हाथरस के पीड़ित दलित परिवार को शायद ही यक़ीन रहा हो कि उनकी बेबसी का बयान करती चिट्ठी के जवाब में राहुल गाँधी उसके आँगन में आँसू पोंछने पहुँच जाएँगे। लेकिन यह साफ़ है कि अपनी बेटी के बलात्कारियों और हत्यारों की आज़ादी और योगी आदित्यनाथ सरकार की इस मुद्दे पर पहले दिन से बरती गयी संवेदनहीनता से आहत इस परिवार को कहीं से उम्मीद थी तो वह राहुल गाँधी थे। यह राहुल गाँधी की राजनीति का सबसे बड़ा ‘हासिल’ है कि देश के हर कोने का वंचित-उत्पीड़ित समुदाय उन्हें उम्मीद भरी डबडबाई नज़र से देख रहा है। मणिपुर से लेकर हाथरस और वायनाड से लेकर संभल तक के हताश-निराश पीड़ितों को जब राहुल गाँधी गर्मजोशी से गले लगाते हैं तो उनके मन में जीने की नयी लौ जल जाती है।
महात्मा गाँधी की तरह ही ‘नाकाम’ पर अकेली उम्मीद हैं राहुल!
- विचार
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- 13 Dec, 2024

महात्मा गाँधी के समय ऐसा मीडिया नहीं था जो आज़ादी की बात करने के लिए उन्हें देशद्रोही ठहराता। या उनके आंदोलनों के बीच सालों के गैप को देखते हुए उन्हें चुका हुआ घोषित कर देता। राहुल के समय ऐसा ही मीडिया है जो चौबीस घंटे सत्ता की दुंदुभि बजाता है और राहुल गाँधी को निशाने पर लिए रहता है।
मौजूदा राजनीति में राहुल गाँधी को मिला यह ‘स्थान’ किसी भी ‘आसन’ से बढ़कर है। ‘नेता प्रतिपक्ष’ का पद भी इसके सामने छोटा है। मौजूदा दौर में अखिल भारतीय स्तर पर विपक्ष का कोई भी नेता इस ‘स्थान’ के आसपास भी नहीं है। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर विपक्ष के बाक़ी नेता भी राहुल गाँधी जैसी शिद्दत के साथ देश की पीड़ा से जुड़ने में ख़ुद को झोंक देते तो मौजूदा राजनीति का क्या स्वरूप होता? कहने के लिए तो सांप्रदायिकता सभी का मुद्दा है पर राहुल गाँधी ही कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल चलते हैं सिर्फ़ यह बताने के लिए कि नफ़रत इस देश को तोड़ देगी। फिर वे पूरब से पश्चिम की भी ऐसी ही यात्रा करते हैं। राहुल गाँधी की लगभग दस हज़ार किलोमीटर की इन यात्राओं में चुनावी राज्यों को लगभग दरकिनार कर दिया गया जो तमाम समझदारों की नज़र में ‘ब्लंडर’ था। लेकिन कौन भूल सकता है कि इन यात्राओं ने देश का मिज़ाज बदलने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की।