गत 4 अप्रैल 2024 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 2024 के आम चुनाव के लिए अपना घोषणापत्र जारी कर दिया। पार्टी ने इसे 'न्याय पत्र' का नाम दिया है। इसमें जाति जनगणना, आरक्षण पर 50 प्रतिशत की ऊपरी सीमा हटाने, युवाओं के लिए रोज़गार, इंटर्नशिप की व्यवस्था, गरीबों के लिए आर्थिक मदद आदि का वायदा किया गया है। घोषणापत्र का फोकस महिलाओं, आदिवासियों, दलितों, ओबीसी, किसानों और युवाओं व विद्यार्थियों के लिए न्याय पर है। कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा कि घोषणापत्र यह वादा करता है कि भाजपा के पिछले 10 सालों के शासनकाल में समाज के विभिन्न तबकों के साथ हुए अन्याय को समाप्त किया जाएगा।
नरेन्द्र मोदी ने इस घोषणापत्र की निंदा करते हुए कहा कि घोषणापत्र पर (स्वतंत्रता-पूर्व की) मुस्लिम लीग की विघटनकारी राजनीति की छाप है और यह वाम विचारधारा से प्रभावित है। यह सुनकर भारतीय राष्ट्रवादी विचारधारा के सर्जक और आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर की याद आना स्वाभाविक है, जिन्होंने अपनी पुस्तक 'बंच ऑफ़ थॉट्स' में बताया है कि हिन्दू राष्ट्र के लिए तीन आतंरिक ख़तरे हैं – मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट। इनमें से दो की चर्चा भाजपा समय-समय पर विभिन्न स्तरों पर करती रही है और अब भी करती है।
साम्प्रदायिकता भाजपा का प्रमुख हथियार है। सन 1937 के राज्य विधानमंडल चुनावों के लिए मुस्लिम लीग के घोषणापत्र और चुनाव कार्यक्रम में मुस्लिम पहचान से जुड़ी मांगें थीं और उसमें समाज के कमज़ोर वर्गों की भलाई के लिए सकारात्मक क़दमों की कहीं चर्चा नहीं थी।
भाजपा के आरोपों के जवाब में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने एकदम ठीक कहा कि भाजपा के पुरखे और मुस्लिम लीग एक दूसरे के सहयोगी थे। सच तो यह है कि धार्मिक राष्ट्रवादी समूहों- मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस– में अनेक समानताएँ हैं। औपनिवेशिक भारत में आ रहे परिवर्तनों की प्रतिक्रिया में ये तीनों संगठन समाज के अस्त होते हुए वर्गों ने गठित किए थे। ब्रिटिश भारत में औद्योगीकरण, आधुनिक शिक्षा के प्रसार व न्यायपालिका और नई प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना के साथ-साथ संचार के साधनों के विकास के कारण कई नए वर्ग उभरे– श्रमजीवी वर्ग, आधुनिक शिक्षा प्राप्त वर्ग और आधुनिक उद्योगपति। इससे पुराने शासक वर्ग के जमींदारों और राजाओं-नवाबों को ख़तरा महसूस होने लगा। उन्हें लगा कि उनका सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक वर्चस्व समाप्त हो जाएगा।
इन दोनों धाराओं के पैरोकार क्रमशः हिन्दू राजाओं और मुस्लिम बादशाहों-नवाबों के शासनकाल को देश के इतिहास का सुनहरा और महान दौर मानते थे। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान दोनों ने अंग्रेजो का भरपूर समर्थन किया।
उनकी रणनीति यह थी कि अंग्रेजों के साथ मिलकर वे अपने शत्रु (हिन्दुओं या मुसलमानों) से निपटना चाहते थे। हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रमुख स्तंभ सावरकर ने अहमदाबाद में हिन्दू महासभा के 19वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा, “आज के भारत को एकीकृत और होमोजेनस नेशन नहीं माना जा सकता। उलटे यहाँ दो मुख्य राष्ट्र हैं – हिन्दू और मुसलमान।”
द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर ही जिन्ना ने 1940 में लाहौर में आयोजित मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग की।
मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने बंगाल, सिंध और नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में 1939 में संयुक्त सरकारें बनाईं। सिंध में जब मुस्लिम लीग ने विधानमंडल में पाकिस्तान के गठन के समर्थन में प्रस्ताव पारित किया तब हिन्दू महासभा के सदस्य चुप्पी साधे रहे।
सुभाष चन्द्र बोस ने जर्मनी से प्रसारित अपने वक्तव्य में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आन्दोलन में शामिल होने की अपील की। ये दोनों और आरएसएस 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन से दूर रहे। सावरकर ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जीत हासिल करने में इंग्लैंड की मदद करने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने कहा, “हर गाँव और हर शहर में हिन्दू महासभा की शाखाओं को सक्रिय रूप से हिन्दुओं को (अंग्रेज) थल, जल और वायु सेना और फौजी समान बनाने वाले कारखानों में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।” जिस वक्त सुभाष बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज, ब्रिटिश सेना से लड़ रही थी, उस समय सावरकर ब्रिटिश सेना की मदद कर रहे थे।
यह साफ़ है कि हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों अंग्रेजों के हितों की पोषक थीं। सुभाष बोस इन दोनों संगठनों की सांप्रदायिक राजनीति के कड़े विरोधी थे और दोनों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में भागीदारी करने की बोस की अपील पर कोई ध्यान नहीं दिया। जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुख़र्जी, जो मुस्लिम लीग के साथ बंगाल की गठबंधन सरकार में मंत्री थे, ने वाइसराय को लिखा कि 1942 के आन्दोलन को नियंत्रित किया जाए और यह वायदा किया कि वे यह सुनिश्चित करेंगे कि बंगाल में इस आन्दोलन को कुचल दिया जाये। दिनांक 26 जुलाई, 1942 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा, “अब मैं उस स्थिति के बारे में कुछ कहना चाहूँगा जो कांग्रेस द्वारा शुरू किये गए किसी भी व्यापक आन्दोलन के कारण प्रान्त में बन सकती है। जो भी सरकार वर्तमान में शासन कर रही है, उसे युद्ध के इस दौर में आमजनों को भड़काने के किसी भी ऐसे प्रयास, जिससे आंतरिक गड़बड़ियाँ फैल सकती हैं और असुरक्षा का वातावरण बन सकता है, का प्रतिरोध करना चाहिए।”
सुभाष बोस की तरह आंबेडकर भी मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधाराओं को एक खांचे में रखते थे। उन्होंने सन 1940 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया” में लिखा, “यह अजीब लग सकता है मगर मिस्टर सावरकर और मिस्टर जिन्ना एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर एक-दूसरे के विरोधी होने की बजाय, एक-दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं। दोनों सहमत हैं – सहमत ही नहीं बल्कि जोर देकर कहते हैं- कि भारत में दो राष्ट्र हैं – एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिन्दू राष्ट्र।”
कोई आश्चर्य नहीं कि दबे-कुचले लोगों के कल्याण की बातें भाजपा-आरएसएस को मंज़ूर नहीं हैं क्योंकि वे उसके हिन्दू राष्ट्र के एजेंडा के खिलाफ हैं। मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान में वंचित वर्गों की क्या स्थिति है, यह हम सब के सामने है। आशा जगाने वाले कांग्रेस के घोषणापत्र की मोदी की आलोचना, उनके विचारधारात्मक पुरखों की सोच के अनुरूप है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी अवार्ड से सम्मानित हैं)
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