जनसंख्या नियंत्रण के लिए मोदी जी ने जनता से एक ज़बरदस्त अपील की और कम बच्चे पैदा करने वालों को देश भक्त कहा (वैसे लालू यादव की नौ संतानें हैं लेकिन राहुल ने तो शादी भी नहीं की है)। संदेश अच्छा है लेकिन मोदी से सवाल पूछा जा सकता है कि देश-भक्त कौन है। बीजेपी के 15 साल के शासन काल में बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सकल प्रजनन दर (टीआरएफ़) को लेकर परिवार नियोजन कार्यक्रम सबसे ज़्यादा असफल रहा और पिछले दो साल में भी उत्तर प्रदेश वहीं का वहीं है, जबकि दक्षिण के सभी ग़ैर-बीजेपी शासित राज्य केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक (अब आपके हाथ फिर आया है) में राष्ट्रीय औसत से काफ़ी बेहतर है।
अब देश-भक्त किसे माना जाए? ऊपर से तुर्रा यह कि बिहार परिवार नियोजन कार्यक्रम को लेकर सबसे फिसड्डी है। वहाँ का टीआरएफ़ (3.2) राष्ट्रीय औसत (2.2) से आज भी काफ़ी अधिक है। लिहाज़ा बिहार में आबादी घनत्व (क़रीब 1200 प्रति वर्ग किलोमीटर) राष्ट्रीय घनत्व (422) का तीन गुना है तो क्या किसी दिन मोदी जी अपने सहयोगी दल के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी देश-भक्ति की नयी परिभाषा से बाहर करेंगे? यहाँ तक कि बिहार में कंडोम की कमी 40 प्रतिशत है जो किसी भी राज्य सरकार के लिए शर्म की बात है।
अगर जनसंख्या का दस-साला विकास दर सबसे तेज़ी से मुसलमानों में गिर रहा है (पिछले दशक में यह गिरावट पाँच प्रतिशत से ज़्यादा की है जो न तो दलितों में है, न ही आदिवासियों में और न ही राष्ट्रीय दर में) तो इस नयी परिभाषा से देश-भक्त कौन हुआ– मुसलमान या हर दूसरे दिन 'वन्दे मातरम' न कहने पर उन्हें पाकिस्तान भेजने वाला आपका मंत्री?
धर्म-अधर्म की राजनीति
लोकसभा में मोदी ने 11 जून, 2014 को लोकसभा में धन्यवाद प्रस्ताव पर कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा था कि ‘हमारी तमाम योजनाओं को आज यह पार्टी कहती है कि ये सब हमारे ज़माने में ही शुरू की गयी योजनाएँ हैं’। इस सन्दर्भ में महाभारत के ‘प्रपन्न-गीता’ का एक श्लोक उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा- दुर्योधन से जब कहा गया कि तुम तो धर्म जानते हो फिर अधर्म का मार्ग क्यों अपना रहे हो तो उसने कहा, ‘जानामि धर्मं, न च में प्रवृत्ति’ (धर्म तो मैं जानता हूँ पर इस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है), इस पर सत्ता पक्ष ने ज़बरदस्त तालियाँ बजायी थीं। मोदी ने श्लोक की अगली लाइन ‘जानामि अधर्मं, न च में निवृत्ति’ (मैं अधर्म भी जानता हूँ पर उससे मुझे छुटकारा नहीं है) नहीं पढ़ी थीं। आज कांग्रेस में प्रतिघात का सामर्थ्य और समझ होती तो वह श्लोक की इस लाइन को उद्धृत कर जनता से वैसी ही ताली बजवा सकती है।
प्रधानमंत्री मोदी और तर्क
लाल क़िले से अपने भाषण के पूर्वार्ध में मोदी कांग्रेस पर प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर प्रहार करते दिखे। उदाहरण : ‘सन 2014 के पहले एक निराशा का माहौल था जो 2019 तक आकांक्षाओं और विश्वास में बदल गया’, ‘370 अच्छा था तो स्थाई क्यों नहीं किया’, ‘बड़े फ़ैसलों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए’, ‘सुधार की आप में हिम्मत नहीं थी’ आदि। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अनुच्छेद 370 हटाए जाने का विरोध करने वाली कांग्रेस पर तंज के भाव में कहा, ‘अगर यह अनुच्छेद इतना ही अच्छा था, और जब कांग्रेस की सरकारें ज़बरदस्त बहुमत में थीं तो इसे स्थाई क्यों नहीं कर दिया’। मोदी जी वक्ता तो अच्छे हैं लेकिन जब कांग्रेस पर हमला करते हैं तो अक्सर उनके जुझारू व्यक्तित्व का साथ शायद तर्क छोड़ देता है। उन्हें याद दिलाया जा सकता है कि गृह मंत्री अमित शाह ने विधेयक रखते हुए संसद में कहा था कि अगर स्वयं कांग्रेस सरकार तमाम बार राष्ट्रपति के आदेश से जम्मू-कश्मीर के अधिकारों को पहले से ही कम कर चुकी है तो इसे पूरी तौर पर ख़त्म करने में क्या दिक्कत है।
अगर कांग्रेस में प्रतिघात करने की क्षमता होती तो मोदी के इस भाषण पर प्रतिक्रिया में दो सवाल पूछती ‘मोदी जी, अगर एक अस्थायी अनुच्छेद से कांग्रेस उस राज्य की शक्तियों को लगातार बगैर किसी उन्माद के या कोई सेना लगाये चुपचाप कम करती रही है, इतना बड़ा हंगामा क्यों, और उसी प्रक्रिया से जिससे कांग्रेस ने राष्ट्रपति के आदेश के तहत 35ए अस्तित्व में रखा था, आप उसी का इस्तेमाल करते हुए उसे हटा देते, यह तमाशा क्यों?
जवानों के बूटों की आवाज़ से आएगी शांति?
प्रधानमंत्री का कांग्रेस से यह कहना कि ‘इतना अच्छा था तो इसे स्थाई क्यों नहीं किया?’ कुछ ऐसा तर्क-वाक्य है कि कोई किसी से कहे ‘अगर आप अमुक को इतना सम्मान देते हैं तो उसके आने पर उसके पाँव धोकर क्यों नहीं पीते जैसा कि हमारे पूर्वज करते थे’। अगर कांग्रेस सकारात्मक तर्क का इस्तेमाल करे तो मोदी से पूछ सकती है ‘अगर सम्मान का प्रतीक और अहसास दिलाकर ही उनके अधिकार कम किये जा सकते हैं तो संगीनों के साये में और जवानों के बूटों की आवाज़ में यह शांति कितने दिन और कितनी महंगी पड़ेगी?’
मोदी से सवाल क्यों नहीं?
दूसरा तर्क लें। सरकार के बड़े फ़ैसलों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। संवाद अगर ‘वन-वे’ न होता या मीडिया से कभी मुखातिब होते या विपक्ष चैतन्य होता तो मोदी से प्रति-प्रश्न करता : मोदी जी, तो क्या इस मुद्दे पर संसद में कार्य-स्थगन प्रस्ताव लाया जाए कि कितने मंत्रियों के पर्सनल स्टाफ़ संघ के कार्यकर्ता रहे हैं? प्रतिस्पर्धी प्रजातंत्र में अगर विपक्ष सरकार के बड़े लेकिन उनकी समझ में ग़लत फ़ैसले पर भी मौन रहता है तो उसे राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए। क्या राम मंदिर पर लोकसभा में सरकार बहुमत के कारण बिल पास कराये तो विपक्ष को इसलिए चुप रहना चाहिए कि आपके हिसाब से यह बहुसंख्यक समुदाय की भावना का मुद्दा है। लिहाज़ा, आपकी परिभाषा के अनुसार, यह देश हित में है और ‘बड़ा’ है?’ फिर किस बैरोमीटर से निराशा, ‘विश्वास’ और ‘जन-अपेक्षा’ नापी जाती है?
अपनी राय बतायें