प्रेमचंद ने नब्बे वर्ष पूर्व जो कहा था-
"यह बिलकुल गलत है कि इसलाम तलवार के बल से फैला। तलवार के बल से कोई धर्म नहीं फैलता, और कुछ दिनों के लिए फैल भी जाए, तो चिरजीवी नहीं हो सकता। भारत में इसलाम के फैलने का कारण, ऊँची जाति वाले हिंदुओं का नीची जातियों पर अत्याचार था। बौद्धों ने ऊँच-नीच का भेद मिटाकर नीचों के उद्धार का प्रयास किया और इसमें उन्हें अच्छी सफलता मिली लेकिन जब हिन्दू धर्म ने जोर पकड़ा, तो नीची जातियों पर फिर वही पुराना अत्याचार शुरू हुआ, बल्कि और जोरों के साथ। ऊँचों ने नीचों से उनके विद्रोह का बदला लेने की ठानी। नीचों ने बौद्ध काल में अपना आत्मसम्मान पा लिया था। वह उच्चवर्गीय हिंदुओं से बराबरी का दावा करने लगे थे। उस बराबरी का मज़ा चखने के बाद, अब उन्हें अपने को नीच समझना दुस्सह हो गया। यह खींचतान हो ही रही थी कि इसलाम ने नए सिद्धांतों के साथ पदार्पण किया। वहाँ ऊँच-नीच का भेद न था। छोटे-बड़े, ऊँच-नीच की कैद न थी। इसलाम की दीक्षा लेते ही मनुष्य की सारी अशुद्धियाँ, सारी अयोग्यताएँ, मानो धुल जाती थीं। वह मस्जिद में इमाम के पीछे खड़ा होकर नमाज पढ़ सकता था, बड़े बड़े सैयद-जादे के साथ एक दस्तरखान पर बैठकर भोजन कर सकता था। यहाँ तक कि उच्च वर्गीय हिंदुओं की दृष्टि में भी उसका सम्मान बढ़ जाता था। हिंदू अछूत से हाथ नहीं मिला सकता, पर मुसलमानों के साथ मिलने-जुलने में उसे कोई बाधा नहीं होती। वहाँ कोई नहीं पूछता, कि अमुक पुरुष कैसा, किस जाति का मुसलमान है। वहाँ तो सभी मुसलमान हैं। इसलिए नीचों ने इस नए धर्म का बड़े हर्ष से स्वागत किया, और गाँव के गाँव मुसलमान हो गये। जहाँ उच्च वर्गीय हिंदुओं का अत्याचार जितना ज़्यादा था, वहाँ वह विरोधाग्नि भी उतनी प्रचंड थी और वहीं इसलाम की तबलीग भी खूब हुई। कश्मीर, असम, पूर्वी बंगाल आदि इसके उदाहरण हैं।"
-प्रेमचंद, नवम्बर 1931.( 'हिन्दू- मुस्लिम एकता' शीर्षक लेख से)।
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