संविधान-दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह का कुछ विपक्षी दलों ने बहिष्कार क्यों किया, यह समझ में नहीं आता। शायद उन्हें शक था कि सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को न तो मंच पर बिठाया जाएगा और न ही उसे बोलने भी दिया जाएगा। छोटे-मोटे अन्य विपक्षी दलों की उपेक्षा तो संभावित थी ही!
यदि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की उपेक्षा उक्त प्रकार से की जाती तो इस समारोह का बहिष्कार सर्वथा उचित होता लेकिन लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा है कि कांग्रेस के दोनों संसदीय नेताओं का राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ मंच पर बैठने का इंतज़ाम किया गया था।
इस दृष्टि से संविधान-दिवस का बहिष्कार करके कांग्रेस, जो कि उसकी जन्मदाता है, अपनी ही कृति को सम्मानित करने में हिचकिचा गई। ऐसे में नरेंद्र मोदी का चिढ़ जाना स्वाभाविक था। शायद इसीलिए उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को हास्यास्पद बतानेवाले परिवारवाद की मजाक उड़ाई है। भारत की सिर्फ़ दो पार्टियों— बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर सभी पार्टियों का क्या हाल है?
लगभग सभी पार्टियाँ प्राइवेट लिमिटेड कंपनियाँ बन चुकी हैं। कोई मां-बेटा पार्टी है, कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई चाचा-भतीजा पार्टी है, कोई पति-पत्नी पार्टी है, कोई बुआ-भतीजा पार्टी है, कोई मामा-भानजा पार्टी है, कोई मौसी-भानजा पार्टी है।
आप समझ गए होंगे कि मैं किन पार्टियों का उल्लेख कर रहा हूं। इन पार्टियों की सिर्फ एक ही विचारधारा है। वह है— सत्ता! सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता! यानी नोट से वोट और वोट से नोट! इसी के चलते अपने कई स्वनामधन्य मुख्यमंत्री जेल की हवा खा चुके हैं। आजकल उनके बेटे और पोते उनकी प्राइवेट लिमिटेड कंपनियाँ चला रहे हैं। ज़्यादातर ऐसी पार्टियाँ भेड़-चाल पर निर्भर हैं। यानी अपनी जातियों के वोट-बैंक ही उनकी प्राण-वायु हैं। इन अंधे जातीय वोट बैंकों की नींव पर ही भारतीय लोकतंत्र का भवन खड़ा हुआ है।
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