एक समय था जब भारत के गाँवों में लोग अपने रेडियो और ट्रांज़िस्टर में शॉर्ट वेब का वह बिंदु खोजते थे जिसपर सुई टिक जाए और वे बीबीसी सुन सकें। अपने मुल्क की ख़बर जानने के लिए एक विदेशी समाचार संस्था को सुनना किसी को अपमानजनक नहीं लगता था। क्योंकि उस वक़्त लोगों की दिलचस्पी यह जानने में थी कि उनकी सरकार उनके साथ क्या कर रही है। वह ख़बर आकाशवाणी या ऑल इंडिया रेडियो से उन्हें नहीं मिलेगी, यह वे जानते थे। उन्हें अपने-अपने समाज के भले की फिक्र थी इसलिए वे सच जानना चाहते थे। वे सरकार द्वारा अधिकृत किसी भी सूचना को संदेहपूर्वक ही ग्रहण करते थे। अपनी सरकार पर स्वस्थ संदेह करना और उसके दावों की दूसरे स्रोतों से जाँच करवाना अपनी सेहत के लिए अच्छा है, यह उन्हें मालूम था। हम अपनी इस पिछली पीढ़ी के मुक़ाबले कहाँ खड़े हैं?
आज हालात उलटे हैं। विदेशी स्रोतों से आ रही ख़बर को हम शक की निगाह से देखने लगे हैं। उस तरफ़ से आनेवाली आवाज़ पर हम कान बंद कर लेते हैं। हमें संदेह होता है कि ये सब मिलकर हमारे देश के ख़िलाफ़ साज़िश तो नहीं कर रहे। हम सरकार के दावों पर किसी भी सवाल से घबरा जाते हैं, उन पर नाराज़ हो उठते हैं। हमने सरकार को अपनी आस्था पूरी तरह सौंप दी है।
हम आँख-कान बंद करने के पहले यह नहीं पूछते कि क्या ये विदेशी समाचार-समूह भारत देश के ख़िलाफ़ कुछ बोल रहे हैं, या प्रचार कर रहे हैं। वे तो हमें सिर्फ़ यह बतला रहे हैं कि हमारे देश में हमारे साथ, हमारे अनजाने क्या हो रहा है। अपने भले के लिए यह जानना ज़रूरी है कि हमारी सरकार, जिसे हमने प्रशासन के लिए चुना था, वह अपना काम कैसे कर रही है और कहीं अपना काम करने की जगह कुछ और तो नहीं कर रही।
यह बतलाने का काम समाचार-समूहों का है। यह सिर्फ़ आधुनिक समाजों की खासियत है कि लोगों को, जो कि जनता हैं, ख़बर की वैसे ही ज़रूरत होती है, जैसे खाने में नमक की या शरीर में ग्लूकोज़ की। लेकिन अगर नमक मिलावटी हो? वह नमक ही न हो? यह कैसे मालूम होगा। ख़बर के मामले में इसकी जाँच आसान है। अगर ख़बर का स्रोत सरकार और सत्ता को हमेशा आलोचक नेत्र से देखता है, तो वह ख़बर भरोसे के लायक है। वही हमारे लिए स्वास्थ्यकर है।
समाचार-पत्रों ने ही आधुनिक राष्ट्र को राष्ट्र का रूप लेने में सहायता की है। वे जनता को और देश की देह को सही और ज़रूरी ख़बर देकर स्वस्थ रखते हैं। इसलिए उनका सत्ता से स्वतंत्र होना आवश्यक है। वह इसलिए कि आम तौर पर सत्ता की प्रवृत्ति धर्म-विमुख होने की होती है। जैसा महाभारत में लिखा है, "धर्म क्या है, जानता हूँ लेकिन उस ओर प्रवृत्ति नहीं। अधर्म क्या है, वह भी जानता हूँ, लेकिन उससे निवृत्ति नहीं है।" सत्ता का यह स्वभाव है। इसलिए उसे नियंत्रित करना, धर्म के मार्ग पर लगाए रखना एक ज़रूरी काम है।
जनतंत्र में भी जनमत का अपहरण करके जनता के ही ख़िलाफ़ क़ानून बनाने और जनता के हितों को किसी और के सुपुर्द कर देने का काम अक्सर होता है। इसलिए सरकार पर निगरानी के राज्य के भीतर संरचनाएँ बनाई जाती हैं।
संसद, न्यायालय, चुनाव आयोग, ऑडिटर जनरल, लोकपाल जैसी संस्थाएँ सरकार से स्वतंत्र तरीक़े से काम करने के लिए बनाई गई हैं। ये सरकार की निगरानी करती हैं, उसे सीमा में रखती हैं। लेकिन ये सब भी क़ायदे से काम कर रही हैं या नहीं, यह देखने और जनता को बताने का काम समाचार-पत्रों, या अब टेलिविज़न चैनलों और समाचार वेबसाइटों का है।
आधुनिक समाजों की एक खासियत और है। वह यह कि वे राष्ट्रीय होने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय भी होते हैं। श्रीलंका, म्याँमार, बांग्ला देश, नेपाल जैसे पड़ोसी देशों से लेकर अमेरिका, अफ्रीका, मध्य पूर्व, यूरोप में क्या हो रहा है, यह जानने की उत्सुकता ही हमें आधुनिक नागरिक बनाती है। इसका एक कारण यह भी है कि इन देशों में लिए जा रहे निर्णयों का हमारी ज़िंदगी पर भी असर पड़ता है। कोरोना महामारी ने इस बात को तीव्रता से और तकलीफ़देह तरीक़े से उजागर किया है। चीन में वायरस कैसे फैला, यह जानने का हक़ पूरी दुनिया को है। अमेरिका की प्रवसन नीतियों का भारतीयों पर असर पड़ता है। ये तो निहायत दुनियावी मसले हैं। कोई देश इन मामलों में यह नहीं कह सकता कि क्यों दूसरे मुल्कों के लोग उसके मामले में दिलचस्पी ले रहे हैं।
लेकिन आर्थिक प्रसंगों को छोड़ दें तो भी हमारे लिए यह चिंता का विषय है कि पोलैंड हो या हंगरी या युगांडा, वहाँ तानाशाहियाँ क्यों जड़ जमा रही हैं।अमेरिका में ट्रम्प और बाइडन में कौन राष्ट्रपति बनेगा, यह पूरी दुनिया की फिक्र थी। रूस में विपक्षी नेताओं के साथ क्या किया जा रहा है, इसमें यूरोप और अमेरिका के अख़बारों की दिलचस्पी थी।
इन दिलचस्पियों के ज़रिए आधुनिक वैश्विक चेतना और समाज का गठन होता है। और अंतरराष्ट्रीय जनतांत्रिक समाज का भी। सरकारें एक दूसरे से बात करती हैं, एक जनतांत्रिक सरकार दूसरे देश में तानाशाह को गले लगाती है। तानाशाह आपस में बात करते हैं। वे सब एक-दूसरे को बनाए रखने की जुगत करते रहते हैं। फिर जनता क्या करे? उसे भी आपस में संवाद तो करना पड़ेगा।
पेगासस तकनीक के सहारे जासूसी के अंतरराष्ट्रीय जाल का पता अगर 'फॉरबिडेन स्टोरीज़' के साथ दुनिया भर के 16 समाचार-समूह न करते तो हमें यह न मालूम होता कि इस्रायल की एक कंपनी के पास एक ऐसी तकनीक है जिसे कई सरकारें खरीद रही हैं और उसके ज़रिए वे पत्रकारों, राजनेताओं, न्यायाधीशों, राजनीतिक, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की जासूसी कर रही हैं। यह सिर्फ़ भारत में नहीं हो रहा। लेकिन भारत में भी हो रहा है।
क्या यह हमें नहीं मालूम होना चाहिए कि आख़िर किसके पास इस्राइली कंपनी एनएसओ की पेगासस तकनीक है जिसके ज़रिए जासूसी के लिये भारत के कुछ पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, न्यायाधीशों, चुनाव आयुक्त, स्वास्थ्य विशेषज्ञों को चुना गया? क्या यह जानना हमारे लिए ज़रूरी नहीं?
एनएसओ का कहना है कि वह पेगासस सिर्फ़ सरकारों या उनकी संस्थाओं को बेचती है। तो क्या भारत में भारत सरकार यह कर रही है? या कोई और सरकार इसके ज़रिए भारत के पूरे तंत्र की जासूसी कर रही है? दोनों ही गंभीर चिंता का विषय हैं।
भारत सरकार को इसका जवाब क्यों नहीं देना चाहिए? अगर वह क़ायदे के मुताबिक़ देश की सुरक्षा के लिए संदिग्ध लोगों पर नज़र रख रही है तो वह तो उसे कबूल कर सकती है। इसमें क्यों घबराहट या कैसा लुकाव-छिपाव? लेकिन सरकार इसका जवाब देने की जगह अप्रासंगिक बातें कर रही है। पेगासस के ज़रिए जासूसी की आशंका की ख़बर को वह भारत के ख़िलाफ़ एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र बता रही है? एक पूर्व मंत्री मासूमियत से पूछ रहे हैं कि क्या यह सज़ा भारत को इसलिए दी जा रही है कि उसने कोरोना संक्रमण का इतनी कुशलता से मुक़ाबला किया है! दूसरा पूछ रहा है कि आख़िर यह ख़बर संसद के मानसून सत्र के ठीक पहले क्यों प्रसारित हुई? क्या यह भारत के जनतंत्र के विरुद्ध साज़िश है?
पेगासस के इस्तेमाल की ख़बर साज़िश नहीं है। साज़िश है पेगासस का इस्तेमाल। वह साज़िश कौन कर रहा है? अगर सरकार नहीं तब तो और चिंता का विषय है? क्यों हमारी सरकार चिंतित नहीं है?
फ़्रांस के राष्ट्रपति की जासूसी कौन कर रहा है? फ्रांस में पेगासस के इस्तेमाल की यह ख़बर मिलते ही वहाँ की सरकार ने जाँच का आदेश दिया। फ्रांस सरकार ने नहीं कहा कि यह उसके ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय साज़िश है। वहाँ के समाचार पत्रों ने यह नहीं कहा। और तो और इस्राइल में माँग उठ रही है कि एनएसओ की जाँच होनी चाहिए। एनएसओ कोई भी कारोबार इस्राइली सुरक्षा मंत्रालय की अनुमति के बिना नहीं कर सकता। इस तकनीक पर कंपनी का पूरा नियंत्रण है। तो क्या इससे जो भी जानकारी हासिल की जा रही है, वह इस्राइल की सरकार के पास भी पहुँच रही है? क्या यह हम सबके लिये चिंता का विषय नहीं है कि एक कंपनी के ज़रिए हो सकता है एक दूसरा देश आपके तंत्र को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है? क्या हम इतने ग़ाफ़िल रह सकते हैं?
हमारी सरकार के मंत्रियों, न्यायाधीशों, अधिकारियों और पत्रकारों के हर क़दम, उनके हर मिनट को एक विदेशी कंपनी, जो कि उसकी सरकार के नियंत्रण में है, नोट कर सकती है, क्या इससे हमारी सरकार की नींद नहीं उड़ जानी चाहिए?
इस्राइल के अख़बार 'हारेत्ज़' ने बतलाया है कि इस्राइल के पूर्व प्रधान मंत्री नेतान्याहू जिस जिस देश गए, एनएसओ और पेगासस वहाँ-वहाँ पहुँचा। क्या यह हँसकर उड़ा देने लायक ख़बर है? क्या हम उस पुरानी ख़बर को भी भूल जाएँ कि पेगासस के सहारे मैक्सिको में सरकार विरोधियों का उत्पीड़न किया गया था? भारत में ही पेगासस के इस्तेमाल की ख़बर दो साल पहले दी गई थी।
हारेत्ज़ में ही एक लेख में पूछा गया कि आख़िर क्यों इस्राइल की सरकार अपने नए दोस्त सऊदी अरब और रवांडा में पेगासस के सहारे सरकार विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न को लेकर परेशान हो जबकि वह ख़ुद गाज़ा पट्टी और पश्चिमी तट पर यही कर रही है?
अभी जब मैं यह लिख रहा हूँ ख़बर मिल रही है कि मोरक्को के पत्रकार ओमर रादी को 6 साल की कैद की सज़ा हुई है। उनको पेगासस से निशाना बनाया गया है, यह 2020 में ही मालूम हो गया था।
और इसे छपने को भेजने के पहले हिंदी के एकमात्र अख़बार ‘दैनिक भास्कर’ के दफ़्तरों पर आज सुबह से आयकर विभाग का छापा पड़ रहा है। अख़बार ने स्नूपिंग से संबंधित पंद्रह साल पुरानी एक ख़बर छापी थी और देश के दो बड़े नेताओं का नाम लिया था। हालाँकि बाद में उसे यह ख़बर अपनी वेबसाइट से हटानी पड़ी थी।
अगर इसके बाद भी पेगासस के इस्तेमाल से नहीं, पेगासस की ख़बर से नाराज़ हैं तो हमें जनता के रूप में बचाना नामुमकिन है।
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