एक समय था जब भारत के गाँवों में लोग अपने रेडियो और ट्रांज़िस्टर में शॉर्ट वेब का वह बिंदु खोजते थे जिसपर सुई टिक जाए और वे बीबीसी सुन सकें। अपने मुल्क की ख़बर जानने के लिए एक विदेशी समाचार संस्था को सुनना किसी को अपमानजनक नहीं लगता था। क्योंकि उस वक़्त लोगों की दिलचस्पी यह जानने में थी कि उनकी सरकार उनके साथ क्या कर रही है। वह ख़बर आकाशवाणी या ऑल इंडिया रेडियो से उन्हें नहीं मिलेगी, यह वे जानते थे। उन्हें अपने-अपने समाज के भले की फिक्र थी इसलिए वे सच जानना चाहते थे। वे सरकार द्वारा अधिकृत किसी भी सूचना को संदेहपूर्वक ही ग्रहण करते थे। अपनी सरकार पर स्वस्थ संदेह करना और उसके दावों की दूसरे स्रोतों से जाँच करवाना अपनी सेहत के लिए अच्छा है, यह उन्हें मालूम था। हम अपनी इस पिछली पीढ़ी के मुक़ाबले कहाँ खड़े हैं?
पेगासस या पेगासस की ख़बर : ख़तरनाक क्या है?
- विचार
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- 22 Jul, 2021

क्या यह हमें नहीं मालूम होना चाहिए कि आख़िर किसके पास इस्राइली कंपनी एनएसओ की पेगासस तकनीक है जिसके ज़रिए जासूसी के लिये भारत के कुछ पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, न्यायाधीशों, चुनाव आयुक्त, स्वास्थ्य विशेषज्ञों को चुना गया? क्या यह जानना हमारे लिए ज़रूरी नहीं?
आज हालात उलटे हैं। विदेशी स्रोतों से आ रही ख़बर को हम शक की निगाह से देखने लगे हैं। उस तरफ़ से आनेवाली आवाज़ पर हम कान बंद कर लेते हैं। हमें संदेह होता है कि ये सब मिलकर हमारे देश के ख़िलाफ़ साज़िश तो नहीं कर रहे। हम सरकार के दावों पर किसी भी सवाल से घबरा जाते हैं, उन पर नाराज़ हो उठते हैं। हमने सरकार को अपनी आस्था पूरी तरह सौंप दी है।