चुनाव आयोग का काम स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से चुनाव कराना है। चुनाव के दौरान आयोग की हैसियत सरकार से ऊपर मानी जाती है। यह व्यवस्था इसीलिए की गयी है कि आयोग सभी पार्टियो को बिना किसी भेदभाव के चुनाव लड़ने का समान आधार मुहैया कराये। लेकिन आयोग ने जिस तरह से हाल में कार्रवाइयाँ की हैं, उससे निष्पक्ष और स्वतंत्र ढंग से काम करने वाले संवैधानिक निकाय के रुप में उसकी हैसियत पर गहरा सवालिया निशान लग गया है। ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग केंद्र सरकार के अधीन कोई विभाग है।
निर्वाचन आयोग की ओर से कांग्रस नेता राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री मोदी के लिए ‘पनौती’ शब्द के इस्तेमाल के लिए नोटिस जारी करना इसका स्पष्ट उदाहरण है। इस बात पर बहस हो सकती है कि कांग्रेस नेता को प्रधानमंत्री मोदी के लिए बतौर विशेषण पनौती शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए था कि नहीं लेकिन पनौती शब्द असंसदीय नहीं है, न ही गाली है। जनसामान्य के लिए इसका अर्थ असगुनिया होता है। यानी ऐसा व्यक्ति जिसकी उपस्थित काम बिगाड़ देती है। प्रधानमंत्री खुद अतीत में ऐसी बातें कर चुके हैं।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान वे खुद को ‘नसीबवाला’ और विपक्ष को ‘बदनसीब’ बताते हुए भाषण दे चुके हैं, जिसके वीडियो सोशल मीडिया पर सहज उपलब्ध हैं। आयोग ने इस भाषा का न तब संज्ञान लिया था और न अब लिया जब उन्होंने राहुल गाँधी को सीधे ‘मूर्खों का सरदार’ कहकर संबोधित किया। अब तक किसी प्रधानमंत्री ने विपक्ष के नेता के लिए इस भाषा का इस्तेमाल नहीं किया। ऐसी भाषा लोकतंत्र के प्रति उनकी आस्था पर सवाल खड़ा करती ही है, प्रधानमेत्री पद की मर्यादा को भी रसातल में पहुँचाती है। अगर आयोग लोकतंत्र का प्रहरी है तो पीएम को नोटिस जारी करने में उसके हाथ क्यों काँपते हैं?
आयोग का यह रुख सिर्फ़ भाषा या टिप्पणियों को लेकर भेदभाव में नहीं है, राजस्थान में गहलोत सरकार की गारंटियो के प्रचार पर रोक लगाकर भी उसने बीजेपी की इच्छा के मुताबिक काम किया है। कांग्रेस की ये गारंटियाँ, उसके घोषणापत्र का हिस्सा हैं। ये गारंटियाँ स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक के मामले में जनता को एक आश्वासन हैं। पक्ष-विपक्ष के बीच जनकल्याण योजनाओं को लेकर बहस और मुकाबला होना लोकतंत्र की सेहत के लिए बेहतर है। लेकिन बीजेपी को जब समझ में आया कि कि स्वास्थ्य बीमा के 25 लाख से 50 लाख कर दिये जाने या ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करने जैसे गहलोत सरकार के वादों की काट उसके पास नहीं है तो वह चुनाव आयोग की शरण में पहुँच गयी। उसने आयोग से शिकायत की कि गहलोत सरकार गारंटियों का प्रचार करके जनता का वोट चाहती है जो भ्रष्टाचार है। आयोग ने आनन-फानन में गारंटियों को लेकर की जा रहीं मोबाइल मिस काल के विज्ञापन पर रोक लगा दी। आयोग के मुताबिक यह आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन है।
ऐसे में यह सवाल लाज़मी है कि जब विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान केंद्र सरकार पाँच किलो अनाज देने की योजना पाँच साल और बढ़ाने का ऐलान किया तो आयोग ने कोई स्पष्टीकरण क्यों नहीं माँगा? या किसान निधि को लेकर चुनाव बीच पीएम मोदी की ओर से किये गये ऐलान को आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन क्यों नहीं माना गया? सत्ता और विपक्ष के बीच आयोग की ओर से किया जा रहा भेदभाव इतना स्पष्ट है कि सत्तापक्ष के लोगों की नज़र मे भी आयोग की कोई साख शायद ही हो। वे मानकर चलते हैं कि आयोग उनका अपना है, जहाँ से मनमाफिक निर्देश जारी करवाये जा सकते हैं।
हैरानी की बात ये भी है कि प्रधानमंत्री सहित बीजेपी के तमाम नेता प्रचार के दौरान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास करते नज़र आये पर आयोग ने चूँ भी नहीं बोला। राजस्थान में जिस तरह प्रधानमंत्री ने कन्हैयालाल हत्याकांड का मामला उठाया वह इसकी मिसाल है। उदयपुर में रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने ‘सर तन से जुदा’ जैसे जुमले का इस्तेमाल किया और इसे कांग्रेस सरकार की देन बताया। जबकि कन्हैयालाल की नृशंस हत्या पर त्वरित कार्रवाई करते हुए राजस्थान पुलिस ने चार घंटे के अंदर हत्यारों को पकड़ लिया था। बाद में यह केस एनआईए को सौंप दिया गया जो केंद्र के अधीन है। सवाल है कि अगर एनआईए इस मामले में किसी नतीजे तक नहीं पहुँची तो राजस्थान सरकार क्या कर सकती थी? और अगर कन्हैयालाल की हत्या के लिए मुख्यमंत्री गहलोत दोषी हैं तो फिर मणिपुर मे महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाने से लेकर सैकड़ों लोगों की हत्या के लिए सीधे बीजेपी के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह जिम्मेदार क्यों नहीं हैं?
“
कन्हैयालाल के मसले को राजस्थान की रैलियों में उठाने वाले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को क्या उनके प्रदेश मे होने वाले हत्याकांडों के लिए जिम्मेदार माना जाये? एनसीआरबी रिपोर्ट के मुताबिक यूपी महिलाओं के साथ बलात्कार के बाद उनकी हत्या के मामले में नंबर वन है। क्या इसके लिए बीजेपी और मुख्यमंत्री योगी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अपराध को इस दृष्टि से नहीं देखा जाता। लेकिन कन्हैयालाल की हत्या करने वाले मुस्लिम हैं तो यह चुनावी मुद्दा बना दिया गया, वह भी देश के प्रधानमंत्री की ओर से।
चुनाव प्रचार के दौरान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की तमाम शर्मनाक कोशिशों पर चुनाव आयोग को स्वत: संज्ञान लेना चाहिए था। आदर्श आचार संहिता धर्म के आधार पर मतदाताओं को प्रभावित करने पर रोक लगाती है, लेकिन आयोग सबकुछ देखते हुए भी आँख मूँदे रहा। इधर, मोदी सरकार ने भी उसकी साख कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था की मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियाँ भारत के राष्ट्रपति द्वारा एक समिति की सलाह पर की जाएँगी।
इस समति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश होंगे। लेकिन अगस्त मे ही मोदी सरकार ने राज्यसभा में एक विधेयक पेश किया जिसमें चयन समिति में मुख्य न्यायाधीश को हटाकर प्रधानमंत्री द्वारा नामित कैबिनेट मंत्री को सदस्य बनाने का प्रस्ताव था। इस विधेयक ने ये स्पष्ट कर दिया कि सरकार को आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता का दिखावा भी पसंद नहीं है। अफसोस कि बात ये है कि सरकार के इस रुख पर आयोग की भी मुहर है। सत्ताधारी के प्रति अतिरिक्त उदारता और विपक्ष पर निशाना बनाने वाले आयोग के फैसले लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत हैं।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
अपनी राय बतायें