हाथरस के पीड़ित दलित परिवार को शायद ही यक़ीन रहा हो कि उनकी बेबसी का बयान करती चिट्ठी के जवाब में राहुल गाँधी उसके आँगन में आँसू पोंछने पहुँच जाएँगे। लेकिन यह साफ़ है कि अपनी बेटी के बलात्कारियों और हत्यारों की आज़ादी और योगी आदित्यनाथ सरकार की इस मुद्दे पर पहले दिन से बरती गयी संवेदनहीनता से आहत इस परिवार को कहीं से उम्मीद थी तो वह राहुल गाँधी थे। यह राहुल गाँधी की राजनीति का सबसे बड़ा ‘हासिल’ है कि देश के हर कोने का वंचित-उत्पीड़ित समुदाय उन्हें उम्मीद भरी डबडबाई नज़र से देख रहा है। मणिपुर से लेकर हाथरस और वायनाड से लेकर संभल तक के हताश-निराश पीड़ितों को जब राहुल गाँधी गर्मजोशी से गले लगाते हैं तो उनके मन में जीने की नयी लौ जल जाती है।
मौजूदा राजनीति में राहुल गाँधी को मिला यह ‘स्थान’ किसी भी ‘आसन’ से बढ़कर है। ‘नेता प्रतिपक्ष’ का पद भी इसके सामने छोटा है। मौजूदा दौर में अखिल भारतीय स्तर पर विपक्ष का कोई भी नेता इस ‘स्थान’ के आसपास भी नहीं है। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर विपक्ष के बाक़ी नेता भी राहुल गाँधी जैसी शिद्दत के साथ देश की पीड़ा से जुड़ने में ख़ुद को झोंक देते तो मौजूदा राजनीति का क्या स्वरूप होता? कहने के लिए तो सांप्रदायिकता सभी का मुद्दा है पर राहुल गाँधी ही कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल चलते हैं सिर्फ़ यह बताने के लिए कि नफ़रत इस देश को तोड़ देगी। फिर वे पूरब से पश्चिम की भी ऐसी ही यात्रा करते हैं। राहुल गाँधी की लगभग दस हज़ार किलोमीटर की इन यात्राओं में चुनावी राज्यों को लगभग दरकिनार कर दिया गया जो तमाम समझदारों की नज़र में ‘ब्लंडर’ था। लेकिन कौन भूल सकता है कि इन यात्राओं ने देश का मिज़ाज बदलने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की।
लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव में हार के बाद राहुल गाँधी को नाकाम बताने का अभियान सत्तापक्ष से ही नहीं विपक्षी खेमे की ओर से भी चल पड़ा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि अगर कांग्रेस इंडिया गठबंधन का नेतृत्व नहीं कर पा रही है तो वे इस जगह को लेने के लिए तैयार हैं। शरद पवार ने इसका समर्थन किया है और आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस के सबसे विश्वस्त सहयोगी रहे लालू यादव ने भी इस विचार पर मुहर लगायी है। हालाँकि किसी ने यह नहीं बताया है कि राहुल गाँधी या कांग्रेस का कौन सा नेता इंडिया गठबंधन के किस ‘पद’ पर है जिससे उसे ‘हट’ जाना चाहिए।
यह सब तब हुआ जब गौतम अडानी के मुद्दे पर कांग्रेस लगातार संसद परिसर में प्रदर्शन कर रही है क्योंकि संसद के अंदर सवाल उठाने की इजाज़त नही है। गौर करने की बात है कि इंडिया गठबंधन में शामिल कई दल इस प्रदर्शन में शामिल नहीं हैं। अडानी और क्रोनी कैपिटलिज़्म के ख़िलाफ़ दस्तावेज़ी प्रमाण लेकर संसद में दहाड़ने वाली टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा भी सुर्खियों से ग़ायब हैं। भविष्य ही बताएगा कि यह चुप्पी मोर्चा छोड़ने की आहट है या किसी संधि-प्रस्ताव से बँध जाने की। या यह उस कांग्रेस को समय रहते रोकने की कोशिश है जिसकी ज़मीन तोड़कर ही ये सारे दल पनपे हैं और जो राहुल जैसे नेता के स्पष्ट सामाजिक और आर्थिक एजेंडे के ज़रिए पुनर्नवा होने की ओर बढ़ रही है।
भारत के विपक्षी ख़ेमे में बढ़ रही यह हलचल बता रही है कि राहुल गाँधी ने ‘नाभि में तीर’ मार दिया है। उन्होंने उस राजनीतिक-अर्थतंत्र को चुनौती दी है जिसने अब याराना पूँजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज़्म) का रूप धारण करके राजनीतिक दलों से ऐसी यारी गाँठ ली है जिसमें सत्ता-परिवर्तन से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
पक्ष-विपक्ष दोनों को वित्त-पोषित करने की यह रणनीति देश के संसाधनों को लूटने की सहूलत देती है। पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसे का खेल चलता रहता है।
देश का सौभाग्य है कि राहुल गाँधी ने इस खेल में शामिल होने से इंकार कर दिया है। जिस पार्टी को संसाधनों से पंगु कर दिया गया हो, उसका ऐसा फ़ैसला करना बड़े कलेजे की माँग करता है। पिछले दिनों देश के सबसे बड़े पूँजीपति मुकेश अंबानी के घर हुई शादी में पूरा पक्ष-विपक्ष मेहमान था, सिवाय राहुल गाँधी के। यही नहीं, जब मुकेश अंबानी दावतनामा लेकर सोनिया गाँधी से मिलने पहुँचे थे तो राहुल गाँधी दिल्ली के मज़दूरों के बीच चले गये थे। उस समय लोकसभा चुनाव क़रीब थे और पार्टी को संसाधनों की बेहद ज़रूरत थी लेकिन राहुल गाँधी ने स्पष्ट संदेश दिया था।
यानी राहुल गाँधी का अडानी विरोध कोई ‘ख़ब्त’ नहीं है। वे इसकी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। यह उनकी वैचारिक स्पष्टता और प्रतिबद्धता को दिखाता है। वे मानते हैं कि मोदी सरकार जिस तरह अडानी के एजेंट की तरह रात-दिन काम कर रही है, वह देश की आर्थिक सेहत के लिए काफ़ी नुक़सानदेह है। उन्होंने इस परिस्थिति की तुलना ईस्ट इंडिया कंपनी से की है जिसने लोगों को डरा-धमकाकर या प्रलोभन देकर अपने पाले में घसीटा और देश ग़ुलाम हो गया। सत्ता संरक्षित कॉरपोरेट एकाधिकार उसी कंपनी राज का दोहराव है। ईडी-सीबीआई का दुरुपयोग करके या फिर पैसे के दम पर सरकारें तोड़कर विपक्ष की आवाज़ों को जिस तरह ख़ामोश किया जाता है, उसका मक़सद देश के जल, जंगल और ज़मीन की लूट ही है। मोदी राज में देश पर क़र्ज़ दो सौ लाख करोड़ से भी ज़्यादा हो गया है जबकि उनके आने से पहले 67 साल में कुल 55 लाख करोड़ का क़र्ज़ ही देश पर चढ़ सका था। इसकी क़ीमत आने वाली पीढ़ियों को हर हाल में चुकानी होगी।
राहुल गाँधी की नज़र में ये महज़ आर्थिक लड़ाई नहीं है। इसका सीधा संबंध सामाजिक न्याय की लड़ाई से भी है। सार्वजनिक क्षेत्र के अंधाधुंध निजीकरण ने दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के पक्ष में की गयी आरक्षण जैसी व्यवस्था को बेमानी बना दिया है।
राहुल गाँधी इसी के ऑडिट के लिए जाति-जनगणना पर ज़ोर दे रहे हैं। न्याय का यह सवाल सामाजिक मुद्दा न बन जाये, इसीलिए आरएसएस-बीजेपी ख़ेमे ने सांप्रदायिक मुद्दों को नया उबाल देना शुरू किया है जिसके प्रमाण के रूप में ‘बँटेंगे तो कटेंगे’ जैसा हिंसक नारा सामने है।
हाल में चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए और दो एनडीए ने जीते और दो इंडिया गठबंधन के पाले में गये। पैसा और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के विकट खेल के बावजूद झारखंड में इंडिया गठबंधन को उल्लेखनीय जीत हासिल हुई। लेकिन राहुल गाँधी पर आरोप है कि वे इंडिया गठबंधन को जीत नहीं दिला पा रहे हैं, जैसे कि महाराष्ट्र में हार की ज़िम्मेदारी केवल कांग्रेस पर है और अपनी पार्टी को टूट से न बचा पाने वाले शरद पवार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। एक क्षण के लिए मान भी लिया जाए कि सारी ज़िम्मेदारी अकेले राहुल की है पर क्या उनकी ओर से उठाये गये मुद्दे भी ग़लत हैं? अगर अमेरिका की अदालत ने देश के दूसरे सबसे बड़े उद्योगपित अडानी के ख़िलाफ़ वारंट जारी किया और हिंडनबर्ग रिपोर्ट में अड़ानी ही नहीं सेबी की अध्यक्ष माधवी बुच भी भ्रष्ट साबित हो रही हैं तो क्या मुख्य विपक्षी दल को इसकी जाँच की माँग नहीं करनी चाहिए? फिर इंडिया गठबंधन को साथ न ले चलने का सवाल उठाने वाली ममता बनर्जी को भी इसका जवाब देना चाहिए कि वे प.बंगाल में कांग्रेस या वामपंथी दलों को साथ क्यों नहीं रख पायीं?
दरअसल, राहुल गाँधी की नाकामी वैसी ही है जैसे कि महात्मा गाँधी की नाकामी थी। महात्मा गाँधी 1915 में भारत लौटे और पहला आंदोलन छह-सात साल बाद यानी 1921 में खड़ा हो पाया पर इस असहयोग आंदोलन को भी उन्होंने चौरी-चौरा कांड के बाद वापस ले लिया। अगला आंदोलन आठ साल बाद 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में शुरू हुआ जब वे क़ानून तोड़कर नमक बनाने के लिए दाँडी के समुद्र तट पर पहुँचे। इसके बाद देश को तैयार करने में 12 साल और लग गये। 1942 में देश ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ या ‘करो या मरो’ से गूँज उठा पर आज़ादी फिर भी पाँच साल बाद मिल पायी। क्या इतना समय लगने को महात्मा गाँधी को नाकाम कहेंगे? आज़ादी के साथ देश में जैसी अभूतपूर्व नफ़रत देखी गयी उसे तो महात्मा गाँधी ने ख़ुद अपनी ‘नाकामी’ कहा है तो क्या सचमुच वे नाकाम थे?
महात्मा गाँधी के समय ऐसा मीडिया नहीं था जो आज़ादी की बात करने के लिए उन्हें देशद्रोही ठहराता। या उनके आंदोलनों के बीच सालों के गैप को देखते हुए उन्हें चुका हुआ घोषित कर देता। राहुल के समय ऐसा ही मीडिया है जो चौबीस घंटे सत्ता की दुंदुभि बजाता है और राहुल गाँधी को निशाने पर लिए रहता है। यह मीडिया उसी कॉरपोरेट से नियंत्रित है जिसके आर्थिक हित मोदी सरकार से जुड़े हैं और जो राहुल की क़ामयाब होने की आशंका से ही घबरा जाता है।
इतिहास गवाह है कि क़ामयाब लोगों से ज़्यादा वे ‘नाकाम’ लोग आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देते हैं जो सच्चाई, साहस और सद्भाव के रास्ते पर चलते हुए कभी ज़िंदा जलाये जाते हैं, कभी ज़हर का प्याला पीते हैं तो कभी सीने पर गोलियाँ झेलते हैं। ये सभी अपने दौर की विधि-व्यवस्था की नज़र में अपराधी या देशद्रोही होते हैं लेकिन आने वाले दिनों में देश ऐसे ही लोगों से पहचाने जाते हैं। उनकी प्रतिमाएँ सरहद पार भी लगती हैं जबकि उन्हें सज़ा देने वाले ताजदार इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिये जाते हैं। भविष्य ही तय करेगा कि राहुल गाँधी को वह मुक़ाम हासिल होता है कि नहीं, लेकिन राहुल उसी राह के राही हैं, इसमें कोई शक़ नहीं है।
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