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बांग्लादेश के बहाने जिन्ना का सपना पूरा करती मोदी सरकार!

बांग्लादेश के जन्म ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन नायकों को सही साबित किया था जिन्होंने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ऐलान किया था कि 'आज़ाद भारत’ में धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं होगा। 
पंकज श्रीवास्तव

पिछले दिनों ढाका यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर शाहिदुज्ज़माँ का एक वी़डियो वायरल हुआ जिसमें वे पाकिस्तान से परमाणु क़रार करने और परमाणु हथियारों को भारत की सीमा पर तैनात करने की बात कर रहे हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सितंबर महीने का यह वीडियो बांग्लादेश के ‘रिटायर्ड आर्म्ड फ़ोर्सेज़ ऑफ़िसर्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन’ के एक सेमिनार का है जिसे संबोधित करते हुए प्रो. शाहिदुज्ज़माँ ने कहा, “हमें पाकिस्तान के साथ परमाणु क़रार करना चाहिए। बिना गठजोड़ और तकनीक के भारत का सामना नहीं किया जा सकता है। भारत को लगता है कि बांग्लादेश पूर्वोत्तर का उसका कोई आठवाँ राज्य है। भारत की इस अवधारणा को परमाणु ताक़त से ही तोड़ा जा सकता है।”

प्रो. शाहिदुज्ज़माँ के इस प्रस्ताव को पाकिस्तानी मीडिया में ख़ूब तवज्जो मिली। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने पाकिस्तान के साथ गर्मजोशी भरे रिश्तों का नया दौर शुरू किया है। पाकिस्तान से चल कर एक मालवाहक पोत 13 नवंबर को बांग्लादेश के चट्टोग्राम बंदरगाह पहुँचा। यह 53 साल पहले बांग्लादेश के जन्म के बाद दोनों देशों के बीच हुआ पहला सीधा समुद्री संपर्क था। बांग्लादेश ने पाकिस्तान से 25000 टन चीनी आयात करने का सौदा किया है जो पहले भारत से चीनी मँगाता था। आयात के अन्य क्षेत्रों की भी दिशा यही है। कुल मिलाकर जिस बांग्लादेश के अवाम में भारत से दोस्ती की भावना रची-बसी थी, वहाँ आज भारत विरोधी नारे लग रहे हैं और जिस पाकिस्तान की छवि भीषण अत्याचार करने वाले की थी, उसके साथ दोस्ती की बातें हो रही हैं।

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यह परिस्थिति भारत की मौजूदा मोदी सरकार की ऐसी कूटनीतिक असफलता है जिसकी देश को बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। बांग्लादेश जैसे ‘मित्र-देश’ का इस क़दर भारत के ‘शत्रु-ख़ेमे’ में चले जाने से बीते पचास साल से ज़्यादा की कूटनीतिक उपलब्धियों पर पानी फिरता नज़र आ रहा है। बांग्लादेश में पहले भी विभिन्न दलों की सरकारें आती-जाती रही हैं लेकिन मोदी सरकार जिस तरह अवाम के ग़ुस्से का शिकार बनीं शेख़ हसीना के साथ खड़ी नज़र आयी और उसके बाद भारत के ‘गोदी' मीडिया ने जिस तरह बांग्लादेश विरोधी प्रचार अभियान शुरू किया, उसने लोगों का ग़ुस्सा भारत की तरफ़ मोड़ दिया। जब दुनिया शेख़ हसीना के पिछले चुनाव को धाँधली की नतीजा बता रही थी तो भारत की सरकार क्लीन चिट दे रही थी। बांग्लादेश की आंतरिक उथल-पुथल के बीच ‘पार्टी’ बन जाने के मोदी सरकार के रवैये ने स्थिति को काफ़ी बिगाड़ दिया।

1971 में पाकिस्तान सिर्फ़ भौगोलिक रूप से दो टुकड़ों में नहीं बँटा था, उसके वजूद को सैद्धांतिक आधार देने वाला ‘द्विराष्ट्रवाद’ का सिद्धांत भी टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया था। इतिहास ने पाकिस्तान के संस्थापक मो. अली जिन्ना और विनायक दामोदर सावरकर जैसे उन तमाम लोगों को ग़लत साबित कर दिया था जो मानते थे कि ‘हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं’ जिनका एक साथ रह पाना संभव नहीं है। लेकिन सिर्फ़ 24 साल में पूर्वी पाकिस्तान के बाशिंदों ने अपनी भाषा और संस्कृति को धर्म से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते हुए विद्रोह कर दिया। उन्होंने धर्म को राष्ट्रीयता का आधार मानने से इंकार कर दिया और भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के साहस और समर्थन की वजह से दुनिया के नक़्शे पर बांग्लादेश का मानचित्र गढ़ने में क़ामयाब हो गये। बांग्लादेश के मुक्ति-संग्रामियों ने पाकिस्तान के ‘इस्लामी राज्य’ की जगह भारत के ‘सेक्युलर राज्य’ से प्रेरणा ली और क़ुर्बानियों का इतिहास रच दिया। आने वाले कई दशक तक बांग्लादेशी अवाम भारत की शुक्रगुज़ार नज़र आती रही और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में बांग्लादेश अमूमन भारत के साथ खड़ा नज़र आता रहा।

बांग्लादेश के जन्म ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन नायकों को सही साबित किया था जिन्होंने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ऐलान किया था कि 'आज़ाद भारत’ में धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं होगा। यही वजह थी कि ‘समाजवादी’ भारत में अपनी ज़मीन-जायदाद खोने की आशंका में डूबे ज़मींदारों को छोड़ दें तो मुस्लिमों की बड़ी आबादी ने पाकिस्तान के विचार को ठुकरा दिया। वह गाँधी, नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद पर यक़ीन करते हुए पाकिस्तान नहीं गयी। 
डॉ. आंबेडकर के लिखे संविधान ने उसके इस यक़ीन को और पुख़्ता किया जिसमें किसी भी धर्म को मानने और उससे जुड़ी शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार को मौलिक अधिकार घोषित किया गया।
सरदार पटेल ने ‘फरवरी, 1949 में ‘हिंदू राज’ यानी हिंदू राष्ट्र की चर्चा को ‘एक पागलपन भरा विचार’ बताया और 1950 में उन्होंने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है… यहाँ हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है। यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं।”
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मोदी सरकार में अल्पसंख्यक

लेकिन बीते दस साल से मोदी सरकार के संरक्षण में आरएसएस और उससे जुड़े तमाम संगठनों ने जिस तरह से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा का दौर शुरू किया है उसने स्वतंत्रता संग्राम के संकल्पों पर मिट्टी डालते हुए संविधान के बुनियादी ढाँचे को हिला दिया है। इसका असर पूरे उपमहाद्वीप पर नज़र आ रहा है। भारत में सांप्रदायिक ताक़तों का उभार मो. अली जिन्ना की जिन्ना की आशंकाओं को सही ठहरा है। 

1937 में हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में सावरकर ने ‘द्विराष्ट्रवाद’ के सिद्धांत को पेश किया था जिसे मो. अली जिन्ना ने 1940 में पाकिस्तान के प्रस्ताव का आधार बनाया।

जिन्ना का मानना था कि बहुमत के दम पर आज़ाद भारत में 'हिंदुओं का शासन’ होगा और मुसलमानों की स्थिति हमेशा ‘दोयम दर्जे’ की होगी। इसलिए उनके लिए अलग राष्ट्र होना चाहिए। आरएसएस का ‘हिंदू राष्ट्र अभियान’ ठीक इसी दिशा में है। बीजेपी को सफल बनाने के लिए संघ के बौद्धिक शिविर ने जिस ‘बँटेंगे तो कटेंगे’ नारे का ईजाद किया है उसका एकमात्र मक़सद बहुसंख्यक हिंदू के मन में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करके राजनीतिक शक्ति हासिल करना है। हिंदू राष्ट्र में मुस्लिम 'दोयम दर्जे के नागरिक’ होंगे, यह बात तो सावरकर से लेकर गोलवलकर तक की किताबों में हमेशा से दर्ज है।

बांग्लादेश में तख़्तापलट

बांग्लादेश में 5 अगस्त को हुए तख़्तापलट के बाद शेख़ हसीना समर्थकों को निशाना बनाया गया जिसमें स्वाभाविक रूप से अवामी लीग समर्थक हिंदू भी शामिल हैं। इस अराजकता के बीच बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी जैसी कट्टरपंथी तंज़ीमों को भी मौक़ा मिल गया जिन्होंने बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम का विरोध करते हुए पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था और पाकिस्तान के साथ ही रहना चाहते थे। उन्होंने हिंदुओं को ख़ासतौर पर निशाना बनाया और तमाम दावों के बावूजद मो. यूनुस सरकार उन्हें क़ाबू करने में नाकाम रही। यह निश्चित ही बर्बरता है। जो भी देश अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं कर सकता उसे सभ्य कहलाने का हक़ नहीं है। लेकिन दिक़्क़त ये है कि जैसे ही मोदी सरकार की ओर से बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार का मुद्दा उठाया गया, भारत में मुस्लिमों के उत्पीड़न की उसकी नीति को लेकर बांग्लादेश ने आईना दिखा दिया। इसे ‘बांग्लादेश का आंतरिक मामला’ बता दिया गया जैसे कि भारत सरकार मुस्लिमों पर होने वाले अत्याचार के किसी भी सवाल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘आंतरिक मामला’ बताती है।

विचार से और

इस बीच, भारत के गोदी मीडिया ने ‘कोढ़ में खाज’ की स्थिति पैदा की हुई है। उसे मणिपुर में लगी आग नहीं दिखती लेकिन बांग्लादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न की तमाम झूठी-सच्ची कहानियों की न्यूज़ चैनलों के पर्दों पर बाढ़ आयी हुई है। बीजेपी के नेता इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने में जुट गये हैं। कई शहरों में बांग्लादेश के हिंदुओं पर उत्पीड़न को मुद्दा बनाकर सभाएँ हो रही हैं। ग़रीब मुस्लिमों को बांग्लादेशी बताकर पीटा जा रहा है। हाल में हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में ‘बांग्लादेशी घुसपैठिये’ को प्रधानमंत्री मोदी तक ने मुद्दा बनाकर भुनाने की कोशिश की जबकि न इस प्रांत की सीमा बांग्लादेश से लगती है और न सीमा सुरक्षा के लिए हेमंत सोरेन की सरकार ज़िम्मेदार थी। सीमा सुरक्षा और घुसपैठ रोकने का सारा ज़िम्मा केंद्र सरकार का है।

कुल मिलाकर मोदी राज में महात्मा गाँधी के सपनों पर लगातार हमले हो रहे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने खुलेआम कहा है कि देश को बहुमत की इच्छाओं के हिसाब से चलना होगा। जिन्ना की रूह को इस बयान से जैसा सुकून मिला होगा, उसकी कल्पना ही की जा सकती है। यह जिन्ना के सपनों पर वैधता की ताज़ा मुहर है जिसकी स्याही का इंतज़ाम मोदी सरकार ने किया है।

(लेखक डॉ. पंकज श्रीवास्तव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)
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