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राहुल तो सरकार बदल सकते हैं, पर क्या मीडिया बदल पाएंगे?

साहस का काम था जिसे राहुल गांधी ने कर दिखाया। पिछले पचहत्तर सालों में किसी भी पार्टी का बड़ा से बड़ा नेता यह काम नहीं कर पाया था। समस्या की जड़ तक पहुँचने के लिए शायद ज़रूरी भी हो गया था। राजधानी दिल्ली में सैंकड़ों (या हज़ारों?) की गिनती में उपस्थित सभी तरह के पत्रकारों के मान्यता प्राप्त प्रतिनिधियों से राहुल गांधी ने एक सवाल पूछ लिया और जो जवाब मिला उससे वे हतप्रभ रह गए। कल्पना की जा सकती है कि अगर वही सवाल संघ प्रमुख या प्रधानमंत्री (अगर वे राहुल की तरह प्रेस कांफ्रेंस करने का तय करें) कभी पूछ लें तो पत्रकार कितनी मुखरता से तो जवाब देंगे और प्रश्नकर्ताओं के चेहरों पर किस तरह की प्रतिक्रिया या चमक नज़र आएगी!

जाति जनगणना के मुद्दे पर कांग्रेस संगठन द्वारा लिए गए फ़ैसलों की जानकारी देने के लिए बुलाई गई एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान राहुल गांधी के दिमाग़ में अचानक कुछ कौंधा और हॉल में जमा पत्रकारों से उन्होंने पूछ लिया कि उनमें कितने पिछड़ी जातियों के हैं? हॉल में सन्नाटा छा गया! किसी कोने से कोई आवाज़ नहीं प्रकट हुई। एक हाथ उठा भी पर वह व्यक्ति फोटोग्राफर था। राहुल गांधी ने उसे यह कहते हुए चुप कर दिया कि उनका सवाल पत्रकारों से है। इस सवाल-जवाब के बाद प्रेस कांफ्रेंस में ज़्यादा जान नहीं बची।

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राहुल गांधी और विपक्षी गठबंधन के नेता आए दिन शिकायत करते हैं कि मीडिया में उनकी ख़बरों को जगह नहीं मिलती! आम तौर पर कारण मालिकों का दबाव बताया जाता है। जो कि सही भी है। राहुल को प्रेस कांफ्रेंस में दूसरा कारण भी समझ में आ गया। मीडिया मालिक भी उसी उच्च वर्ग के हैं जिसके हाथों में सारे उद्योग-धंधे और संसाधन हैं। इनमें पिछड़े वर्ग का या तो कोई है ही नहीं या अपवादस्वरूप इक्का-दुक्का हो सकता है। चैनलों और अख़बारों के समाचार कक्षों में भी कमोबेश यही स्थिति है। मीडिया में प्रतिनिधित्व का सवाल सिर्फ़ पिछड़ी जातियों तक सीमित नहीं है। दलितों, अल्पसंख्यकों और काफ़ी हद तक महिलाओं को लेकर भी यही स्थिति है। उच्चवर्गीय मीडिया ही देश की राजनीति भी चला रहा है और बहुसंख्यकवादी धर्म की रक्षा भी कर रहा है।

ऑस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध पत्रकार रॉबिन जैफ़री (Robin Jeffrey) द्वारा भारत के समाचारपत्रों की स्थिति को लेकर दस वर्षों के अध्ययन के बाद लिखी गई खोजपूर्ण पुस्तक India’s Newspaper Revolution (Capitalism, Politics and the Indian-language Press) ऑक्सफ़ोर्ड इंडिया ने साल 2000 में प्रकाशित की थी। रॉबिन एडिटर्स गिल्ड द्वारा आयोजित प्रथम राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान देने दिल्ली भी आये थे। उन्होंने अपनी पुस्तक में (पृष्ठ 160) लिखा है कि 1990 के दशक में दलितों की संख्या भारत में लगभग पंद्रह करोड़ थी पर पुस्तक के लिए अध्ययन के दौरान उन्हें कहीं कोई दलित रिपोर्टर या सब-एडिटर किसी भी दैनिक समाचारपत्र में नहीं मिला। न तो कोई दलित संपादक था न ही उसके द्वारा संचालित कोई दैनिक। दो साल पहले मैं जब वर्षों बाद रॉबिन से मेलबर्न में पुनः मिला तो बातचीत में उन्होंने अपनी इसी बात को दोहराया।

विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार (नब्बे के दशक) द्वारा केंद्रीय नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण के कदम का विरोध करने वाली ताक़तों में राजनीतिक दलों और दक्षिणपंथी संगठनों की भूमिका का ज़िक्र तो प्रमुखता से होता है पर उस दौर के जातिवादी मीडिया (ख़ास कर हिन्दी पट्टी) के बारे में ज़्यादा नहीं लिखा गया। मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों के विरोध में चले कथित तौर पर उच्च वर्ग के आंदोलन में अनुमानतः 160 लोगों ने आत्महत्या-आत्मदाह के प्रयास किए थे जिनमें 63 की बाद में मृत्यु हो गई। आत्मदाहों के कुछ प्रयास बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों के कैमरों की आँखों के सामने हुए जो बाद में वीडियो कैसेट्स (न्यूज़ ट्रैक, आदि) की शक्ल में देश भर में प्रचारित-प्रसारित हुए।
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पिछड़ी जातियों के भले के लिए लागू की गईं मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों के विरोध का मीडिया में जिस तरह से महिमामंडन (glorification) किया गया उसकी एक झलक तब प्रकाशित एक रिपोर्ट से मिल सकती है : “उन्नीस साल की….... ने आत्महत्या के प्रयास के एक दिन बाद अपनी माँ से पहला सवाल यह पूछा था कि: ’क्या मेरी तस्वीर अख़बारों में छपी है’?” नब्बे प्रतिशत जल जाने के बाद भी छात्रा की उत्कंठा आंदोलन के उद्देश्य से ज़्यादा मीडिया की भूमिका को बेनक़ाब करती है। 

हिन्दी पट्टी के मीडिया का छुपा हुआ बहुसंख्यकवादी चेहरा मण्डल विरोध की घटनाओं के दो साल बाद बाबरी विध्वंस (1992) के दौरान पूरी तरह बेनक़ाब हो गया। बाबरी विध्वंस के दौरान मीडिया कवरेज और उसके बाद उत्तर भारत के शहरों में भड़के दंगों पर प्रेस आयोग की रिपोर्ट सहित काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है। 

आरोप लगाए जाते हैं कि मुख्यधारा का मीडिया न सिर्फ़ पिछड़ा वर्ग, दलित और अल्पसंख्यक विरोधी है, वह हमेशा बहुसंख्यकवाद की विभाजनकारी राजनीति के पक्ष में ही खड़ा हुआ नज़र आता है। यही कारण है कि राहुल के सवाल पूछते ही चारों तरफ़ सन्नाटा छा जाता है।

सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि राहुल गांधी इतने विपक्षी दलों की मदद से एक सांप्रदायिक और विभाजनकारी सरकार को तो सत्ता से हटा सकते हैं पर क्या मीडिया का कुछ बिगाड़ पाएंगे? गिने-चुने ‘ज़हरीले’ एंकरों की बहसों का सांकेतिक विरोध मात्र क्या पिछड़ों, पीड़ितों और वंचितों के पक्ष में पूरे मीडिया का हृदय परिवर्तन कर देगा? विपक्षी दल देश को एक वैकल्पिक सरकार तो दे सकते हैं, क्या वे वैकल्पिक मीडिया भी दे पाएंगे? कांग्रेस को पता है कि वह अपने राज्यों में नागरिकों के घरों में प्रवेश करके जाति जनगणना तो करवा सकती है पर मीडिया संस्थानों में गिनती के लिए प्रवेश नहीं कर सकती! 

तो फिर राहुल गांधी द्वारा पत्रकारों से पूछे गए सवाल का निष्कर्ष क्या निकाला जाए? निष्कर्ष जनता के पास है और यह बात राहुल गांधी और मीडिया दोनों को पता है। मीडिया की सहमति और समर्थन के बिना भी जनता ने सांप्रदायिक सत्ताओं को राज्यों में अपदस्थ करना प्रारंभ कर दिया है। यह मीडिया के जातिवादी एकाधिकारवाद की समाप्ति की शुरुआत भी है। पत्रकारों के मौन ने राहुल गांधी के संकल्प को और धार प्रदान कर दी है!

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श्रवण गर्ग
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