कुछ लोगों को ऐसा क्यों महसूस हो रहा है कि देश में अघोषित आपातकाल लगा हुआ है और इस बार क़ैद में कोई विपक्ष नहीं बल्कि पूरी आबादी है? घोषित तौर पर तो ऐसा कुछ भी नहीं है। न हो ही सकता है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि पैंतालीस साल पहले 25 जून 1975 को जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने वाले जो लोग तब विपक्ष में थे उनमें अधिकांश इस समय सत्ता में हैं। वे निश्चित ही ऐसा कुछ नहीं करना चाहेंगे। हालाँकि इस समय विपक्ष के नाम पर देश में केवल एक परिवार ही है। इसके बावजूद आपातकाल जैसा क्यों महसूस होना चाहिए! कई बार कुछ ज़्यादा संवेदनशील शरीरों को अचानक से लगने लगता है कि उन्हें बुखार है। घरवाले समझाते हैं कि हाथ तो ठंडे हैं फिर भी यक़ीन नहीं होता। थर्मामीटर लगाकर बार-बार देखते रहते हैं। आपातकाल को लेकर इस समय कुछ वैसी ही स्थिति है।
अघोषित आपातकाल!
देश अपने ही कारणों से ठंडा पड़ा हुआ हो सकता है पर कुछ लोगों को महसूस हो रहा है कि आपातकाल लगा हुआ है क्योंकि उन्हें लक्षण वैसे ही दिखाई पड़ रहे हैं। लोगों ने बोलना, आपस में बात करना, बहस करना, नाराज़ होना सबकुछ बंद कर दिया है। किसी अज्ञात भय से डरे हुए नज़र आते हैं। मास्क पहने रहने की अनिवार्यता ने भी कुछ न बोलने का एक बड़ा बहाना पैदा कर दिया है। संसद-विधानसभा चाहे नहीं चल रही हो पर राज्यों में सरकारें गिराई जा रही हों, पेट्रोल-डीज़ल के दाम हर रोज़ बढ़ रहे हों, अस्पतालों में इलाज नहीं हो रहा हो, किसी भी तरह की असहमति व्यक्त करने वाले बंद किए जा रहे हों और उनकी कहीं सुनवाई भी नहीं हो रही हो—जनता इस सब के प्रति तटस्थ हो गई है। वह तो इस समय अपनी ‘प्रतिरोधक’ क्षमता बढ़ाने में लगी है जो कि आगे सभी तरह के संकटों में काम आ सके।
अपवादों को छोड़ दें तो मीडिया की हालत तो असली आपातकाल से भी ज़्यादा ख़राब नज़र आ रही है। वह इस मायने में कि आपातकाल में तो सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल का मीडिया पर आतंक था पर वर्तमान में तो वैसी कोई स्थिति नहीं है। जैसे-जैसे कोरोना के ‘पॉज़िटिव’ मरीज़ बढ़ते जा रहे हैं वैसे-वैसे मीडिया का एक बड़ा वर्ग और ज़्यादा ‘पॉज़िटिव’ होता जा रहा है।
आपातकाल के बाद आडवाणी जी ने मीडिया की भूमिका को लेकर टिप्पणी की थी कि : ‘आपसे तो सिर्फ़ झुकने के लिए कहा गया था, आप तो रेंगने लगे।’ आडवाणी जी तो स्वयं ही इस समय मौन हैं, उनसे आज के मीडिया की भूमिका को लेकर कोई भी प्रतिक्रिया कैसे माँगी जा सकती है?
हम ऐसा मानकर भी अगर चलें कि देश के शरीर में बुखार जैसा कुछ नहीं है केवल उसका भ्रम है तब भी कहीं तो कुछ ऐसा हो रहा होगा जो हमारे लिए कुछ बोलने और नाराज़ होने की ज़रूरत पैदा करता होगा! उदाहरण के लिए करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की पीड़ाओं को ही ले लें! उसे लेकर व्यवस्था के प्रति जनता का गुमसुम हो जाना क्या दर्शाता है? किसकी ज़िम्मेदारी थी उनकी मदद करना? कभी ज़ोर से पूछा गया क्या? सोनू सूद की जय-जयकार में ही जो कुछ व्यवस्था में चल रहा है उसके प्रति प्रसन्नता ढूँढ ली गई?
सर्वोदय आंदोलन के एक बड़े नेता से जब पूछा कि वे लोग जो जे पी के आंदोलन में सक्रिय थे और आपातकाल के दौरान जेलों में भी बंद रहे इस समय प्रतिमाओं की तरह मौन क्यों हैं? क्या इस समय वैसा ही ‘अनुशासन पर्व’ मन रहा है जैसी कि व्याख्या गाँधी जी के प्रथम सत्याग्रही विनोबा भावेजी ने आपातकाल के समर्थन में 1975 में की थी? वे बोले : ‘कोई कुछ भी बोलना नहीं चाहता। या तो भय है या फिर अधिकांश संस्थाएँ सरकारी बैसाखियों के सहारे ही चल रही हैं।’ किसी समय के ‘कार्यकर्ता’ इस समय ‘कर्मचारी’ हो गए हैं। सत्तर के दशक के अंत में जब कांग्रेस में विभाजन का घमासान मचा हुआ था, मैंने विनोबा जी के पवनार आश्रम (वर्धा) में उनसे पूछा था देश में इतना सब चल रहा है ‘बाबा’ कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते? उन्होंने उत्तर में कहा था: ‘क्या चल रहा है? क्या सूरज ने निकलना बंद कर दिया है या किसान ने खेतों पर जाना बंद कर दिया? जिस दिन यह सब होगा बाबा भी प्रतिक्रिया दे देंगे।’
आज की सत्ता के लिए गाँधी का नाम एक राजनीतिक मजबूरी है, कोई नैतिक ज़रूरत नहीं। गाँधी के आश्रम भी इसीलिए ज़रूरी हैं कि हम पिछले सात दशकों में ऐसे और कोई तीर्थस्थल नहीं स्थापित कर पाए।
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