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प्रतीकात्मक तसवीर।

वे कौन मुसलमान थे जिन्होंने राम और कृष्ण से प्रेम किया?

तुलसी हिंदुओं के लिए सबसे बड़े रामभक्त संत हैं, जिन्होंने रामचरित मानस लिखकर राम के चरित्र को घर -घर पहुंचा दिया। तुलसी के सबसे अच्छे मित्रों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना कौन थे? रहीम मुसलमान थे, अकबर के सेनापति थे और कवि भी।

तुलसी के पास एक स्त्री अपनी बेटी की शादी के लिए धन मांगने आई तो तुलसी ने कहा मैं तो संत हूँ मेरे पास धन कहाँ? उन्होंने एक चिट लिखी और रहीम के पास उसे मदद के लिए भेज दिया। चिट में लिखा था-

"सुरतिय-नरतिय-नागतिय-अस चाहत सब कोई।"

बदले में रहीम ने उस स्त्री को खूब सारा धन दिया और दोहा पूरा करके यूं भेजा है--

"गोद लिए हुलसी फिरे तुलसी से सुत हो होय।।"

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इस्लामी राज में तुलसी को अकबर ने नहीं सताया। उन्हें सताया काशी के कट्टर पंडितों ने, इसलिए कि उन्होंने रामचरितमानस अवधी में क्यों लिखी, संस्कृत में क्यों नहीं? एक हिन्दू संत का महात्म्य फैल रहा था लेकिन इससे अकबर को कोई परेशानी नहीं हुई। तुलसी और रहीम की मित्रता से आपने क्या सीखा?

कुछ लोगों को लगता है कि वो तलवार दिखाकर, जबरन जय श्रीराम बोला कर राम और हिन्दू धर्म का सम्मान कर रहे? ऐसे लोगों को न धर्म का पता है न संस्कृति का। तुलसी ने ही लिखा है-

"रामहि केवल प्रेम पियारा।"

जिस चरित्र में इतना आकर्षण है कि जिससे मुसलमान कवि तक खिंचे चले आते थे, उसे ये लोग क्या बना रहे हैं।

अमीर खुसरो, रसखान, नजीर अकबराबादी, आलम सहित दर्जनों कवि होंगे जिन्होंने कृष्ण के प्रेम में डूबकर कविताएं लिखी हैं, उन्हें पैगम्बर तक माना है। क्या उन्होंने ऐसा तलवार के डर से किया? नहीं, यह कृष्ण और राम के चरित्र का आकर्षण था।

सैय्यद इब्राहिम रसखान बन जाते हैं और लिखते हैं-

"यदि मैं अगले जन्म में मनुष्य बनूँ तो यही रसखान बनूँ। अगर पत्थर बनूँ तो वही पत्थर बनूँ जिसे कृष्ण ने उंगली पर धारण किया था। गाय बनूँ तो वही जिसे कृष्ण चराने जाते थे।" 

एक मुसलमान कवि राज पाट से निकलकर अन्तिम सांस वृंदावन में लेता है? क्या उन्हें किसी का डर था? उस समय तो इस्लामी शासन ही था।

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नजीर अकबराबादी ने जाने कितने पद कृष्ण पर लिखे हैं-

"तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी

हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी

तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा

तू बहरे करम है नंदलला, ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी।’

संभवत: पहली बार अकबर के जमाने में (1584-89) वाल्मीकि रामायण का फारसी में पद्यानुवाद हुआ। शाहजहाँ के समय 'रामायण फौजी' के नाम से गद्यानुवाद हुआ। 

औरंगजेब के युग में चंद्रभान बेदिल ने फारसी में पद्यानुवाद किया। तर्जुमा-ए-रामायन एवं अन्य रामायणों की रचना वाल्मीकि रामायण के आधार पर की गई।

मगर जहाँगीर के जमाने में मुल्ला मसीह ने 'मसीही रामायन' नामक एक मौलिक रामायण की रचना की, पाँच हजार छंदों वाली इस रामायण को सन् 1888 में मुंशी नवल किशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित भी किया गया था। 

गोस्वामी तुलसीदास के सखा अब्दुल रहीम खान-ए-खाना ने कहा है, "रामचरित मानस हिन्दुओं के लिए ही नहीं मुसलमानों के लिए भी आदर्श है।"

'रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्राण, 

हिन्दुअन को वेदसम जमनहिं प्रगट कुरान' 

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फरीद, रसखान, आलम रसलीन, हमीदुद्‍दीन नागौरी, ख्वाजा मोइनुद्‍दीन चिश्ती आदि कई रचनाकारों ने राम की काव्य-पूजा की है। कवि खुसरो ने भी तुलसीदासजी से 250 वर्ष पूर्व अपनी मुकरियों में राम को नमन किया है। 

सन् 1860 में प्रकाशित रामायण के उर्दू अनुवाद की लोकप्रियता का यह आलम रहा है कि आठ साल में उसके 16 संस्करण प्रकाशित करना पड़े। वर्तमान में भी अनेक उर्दू रचनाकार राम के व्यक्तित्व की खुशबू से प्रभावित हो अपने काव्य के ज़रिए उसे चारों तरफ़ बिखेर रहे हैं। अब्दुल रशीद खाँ, नसीर बनारसी, मिर्जा हसन नासिर, दीन मोहम्मद्‍दीन इक़बाल कादरी, पाकिस्तान के शायर जफर अली खाँ आदि प्रमुख रामभक्त रचनाकार हैं।

लखनऊ के मिर्जा हसन नासिर ने श्री रामस्तुति में लिखा है - 

कंज-वदनं दिव्यनयनं मेघवर्णं सुन्दरं। 

दैत्य दमनं पाप-शमनं सिन्धु तरणं ईश्वरं।। 

गीध मोक्षं शीलवन्तं देवरत्नं शंकरं। 

कोशलेशम् शांतवेशं नासिरेशं सिय वरम्।।

ये सब डरा कर नहीं हुआ है। संस्कृति रक्षा का मुखौटा लगाकर ये लोग इस देश की संस्कृति की जड़ें खोद रहे हैं और इनको गुमान है कि ये हिंदू धर्म और राम का मान बढ़ा रहे हैं।

(अभिषेक सिंह की फ़ेसबुक वाल से) 

(कुछ जगह एडिट किया गया है, लेकिन मूल वैसे का वैसा ही है)

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अभिषेक सिंह
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