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जून-1984 पंजाब कभी भुला नहीं पाया या भुलाने नहीं दिया गया। पंजाबी ख़ासतौर से सिख लोकाचार में वह बरस किसी खंजर-सा गहरे तक धँसा हुआ है। एक जून, 1984 को अमृतसर की सरजमीं पर विश्वप्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर पर फ़ौजी कार्यवाही की विधिवत प्रक्रिया शुरू हुई थी जिसने सिख, पंजाब और देश के इतिहास को एकाएक ऐसा मोड़ दिया जो नागवार मंज़िल तक गया। उस कार्रवाई को सरकार ने 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' का नाम दिया। इसी ऑपरेशन ब्लू स्टार के तहत स्वर्ण मंदिर को नुक़सान पहुँचा! ढेरों जानें गईं। इसे अंजाम देने वालीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की जान भी इसी ऑपरेशन के चलते 1984 के 31 अक्टूबर को गई।
प्रतिशोध के तौर पर की गई उनकी हत्या के बाद सिख विरोधी हिंसा हुई। इस बर्बरता में हज़ारों बेगुनाह सिख बेजान कर दिए गए। 84 के जख़्म आज भी रिस रहे हैं। जबकि पुरानी पीढ़ियाँ जा चुकी हैं और नई वजूद में हैं। पुलों के नीचे से बहुत सारा पानी बह चुका है। फिर भी कुछ सवाल जस के तस हैं। इसलिए भी कि त्रासदियों से वाबस्ता कुछ सवाल निरंतर जवाब माँगते रहते हैं।
यक्ष प्रश्न है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार का सबसे बड़ा गुनहगार आख़िर कौन था? यह सवाल तब भी दरपेश है जब इससे जुड़े बहुत सारे लोग जिस्मानी तौर पर दुनिया से कूच कर गए हैं पर उनके किरदार आज भी कहीं न कहीं ज़िंदा हैं। इंदिरा गाँधी, ज्ञानी जैल सिंह, संत जरनैल सिंह भिंडरावाला, संत हरचंद सिंह लोंगोवाल, दरबारा सिंह, जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहड़ा, भजनलाल, पत्रकार लाला जगतनारायण, अरुण नेहरू आदि अब नहीं हैं।
पंजाब के एक छोटे-से कस्बे जैतो से राष्ट्रपति भवन तक पहुँचने वाले ज्ञानी जैल सिंह मूलतः एक गुरुद्वारा-ग्रंथी अथवा 'पाठी' थे जो बाद में राजनीतिज्ञ बन गए। कांग्रेस में वह परंपरागत सिखी का सबसे बड़ा सियासी चेहरा रहे। इंदिरा गाँधी उन्हें दिल्ली ले आईं। गृह मंत्री बने। लेकिन पंजाब का मोह नहीं छूटा। अकाली राजनीति से अदावत भी नहीं। शिरोमणि अकाली दल की अंदरूनी धारा के साथ-साथ पंजाब की राज्य स्तरीय कांग्रेस में तब भी दख़लअंदाज़ी करते रहे, जब वह राष्ट्रपति बन गए थे।
पंजाब में एक मुद्दत तक जिस 'संत' के इशारों पर खुलेआम आतंकवाद की आग लगाई जाती रही और बेगुनाहों को बेखौफ मारा जाता रहा, वह जरनैल सिंह भिंडरावाला दरअसल ज्ञानी जैल सिंह की देन था।
अकाली राजनीति और अपनी ही पार्टी कांग्रेस के (धर्मनिरपेक्ष अक्स वाले, उनसे भी ज़्यादा लोकप्रिय साबित हो रहे) मुख्यमंत्री दरबार सिंह का जनप्रभाव भोथरा करने के लिए भिंडरावाला को खड़ा किया गया। यकीनन बाद में वह काबू से बाहर भस्मासुर साबित हुआ।
जरनैल सिंह भिंडरावाला को जब लगा कि वह राज्य व्यवस्था के अधीन नहीं चलेंगे बल्कि स्टेट उनके हुक्म से चलेगा तो उन्होंने बाकायदा ज्ञानी जैल सिंह को आँखें दिखानी शुरू कीं और उनकी आका इंदिरा गाँधी को भी। बेशक कभी भिंडरावाला के 'आका' रहे ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति हो चुके थे और गाँधी तो प्रधानमंत्री थीं ही। जिस राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के चुनावी उम्मीदवारों के पक्ष में भिंडरावाला प्रचार करता फिरता था, वही कांग्रेस उसे सिखों की सबसे बड़ी 'दुश्मन' लगने लगी। जबकि 1982 के आसपास तब के कांग्रेस महासचिव राजीव गाँधी उन्हें 'संत' का खिताब दे चुके थे।
सिख इतिहास का यह भी एक काला अध्याय है कि जो जरनैल सिंह भिंडरावाला सरेआम बेगुनाहों के कातिलों की पैरवी करता था व उन्हें हथियार और शह देता था, उसका क़ब्ज़ा सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था (जिसे रूहानियत का दरबार कहा जाता है) पर हो गया। 'संतजी' इसलिए भी श्री अकाल तख्त साहिब की पनाह में चले गए कि उन्हें एक प्रतिद्वंद्वी कट्टरपंथी संगठन बब्बर खालसा से जान का ख़तरा था। सिख धार्मिक रिवायतों से बख़ूबी वाकिफ भिंडरावाला जानता था कि श्री अकाल तख्त साहिब की अहमियत क्या है। यानी इस जगह उन पर न तो भारतीय हुकूमत हमला करेगी और न ही प्रतिद्वंद्वी खालिस्तानी मरजीवड़े।
एक हद तक ऐसा हुआ। संत जरनैल सिंह भिंडरावाला का हौसला बढ़ता गया। पंजाब में लोग मरते गए। दो बार भिंडरावाले की गिरफ्तारी हुई। एक बार ख़ुद हुकूमत ने उन्हें पिछले रास्ते से बचाया और दूसरी बार वह परिस्थितिवश 'रिहा' हुआ। क़ानून की गिरफ्त से छूटा भिंडरावाला क़ानून को नौकर-चाकर समझने लगा था। भारतीय राज्य व्यवस्था उसके ठेंगे पर आ गई।
सब हदों से बाहर होकर संत जरनैल सिंह भिंडरावाला श्री अकाल तख्त साहिब से भारतीय राष्ट्र-राज्य को ज़बरदस्त खुली चुनौती देने लगा। सरकार और कांग्रेस का एक बड़ा खेमा फिर भी उसके आगे नतमस्तक रहा। सीधी टक्कर के लिए ललकारने वाले भिंडरावाला को मनाने-रिझाने की कवायद भी हुई।
हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे दिग्गज (वामपंथी) सियासतदान तो सक्रिय हुए ही दिवंगत वरिष्ठ पत्रकारों (दोनों पंजाबी) कुलदीप नैयर और खुशवंत सिंह ने भी बाकायदा स्वर्ण मंदिर जाकर मध्यस्थता की लेकिन भिंडरावाले अपने तीखे तेवरों से आगे बढ़ता रहा।
खैर, वक़्त यहाँ तक आ गया कि ब्रिटेन, रूस, जर्मन और अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने भी भारत सरकार के साथ यह जानकारी साझा की कि हिंदुस्तान का एक सिरमौर धार्मिक स्थल आतंकवाद का खुला पोषण कर रहा है। ब्रिटेन ने तो यहाँ तक लिखा कि देशद्रोह का अड्डा बन गया है। (ऑपरेशन ब्लू स्टार के 30 साल के बाद वहाँ की फ़ाइलें ज़ाहिर हुईं तो यह तथ्य सामने आया।) इस काली आंधी को रोकना अपरिहार्य है।
आख़िरकार मई में इंदिरा सरकार ने फ़ैसला लिया निर्णायक लड़ाई का। इसमें मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार में शामिल एक बड़ी शख्सियत भी शामिल थी जो तब केंद्र की एक ख़ुफ़िया एजेंसी के 'कामयाब जासूस' थे। ब्लूप्रिंट बना। फ़ौजी कार्रवाई एक बड़ा क़दम थी। लेकिन तमाम प्रक्रिया से राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को इस सबसे सिरे से अलहदा रखा गया। ज्ञानी जैल सिंह को इसलिए भी 'विश्वास' में नहीं लिया गया कि उनकी धार्मिक 'भावनाओं' को ठेस लगती और वह कभी संत भिंडरावाला के 'अनौपचारिक बॉस' रहे थे।
एक जून-1984 में फ़ौज का घेरा स्वर्ण मंदिर पर हो गया। सैनिकों की गाड़ियाँ शहर अमृतसर और पंजाब के शेष इलाक़ों में गश्त करने लगीं। बतौर राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने हस्तक्षेप नहीं किया या उन्हें ख़बर ही नहीं थी कि सरकार इतनी बड़ी कार्रवाई करने जा रही है। ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह स्वर्ण मंदिर परिसर में रोते हुए नज़र आए।
तब तक जरनैल सिंह भिंडरावाला और उनके क़रीबी साथियों तथा खालिस्तान के रणनीतिकार जरनल शुबेग सिंह का अंतिम संस्कार फ़ौज कर चुकी थी। वह फ़ौज, जिसके संवैधानिक मुखिया ज्ञानी जैल सिंह थे!
तो बहुत सारे राज, रहस्य ही रह गए। देश-दुनिया में रहने वाला (स्वर्ण मंदिर साहिब आस्था में रखने वाला) हर पंजाबी और सिख बेतहाशा आहत हुआ। ऑपरेशन ब्लू स्टार की बरसी पर अभी भी बेशुमार घर ऐसे हैं जिनमें शोक व्याप्त रहता है। कइयों में खाना तक नहीं बनता और व्रत रखा जाता है। इस बार भी ऐसा है। लेकिन यह सवाल सिरे से नदारद है कि आख़िर ऑपरेशन ब्लू स्टार का असली गुनहगार कौन है?
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