषयान्तर करते हुए चुहल की कि ‘आप भले ही आम के दीवाने हैं लेकिन देखिये कि एक गधा भी आम नहीं खाता!’ इस पर हाज़िर-जबाब ग़ालिब ने कहा कि ‘जी हाँ, इसमें कोई शक नहीं कि गधे आम नहीं खाते!’
अब मैं जनाब दिलीप घोष से कैसे पूछूँ कि भले ही मैं गोमूत्र नहीं पीता, लेकिन मुझे भी ग़ालिब की तरह आम बहुत पसन्द हैं, लिहाज़ा, मुझे ‘गधा’ माना जाएगा या नहीं?
मज़ेदार बात यह भी है कि गोबरपट्टी में गधे को महज एक पशु के नाम की तरह ही नहीं बल्कि मूर्खता की एक उपमा के रूप में भी पेश किया जाता है। अब मैं घोष बाबू को मूर्ख कहकर उनकी हेठी करने की हिमाक़त तो करने से रहा क्योंकि अनर्थ से हमेशा डरना चाहिए। बहरहाल, जब ग़ालिब और आम की बात हुई है तो ग़ालिब के आम-प्रेम से जुड़े एक और मशहूर किस्से का ज़िक्र भी लाज़िमी है।
आम पर लिखा नाम
हुआ यूँ कि एक बार ग़ालिब और बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र अपने कुछ साथियों के साथ दिल्ली के लाल किला यानी क़िला-ए-मुबारक के बाग ए-हयात बख्श में टहल रहे थे। इस बाग़ में कई किस्म के आम के पेड़ थे। लेकिन इसके आम सिर्फ़ बादशाह, शहज़ादों और हरम की औरतों के लिए होते थे। बाग़ के टहल-क़दमी के दौरान ग़ालिब हरेक पेड़ पर झूल रहे आम को बड़े ध्यान से देख रहे थे। ये देख बादशाह ने उनसे पूछ लिया कि ‘अमां, आप हर आम को इतने ध्यान से क्यों देख रहे हैं?’
जबाब में ग़ालिब ने बेहद संजीदगी से कहा कि ‘मेरे मालिक, मेरे रहनुमा, एक बार किसी शायर ने कहा था कि हर आम पर, उसके खाने वाले का नाम लिखा होता है। मैं अपने दादा, अब्बा और अपना नाम तलाश रहा हूं। बादशाह, यह सुनकर मुस्कुराये। फिर ग़ालिब की हाज़िर जबाबी की दाद देते हुए उन्होंने पुराने दस्तूर को तोड़कर शाम तक मिर्ज़ा के घर बाग़ के आमों की टोकरी भिजवा दी।
आख़िर में, फिर से रुख़ करते हैं दिलीप घोष के गाय-ज्ञान की ओर। ताकि इनका सारा अहम गाय-सिद्धान्त एक ही जगह पर मिल सके। गाय को लेकर दिलीप घोष के दो अन्य बयान भी कोई कम मज़ेदार या हास्यास्पद नहीं है। पहला बयान है कि ‘विदेश से जिन नस्लों की गायें हम लाते हैं, वे गाय नहीं हैं। वे एक तरह के जानवर हैं। ये विदेशी नस्लें गायों की तरह आवाज नहीं निकालती हैं। वे हमारी गोमाता नहीं बल्कि हमारी आंटी हैं। अगर हम ऐसी आंटियों की पूजा करेंगे तो देश के लिए अच्छा नहीं होगा।’
और दूसरा बयान है कि ‘कुछ बुद्धिजीवी सड़कों पर गोमांस खाते हैं, मैं उनसे कहता हूं कि वे कुत्ते का मांस भी खाया, जिससे उनका स्वास्थ्य ठीक रहेगा। उन्हें जिस भी जानवर का मांस खाना हो खाए लेकिन सड़कों पर क्यों, अपने घर पर रखे।
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