प्रियंका गाँधी अगर बनारस से चुनाव लड़तीं तो लड़ाई दिलचस्प हो जाती और पूरे देश की नज़र बनारस पर ही लगी होती। लेकिन प्रियंका ने हिम्मत नहीं दिखायी। वह मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव नहीं लड़ेंगी। अब इसे क्या कहा जाये? क्या प्रियंका कमज़ोर पड़ गयीं या फिर कांग्रेस को लगा कि पहले ही चुनाव में इतनी बड़ी आग में प्रियंका को झोंकना ठीक नहीं होगा। प्रियंका की अनुपस्थिति में बनारस की लड़ाई मोदी के लिये कोई लड़ाई नहीं बची है। वह आसानी से चुनाव जीतेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

देश मोदी से सवाल कर रहा है कि बेरोज़गारी का आँकड़ा क्यों हिमालय की ऊँचाई को छू रहा है? अर्थव्यवस्था की हालत वैसी क्यों नहीं है जैसी सरकार बताने की कोशिश कर रही है? औद्योगिक विकास की हालत बदतर है। आयात निर्यात गिर रहा है। निवेश की हालत ख़राब है। किसान बेहाल है। ऐसे में उनको मालूम है कि विकास पुरुष की छवि के आधार पर उनका दुबारा प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना मुश्किल है।
2014 में बनारस की लड़ाई दिलचस्प थी। इसका सबसे बड़ा कारण था अरविंद केजरीवाल का बनारस में उन्हें चुनौती देना। केजरीवाल तब उभरते सितारे थे। उनके नाम का डंका बजता था। देश उनमें विकल्प देख रहा था। बनारस में केजरीवाल तीन लाख से अधिक वोटों से हारे थे। लेकिन केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में इसका बदला ले लिया। बीजेपी दिल्ली में नेस्तनाबूद हो गयी। वह विधानसभा में 32 से घट कर 3 सीटों पर पहुँच गयी। मोदी के लिए यह उनके जीवन की सबसे बड़ी और क़रारी हार थी जिसे वह कभी भी पचा नहीं पाये। बाद में आप की सरकार और पार्टी को इसका भारी ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।