पिछले सप्ताह किरावली (आगरा) की विशाल किसान पंचायत में हज़ारों-हज़ार किसानों को सम्बोधित करते हुए किसान नेता राकेश टिकैत ने जो स्वर छेड़े वे न सिर्फ़ मौजूदा किसान आंदोलन में नितांत नए राग के रूप में अंकित हो गए बल्कि वो किसान आंदोलन की परिधि को खेत और गाँव से विस्तार देकर शहरों तक खींच देते हैं। ये ऐसे नूतन स्वर हैं जिसने किसान आंदोलन के करघे में मज़दूर एकता का नया धागा बुन डाला है। अपने संबोधन में टिकैत ने 60 लाख ट्रैक्टरों के साथ संसद को घेरने की चेतावनी और डीज़ल-पेट्रोल की बढ़ती क़ीमतों को उठाने के साथ-साथ रेलवे और बीएसएनएल के निजीकरण का विरोध किया। यह न केवल बीजेपी की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध ऐसा 'यलगार' है जिसे ऐसे साफ़-सुथरे तरीक़े से उठाने की हिम्मत विरोधी पार्टियाँ भी नहीं कर पा रही हैं बल्कि वो आज़ादी के बाद उभरे किसान आंदोलनों में मज़दूरों के साथ एका की पहली पहल का आह्वान भी है।
किसान आंदोलन के नये राग और सरकार की बढ़ती मुश्किलें
- विचार
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- 1 Mar, 2021
कृषि क़ानूनों के विरुद्ध शुरू हुए किसान आंदोलन ने आज़ादी के बाद के तेलंगाना आंदोलन के मज़दूर एकता के तत्वों को भी स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया है। टिकैत के सम्बोधन को इसी रौशनी में देखा जाना चाहिये। निजीकरण और बीजेपी की दूसरी आर्थिक नीतियों के विरोध में श्रमिकों का जिस प्रकार का असंतोष फूट रहा है वह यदि किसान बगावत से जुड़ जाता है तो मोदी सरकार मुश्किल में पड़ जाएगी।
यूँ दूसरे दशक में हुए चंपारण (बिहार) के नील किसानों के सत्याग्रह (1917) के बाद अवध (यूपी) का किसान विद्रोह (1920), मालाबार (केरल) के मोपला किसानों के विद्रोह (1921) और बारदोली (गुजरात) किसानों के नागरिक अवज्ञा आंदोलन (1928) बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के 4 महत्वपूर्ण आंदोलन हैं जो यद्यपि अपने चरित्र में स्थानीय और चंद सवालों पर केंद्रित थे लेकिन जिन्होंने आने वाले वर्षों में देश के स्तर पर ब्रिटिश विरोधी-सामंत विरोधी बड़े किसान आंदोलनों को जन्म दिया। इन्हीं आंदोलनों की पृष्ठभूमि में स्वामी सहजानंद सरस्वती और उनकी 'किसान सभा' के गठन को भी जांचना होगा जिसने आगे चलकर देश में न सिर्फ़ कम्यूनिस्टों के नेतृत्व वाले व्यापक किसान आंदोलन का सूत्रपात किया बल्कि जिसने 'किसान-मज़दूर एकता' के विचार को भी जन्म दिया।