loader
रुझान / नतीजे चुनाव 2024

झारखंड 81 / 81

इंडिया गठबंधन
56
एनडीए
24
अन्य
1

महाराष्ट्र 288 / 288

महायुति
233
एमवीए
49
अन्य
6

चुनाव में दिग्गज

कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय

जीत

गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर

हार

कश्मीर : क्या मोदी सरकार वाजपेयी के रास्ते पर चलेगी?

प्रधानमंत्री मोदी को लीक से हटकर और जोख़िम भरे फ़ैसले करने के लिए जाना जाता है और अक्सर वो आपको चौंकाते हैं जैसा उन्होंने 5 अगस्त 2019 को संसद में किया था, जब उनके गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू कश्मीर के लिए एक नई इबारत लिख दी थी। अब फिर वक़्त है एक ऐसी नई इबारत लिखने का, जिससे जम्मू कश्मीर का दिल्ली में बैठी सरकार और भारत के लोगों में भरोसा मज़बूत हो सके।
विजय त्रिवेदी

श्रीनगर की डल झील में राजनीतिक बर्फ पिघलने के संकेत मिलने लगे हैं। जम्मू कश्मीर में धारा 370 और 35ए को हटाने के क़रीब दो साल बाद केन्द्र सरकार फिर से राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की कोशिश में है। क़रीब 68 साल पहले 23 जून 1953 को जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कश्मीर में ही संदेहास्पद स्थितियों में निधन हो गया था। उनका नारा था -‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे’। मोदी सरकार ने 5 अगस्त 2019 को डॉ. मुखर्जी के उस स्वप्न को तो पूरा कर दिया, लेकिन ज़्यादातर लोगों का मानना है कि तब से जम्मू कश्मीर ना तो चैन की नींद सो पाया और ना ही उसके सपने पूरे होने का रास्ता आगे बढ़ा।

गुरुवार को दिल्ली में केन्द्र और जम्मू कश्मीर के नेताओं के साथ होने वाली बैठक में फिर से हाथ मिलाने की कोशिश होगी। गुपकार ग्रुप के नेता तैयार हो गए हैं और दो पूर्व मुख्यमंत्री फारुख़ अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के साथ लेफ्ट नेता तारीगामी भी इस बैठक में शामिल हो रहे हैं। कांग्रेस, बीजेपी के अलावा भी कई पार्टियों के नेता होंगे यानी साफ़ है कि केन्द्र सरकार ने कोई ऐसा इशारा इन नेताओं को दिया है कि वो पहले क़दम के तौर पर सरकार पर भरोसा कर सकते हैं। जम्मू कश्मीर को फिर से राज्य का दर्जा देना और पुनर्सीमांकन बातचीत का मुद्दा हो सकता है, लेकिन इस बात की संभावना कम ही दिखती है कि सरकार धारा 370 की वापसी पर बातचीत फिर से शुरू करे।

ताज़ा ख़बरें

दो साल पहले तक बीजेपी के साथ सरकार बनाने वाली महबूबा मुफ्ती ने बातचीत में पाकिस्तान का नाम जोड़कर दक्षिणपंथी नेताओं के मुँह का स्वाद ज़रूर ख़राब किया है। इस बैठक से पहले गृहमंत्री अमित शाह, उप राज्यपाल मनोज सिन्हा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच बैठकों के कई दौर और इससे जुड़े अफसरों की रिपोर्ट्स ने बातचीत का खाका तैयार कर दिया है।

इस बातचीत से क्या रास्ता निकलेगा, यह तो बाद में पता चलेगा, फ़िलहाल इससे पहले वाजपेयी सरकार के दौरान कश्मीर पर कोशिशों का ज़िक्र करना ज़रूरी होगा। तब के प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा था कि सरकार ‘कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत’ के बीच किसी से भी बातचीत के लिए तैयार है। श्रीनगर पहुँच कर वाजपेयी ने अपने अंदाज़ में कहा था कि आसमान में बादल छँटने लगे हैं, क्या बारिश के इस मौसम में कश्मीर में फिर से बादल छँट पाएँगे?

वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान कश्मीर मसले को हल करने को लेकर काफ़ी काम हुआ। दरअसल, वाजपेयी का राजनीतिक करियर ही कश्मीर से शुरू हुआ था, जब वह जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ पठानकोट तक गए थे। डॉ. मुखर्जी को बिना परमिट जम्मू कश्मीर में घुसने पर 11 मई 1953 को गिरफ्तार किया गया और जेल में रहते हुए 23 जून 1953 को उनका निधन हो गया। 

उस वक़्त लग रहा था कि सरकार डॉ. मुखर्जी को जम्मू कश्मीर में घुसने नहीं देगी और उन्हें पंजाब में ही रोक लिया जाएगा। तब से वाजपेयी के दिमाग में कश्मीर समस्या बैठ गई थी और वह उसे सुलझाने की कोशिश करते रहे।

डॉ. मुखर्जी के निधन के बाद जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला को कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। लेकिन 1998 में केन्द्र में एनडीए सरकार बनी तो वाजपेयी ने शेख अब्दुल्ला के बेटे डॉ. फारुख अब्दुल्ला से हाथ मिलाया और कहा कि इतिहास को पीछे छोड़कर कश्मीर के लिए आगे बढ़ना होगा। डॉ. फारुख अब्दुल्ला को भी शायद यह बात समझ आई और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को वाजपेयी ने अपनी सरकार में मंत्री बना दिया।

pm modi meeting with gupkar group leaders in jammu kashmir - Satya Hindi

कश्मीर मसले पर एक बड़ा बदलाव उस वक़्त महसूस किया गया जब अगस्त 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी जम्मू कश्मीर के दौरे पर वहाँ पहुंचे और उन्होंने कहा कि भारत सरकार जम्मू कश्मीर के किसी भी नुमाइंदे से बातचीत करने को तैयार है। इसके बाद नवम्बर में उन्होंने एकतरफ़ा सीज़फायर का ऐलान भी कर दिया। इसका कश्मीर के लोगों पर भावनात्मक असर हुआ।

एनडीए सरकार के दौरान ही 2002 में जम्मू कश्मीर में चुनाव होने थे। सरकार के लिए यह बड़ी ज़िम्मेदारी इसलिए थी क्योंकि दुनिया भर को ये भरोसा दिलाना ज़रूरी था कि चुनाव निष्पक्ष और बिना किसी डर के हुए हैं। साथ ही राज्य की जनता की ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सेदारी सुनिश्चित कराना भी ज़रूरी था। वाजपेयी ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का वादा ही नहीं किया बल्कि प्रशासन को इसके लिए सख्त आदेश भी दिए। 

विचार से ख़ास

ज़्यादातर लोगों का मानना था कि राज्य में नेशनल कान्फ्रेंस की सरकार है जो केन्द्र में भी शामिल है तो चुनावों में उसी की जीत होगी। बहुत से आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों ने चुनावों के बहिष्कार की अपील और धमकी भी दी, लेकिन जब सितम्बर–अक्टूबर में चुनाव हुए तो 44 फ़ीसदी मतदान हुआ और नेशनल कॉन्फ्रेंस का सफाया हो गया। राज्य में पीडीपी–कांग्रेस की सरकार बनी और मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री। इन चुनावों के बाद जम्मू कश्मीर में थोड़ी शांति नज़र आई। 

गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी राज्य में शांति बहाली की एक और कोशिश की। आडवाणी ने ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नरम गुट से बातचीत शुरू की। दिल्ली में 22 जनवरी और 27 मार्च को दो दौर की बातचीत हुई। इस बातचीत में हुर्रियत टीम की तरफ़ से चेयरमैन मौलवी अब्बास अंसारी, मीर वाइज़ उमर फारुख, बिलाल गनी लोन, अब्दुल गनी बट और फज़ल हक़ क़ुरैशी शामिल हुए। इस बैठक का विरोध संघ परिवार के कुछ लोगों ने भी किया।

pm modi meeting with gupkar group leaders in jammu kashmir - Satya Hindi

वाजपेयी सरकार ने इस मुद्दे पर दोतरफ़ा काम किया। एक तरफ़ वह पाकिस्तान से रिश्ते सामान्य करने की राजनयिक और ट्रैक-2 डिप्लोमसी की कोशिश करते रहे और दूसरी तरफ़ उन्होंने जम्मू कश्मीर के लोगों को बातचीत के लिए तैयार किया। आडवाणी की हुर्रियत से बातचीत के अलावा वाजपेयी ने तत्कालीन योजना आयोग के उपाध्यक्ष के सी पंत, क़ानून मंत्री अरुण जेटली और एन एन वोहरा को अलगाववादियों के अलग-अलग संगठनों और नेताओं के साथ बातचीत को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी सौंपी, जिसका थोड़ा फायदा भी हुआ। लेकिन इस बातचीत में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस शामिल नहीं हो रही थी। तब अक्टूबर 2003 में कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी ने गृहमंत्री आडवाणी को हुर्रियत से बातचीत करने की ज़िम्मेदारी सौंपी। सैयद अली शाह गिलानी के अलावा हुर्रियत के दूसरे नेताओं ने सरकार के इस क़दम का स्वागत किया।

हुर्रियत से बातचीत के तरीक़े और रास्ते को लेकर आडवाणी और वाजपेयी के प्रिंसिपल सेक्रेटरी ब्रजेश मिश्र और विशेष अधिकारी ए एस दुलत के कामकाज में फर्क था।

दुलत ने अलगाववादी नेताओं को यह संकेत दिया था कि भारत सरकार संविधान के दायरे से बाहर जाकर भी बातचीत को तैयार है जिससे आडवाणी नाराज़ हो गए थे और उन्होंने इन नेताओं से साफ़ कह दिया कि बातचीत सिर्फ़ संविधान के दायरे में रह कर ही हो सकती है।

पहले दौर की बातचीत में दोनों तरफ़ के लोग इस बात के लिए राज़ी हो गए कि राज्य में बंदूक़ की गोलियों के शोर के बजाय राजनीतिक आवाज़ सुनाई देनी चाहिए। बातचीत में आडवाणी ने कहा कि भारत सरकार राज्य में शांति बहाली के लिए प्रतिबद्ध है और हुर्रियत नेताओं की जायज़ मांगों पर विचार कर सकती है। लेकिन यह साफ़ है कि जम्मू कश्मीर भारत का अटूट हिस्सा है और भारत तीन पक्षीय बातचीत के लिए कभी तैयार नहीं होगा। आडवाणी ने 1953 से पहले की स्थिति बहाल करने से भी इंकार कर दिया।

सम्बंधित खबरें

गृहमंत्री आडवाणी ने कहा कि पूरा मुल्क कश्मीरियों की तकलीफ और उनके हालात समझता है, लेकिन इसमें वो कश्मीरी पंडित और मुसलमान भी शामिल हैं जो हिंसा की वजह से अपना घर-बार छोड़कर घाटी से बाहर विस्थापितों की ज़िंदगी बिता रहे हैं। उनकी घरवापसी के बिना किसी सम्मानजनक हल तक नहीं पहुँचा जा सकता। हुर्रियत नेताओं ने दो बातों पर जोर दिया– पहला, सुरक्षा बलों की ज़्यादती से मानवाधिकारों का हनन और दूसरा - राजनीतिक कैदियों का मुद्दा।

आडवाणी ने भरोसा दिलाया कि हमने सुरक्षा बलों से नरमी से पेश आने को कहा है और हुर्रियत नेताओं के साथ दूसरी बैठक से पहले 69 राजनीतिक कैदी रिहा किए गए। साथ ही दूसरे पांच सौ लोगों को छोड़ने की कार्रवाई शुरू की गई। दोनों के बीच अगली बैठक जून 2004 में होना तय हुआ। लेकिन उससे पहले मई में हुए आम चुनावों में एनडीए हार गया और बातचीत वहीं अटक कर रह गई। उस वक़्त हुर्रियत नेताओं ने भी वाजपेयी सरकार के हारने का अफसोस जताया था।

pm modi meeting with gupkar group leaders in jammu kashmir - Satya Hindi

प्रधानमंत्री मोदी को लीक से हटकर और जोख़िम भरे फ़ैसले करने के लिए जाना जाता है और अक्सर वो आपको चौंकाते हैं जैसा उन्होंने 5 अगस्त 2019 को संसद में किया था, जब उनके गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू कश्मीर के लिए एक नई इबारत लिख दी थी। 

अब फिर वक़्त है एक ऐसी नई इबारत लिखने का, जिससे जम्मू कश्मीर का दिल्ली में बैठी सरकार और भारत के लोगों में भरोसा मज़बूत हो सके। हो सकता है कि अरसे बाद हो रही इस पहली बैठक में दोनों तरफ़ के नेताओं के दिल ना मिल सके, लेकिन गर्मजोशी से हाथ मिलाने की शुरुआत तो होनी चाहिए। अभी राजनीतिक हितों से ज़्यादा राज्य के हितों पर ध्यान देने की ज़रूरत है जैसा वाजपेयी ने किया था।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
विजय त्रिवेदी
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें