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विधानसभा चुनाव: विचारधाराएँ मर चुकी हैं, व्यक्ति चिरायु हों

इस चुनाव का नतीजा जो भी हो, वह क्षेत्रीय नेतृत्व के लिए संघर्ष की नई सीमा रेखा और रणनीति तय करेगा। इससे सत्ता हट कर केंद्र से राज्यों तक पहुंच सकती है। जैसे जैसे केंद्र परिपक्व होता जाएगा, राज्यों में नया जोश और नई जान आती जाती है।
प्रभु चावला

लोकतंत्र में सरकार वैचारिक द्वंद्व के समाधान से बनती है। पर अब ऐसा नहीं होता है। ज़्यादातर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में व्यक्ति विशेष ही विचारों का प्रतिनिधित्व करता है और मतदाता उसके राजनीतिक दृष्टिकोण पर ध्यान नहीं देते हैं। लखनऊ से लुधियाना तक चुनाव वाले राज्यों में आकाश पोस्टरों और बैनरो से पटे पड़े हैं। इनमें प्रमुख रूप से राजनेता छाए हुए हैं जो अपनी राजनीतिक ख़ूबियाँ गिनाते हुए दिखते हैं, इनमें सबसे प्रमुख वे नेता हैं, जिनकी नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है।

इनमें कोई राजनीतिक विमर्श नहीं है, सिर्फ़ उम्मीदवारों के कट-आउट लगे हुए हैं। यदि एक दल किसी दलित को उभार कर सामने लाने की बात करता है तो दूसरा दल यह बताने में लगा हुआ है कि उसका उम्मीदवार किसी राजघराने से नहीं है।

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पिछले दशक में हर क्षेत्र से स्थानीय स्तर पर इंदिरा, वाजपेयी या मोदी निकले हैं, जो पार्टी के चेहरा भी हैं और ऐसे नेता भी जिन्हें रोकना मुमकिन न हो। ऐसे संगठन जो इस तरह का जादुई मुखौटा नहीं तैयार कर पाते हैं वे चुनाव में बुरी तरह पिट जाते हैं। गांधी परिवार से बाहर के लोगों जैसे ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जगन मोहन रेड्डी, एम. के. स्टालिन और चंद्रशेखर राव का उभार यह संकेत देता है कि ऐसे स्थानीय नेता सामने आ रहे हैं जो नई दिल्ली में मौजूद भगवा रथ को रोक सकते हैं।

इसलिए, यह ताज्जुब की बात नहीं है कि पहली बार सभी राजनीतिक दलों ने विधानसभा चुनाव के पहले ही अपने-अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार का ऐलान कर दिया है। यहां तक कि 135 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी को भी राज्य और केंद्र में एक जिताऊ चेहरा चाहिए जो इसका नंबर बढ़ा सके। अब तक दो राजनीतिक दल भविष्य के अपने खेवनहारों के नाम का एलान करने के ख़िलाफ़ रहे हैं। पर अब बीजेपी ने उन चारों राज्यों में अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार का एलान कर दिया है जहां यह सत्ता में है। जहां यह सत्ता में नहीं है और इसे दहाई अंकों में सीट जीतने की उम्मीद भी नहीं है, वहां भी इसने बदलते हुए समय में अपना झंडा फहराते रखने के लिए स्थानीय दलों के साथ गठजोड़ कर लिया है।

अब सवाल यह नहीं है कि कौन पार्टी जीतेगी, बल्कि यह है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा। गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड और पंजाब जैसै छोटे राज्यों में भी सत्ता और शासन का प्रतीक चरणजीत सिंह चन्नी जैसे लोगों को बनाया गया है, जिन्हें हाल ही में मुख्यमंत्री पद पर बैठाया गया है ताकि वे अमरिंदर सिंह और सुखबीर सिंह बादल जैसे लोगों को रोक सकें। सुखबीर सिंह बादल इस बार पहली बार चुनाव प्रचार में अपनी पार्टी का नेतृत्व करेंगे, अब तक उनके पिता प्रकाश सिंह बादल के हाथों में प्रचार की बागडोर रहती थी। 

आम आदमी पार्टी ने इस पद के लिए लोक गायक भगवंत मान के नाम का एलान किया है। चन्नी और मान पंजाब की उस आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो इस चुनाव में सामाजिक स्तर पर बदलने जा रही है।

अंतिम क्षण में होने वाले विलय और अधिग्रहण को छोड़ दिया जाए तो इसकी पूरी संभावना है कि अकाली दल और बीजेपी दोनों ही अपनी जगह उन पार्टियों के लिए छोड़ दें जिनका नेतृत्व युवा व नए लोग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री चेहरे का पहले ही एलान करने की मांग बढ़ने से हर जगह युवा नेतृत्व उभरा है। लगभग आधे दर्जन मुख्यमंत्री चेहरों में आधे लोगों की उम्र 50 साल से कम है-ये हैं, अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश में, प्रमोद सावंत व अमित पालेकर गोवा में और उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी। बुजुर्गों में हैं पंजाब के अमरिंदर सिंह और मणिपुर के एन. बीरेन सिंह।

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भारतीय राजनीति व्यक्ति संचालित 1966 में हो गई जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। अगले दशक भर उनके नाम पर या उनके ख़िलाफ़ ही वोट मांगे जाते थे। उन्होंने अपने विश्वस्तों को अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री बनाया भी और उन्हें पद से हटाया भी। उनके बाद उनके बेटे राजीव गांधी और उनके बाद बहू सोनिया ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को अस्थिर करने की उनकी रणनीति को आगे बढ़ाया, जिस कारण बड़े पैमाने पर लोगों ने पार्टी छोड़ दी। शरद पवार, ममता बनर्जी और वी. पी. सिंह जैसे तेज़-तर्रार लोगों ने अपनी पार्टी ही खड़ कर ली। ऐसी पार्टी जो अस्सी के दशक तक देश के दो-तिहाई हिस्से पर राज करती थी, तीन राज्यों में सिमट गई है।

कांग्रेस सिकुड़ी और और उसका नेतृत्व डगमगाया तो उसकी जगह बीजेपी ने ले ली। वाजेपेयी और आडवाणी ने बीजेपी का भौगोलिक और सामाजिक आधार बढ़ाया, लेकिन मोदी ने अपनी विशिष्ट प्रशासनिक शैली से देश में तूफान ला दिया। उन्होंने 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर रिकॉर्ड बनाया और उसके बाद एक के बाद दूसरे राज्य जीतते रहे। साल 2018 तक बीजेपी अपने सहयोगियों के साथ 18 राज्यों में सरकार चला रही थी। उसने बिल्कुल अनजान लोगों को अनजान जगहों से उठाया और उन लोगों ने पार्टी और सरकार में अहम भूमिकाएं निभाईं। लेकिन ज़बरदस्त लोकप्रियता के बावजूद वे अरविंद केजरीवाल, नवीन पटनायक और लालू-नीतीश जैसे स्थानीय नेताओं को नहीं हटा सके। बीजेपी ने डबल इंजन की सरकार का नारा दिया क्योंकि स्थानीय नेता बहुत लोकप्रिय नहीं थे। 

साल 2014 में जिन 12 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, उनमें पहले चरण में बीजेपी को जीत हासिल हुई, लेकिन दूसरे चरण में कांग्रेस और दूसरे दलों को बढ़त मिली क्योंकि उनके पास बेहतर नेता थे।

मोदी की छवि इस कमी की भरपाई नहीं कर सकती। बीजेपी महाराष्ट्र और पंजाब में चुनाव हार गई। वह कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में जीत हासिल नहीं कर सकी। यह ममता बनर्जी को नहीं हरा सकी। यह असम का चुनाव सिर्फ़ इसलिए जीत सकी क्योंकि इसके पास हिमंत बिस्व सरमा जैसे तेज़ तर्रार नेता थे जो चुनाव के पहले ही कांग्रेस छोड़ कर आए थे।

चुनाव एक बार फिर हो रहे हैं और मतदाता एक बार फिर प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के बीच का अंतर समझ पाएंगे।

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साल 2017 में मोदी फैक्टर के असर में आकर ही लोगों ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बीजेपी को वोट दिया। अब यूपी के पास योगी आदित्यनाथ जैसा स्थानीय नेता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वे ईमानदार और निर्णय लेने वाले हैं। बीजेपी सभी चुनाव प्रचार सामग्रियों में मोदी के बराबर योगी को पेश इसलिए कर रही है कि इस साधु के नाम पर उसे कुछ अतिरिक्त वोट मिल सकें। बीजेपी को अपने वजूद को बचाने के लिए उत्तर प्रदेश में सत्ता बनाए रखना ज़रूरी है। यह दूसरे राज्यों की हार की अनदेखी कर सकती है। पर उत्तर प्रदेश में हार का मतलब न सिर्फ़ लोकसभा सीटों के हिसाब किताब को गड़बड़ करना और मोदी के प्रभाव को कम करना होगा, बल्कि भविष्य के भगवा प्रतीक का भी नुक़सान करना होगा।

यह अखिलेश को बहुत बड़े नेताओं को ध्वस्त करने वाले नेता के रूप में स्थापित कर देगा और मायावती को पूरी तरह ध्वस्त कर देगा। लेकिन यदि बीजेपी चार राज्यों में चुनाव जीत लेती है तो वह नए और युवा नेतृत्व को भविष्य की कमान सौंप देगी। साल 2022 के विधानसभा चुनावों से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का भविष्य भी तय होगा। यदि चन्नी जीत जाते हैं तो कांग्रेस को लंबे समय के बाद पंजाब में दलित नेतृत्व मिलेगा।

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इस चुनाव का नतीजा जो भी हो, वह क्षेत्रीय नेतृत्व के लिए संघर्ष की नई सीमा रेखा और रणनीति तय करेगा। इससे सत्ता हट कर केंद्र से राज्यों तक पहुंच सकती है। जैसे जैसे केंद्र परिपक्व होता जाएगा, राज्यों में नया जोश और नई जान आती जाती है। जो राजनीतिक व्यक्ति युवाओं के बल पर अपनी राजनीतिक प्यास बुझाते हैं, उनकी प्यास कभी नहीं बुझने वाली है।

('द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' से साभार)

अनुवाद - प्रमोद कुमार

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