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फाइल फोटो

चिकित्सा की दुनिया में बाबाओं की मनमानी से किसका भला?

पिछले कुछ दशकों में भारत में कई बाबाओं का उदय हुआ है। इसके पहले भी बाबा हुआ करते थे, मगर इन दिनों बाबाओं का जितना राजनैतिक और सामाजिक दबदबा है, उतना पहले शायद कभी नहीं रहा। कई बाबा अनेक तरह के काले कामों में लिप्त भी पाए गए हैं, मगर उनकी दैवीय छवि के चलते उनके अपराधों को नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है। शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती पर उनके आश्रम के एक कर्मी शंकर रमण की हत्या का आरोप था। सत्यसाईं बाबा के प्रशांति निलयम में भी एक हत्या हुई थी। गुरमीत राम रहीम के कुकर्मों को उजागर करने के लिए पत्रकार छत्रपति रामचंद्र को अपनी जान गंवानी पड़ी। अंततः राम रहीम कानून के पंजे में फँस गया और इन दिनों जेल में है। यह अलग बात है कि वो अधिकांश समय पैरोल पर बाहर रहता है। आसाराम बापू लम्बे समय तक कानून की पकड़ से दूर रहा मगर अब वह सीखचों के पीछे है। इस समय बागेश्वर धाम नामक एक बाबा काफी लोकप्रिय है। ये कुछ उदाहरण मात्र हैं। देश में असंख्य बाबा हैं जो अपने-अपने अंधभक्तों की भीड़ से घिरे रहते हैं। उनकी रईसी देखते ही बनती है।

दो अन्य बाबाओं का ज़िक्र ज़रूरी है। एक हैं श्री श्री रविशंकर, जिन्होंने अपने उत्सव के लिए यमुना को बर्बाद कर दिया था। वे अन्ना हजारे के आरएसएस-समर्थित आन्दोलन से भी जुड़े हुए थे। फिर बाबा रामदेव हैं। रामदेव ने अपने करियर की शुरुआत योग गुरु के रूप में की थी। लेकिन बाद में उन्होंने पतंजलि ब्रांड नाम से व्यापार शुरू कर दिया। आयुर्वेदिक उत्पादों को बनाने और बेचने वाली इस कंपनी ने बाबा रामदेव को अरबपतियों की श्रेणी में ला खड़ा किया। बाबा रामदेव और उनके सहयोगी आचार्य बालकृष्ण ने एक बड़ा साम्राज्य स्थापित कर लिया है और उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है। या कम से कम अब तक तो नहीं था। उनके आयुर्वेदिक उत्पादों का जबदस्त प्रचार-प्रसार हुआ और मीडिया का एक बड़ा तबका उनका गुणगान करने लगा। 

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बाबा और आचार्य की शैक्षणिक योग्यता के बारे में हम बहुत नहीं जानते। इस समय देश में कई आयुर्वेदिक कॉलेज हैं मगर इन दोनों के पास शायद आयुर्वेद की कोई डिग्री नहीं है। पड़ताल से बचने के लिए रामदेव ने देशभक्ति का लबादा ओढ़ लिया और यह कहते रहे कि वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुकाबला कर रहे हैं।

असली खेल शुरू हुआ कोविड-19 महामारी के दौरान। एक ओर सरकार ने पुणे स्थित भारत बायोटेक को कोवैक्सीन का विकास और उत्पादन करने हेतु भारी आर्थिक मदद उपलब्ध करवाई वहीं बाबा रामदेव ने यह दावा किया कि उनकी कंपनी ने कोविड-19 के इलाज और उससे बचाव के लिए एक दवाई विकसित की है जिसका नाम है कोरोनिल। हमें यह भी बताया गया कि कोरोनिल को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) का अनुमोदन प्राप्त है। जब आयुष मंत्रालय ने इस दावे को चुनौती दी तो पंतजलि की ओर से यह कहा गया कि कोरोनिल ‘डब्लूएचओ के मार्गनिर्देशों के अनुरूप है'। आयुष मंत्रालय ने कोरोनिल के बारे में दावों को सत्यापित करने से इंकार कर दिया। इसके बाद भी कोरोनिल के कांबो पैक को बड़ी धूमधाम से दो कैबिनेट मंत्रियों, डॉ. हर्षवर्धन और नितिन गडकरी, की उपस्थिति में जारी किया गया। हर्षवर्धन स्वयं एलोपैथिक डॉक्टर हैं। इस कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति से यह जाहिर है कि वे भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों के कितने अंधभक्त हैं।

बाबा ने दावा किया कि कोरोनिल का परीक्षण मामूली से लेकर मध्यम श्रेणी के कोविड संक्रमण से पीड़ित लोगों पर किया गया और कोरोनिल का सेवन करने के कुछ ही दिनों के भीतर उनका कोविड टेस्ट निगेटिव हो गया। 
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में किसी भी नई दवा को सामान्य उपयोग के लिए जारी करने के पहले उसका जैव रासायनिक विश्लेषण किया जाता है, पशुओं पर उसका परीक्षण किया जाता है और फिर समुचित आकार के नमूनों पर उसकी 'डबल ब्लाइंड' ट्रायल की जाती है। कोरोनिल के मामले में इनमें से कुछ भी नहीं किया गया।

अपनी व्यावसायिक सफलता से गदगद बाबा रामदेव ने गोदी मीडिया की प्रशंसा को कबूल किया। इससे एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने एलोपैथी को एक बेवकूफाना विज्ञान बताना शुरू कर दिया। इससे व्यथित होकर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने रामदेव के खिलाफ प्रकरण दायर किया जिसकी सुनवाई हाल में हुई। रामदेव ने अदालत में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का अपमान करने के लिए आईएमए से क्षमायाचना की। यहां पाठकों को यह याद दिलाना श्रेयस्कर होगा कि बाबा रामदेव ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ भूख हड़ताल की थी तब उन्होंने यह दावा किया था कि योग के कारण उनका शरीर इतना मज़बूत हो गया है कि वे लंबे समय तक बिना भोजन के रह सकते हैं। मगर उपवास प्रारंभ करने के कुछ ही दिनों के बाद उनकी हालत इतनी पतली हो गई कि उन्हें एक एलोपैथिक अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। इसी तरह करीब एक वर्ष पहले जब आचार्य बालकृष्ण बीमार पड़े तो वे एक एलोपैथिक अस्पताल के आईसीयू में भर्ती हो गए। 

उच्चतम न्यायालय की चेतावनियों के बाद भी बाबा की कंपनी भ्रामक विज्ञापन जारी करती रही। अदालत ने उन्हें बुलाया औैर बाबा ने गिड़गिड़ाते हुए माफी मांगी। मगर अदालत ने उनकी माफी मंजूर नहीं की।

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अदालत में चल रहे प्रकरण का नतीजा चाहे जो हो, सवाल यह है कि देसी चिकित्सा पद्धतियों और आस्था पर आधारित ज्ञान के आधार पर कोई भला किस तरह आधुनिक चिकित्सा पद्धति का मखौल बना सकता है? यह मानने से किसी को इंकार नहीं है कि पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में ही नहीं, बल्कि दादी मां के नुस्खों में भी कुछ ज्ञान हो सकता है। मगर आधुनिक चिकित्सा पद्धति साक्ष्य और साथी चिकित्सकों व वैज्ञानिकों की समीक्षा पर आधारित होती है। हर दावे को हर तरह की समीक्षा और समालोचना का सामना करना पड़ता है। और इसके नतीजे में ही ऐसी चीजें विकसित होती हैं जो मानवता के लिए उपयोगी साबित होती हैं।

इसके विपरीत आस्था पर आधारित ज्ञान और उससे जुड़ी चिकित्सा प्रणालियों पर प्रश्न नहीं उठाए जा सकते। हर बाबा अपनी तरह से रोगों का इलाज करता है। चिकित्सा प्रणालियों के प्रोटोकॉल में लगातार सुधार इसलिए होता रहता है क्योंकि उसकी समीक्षा करने का अधिकार सभी को होता है। इसके विपरीत रामदेव जैसे लोग अपने दैवीय दर्जे का लाभ उठाते हुए मनमाने दावे करते हैं और उन्हें न तो कोई चुनौती देता है और न कोई उनकी आलोचना करता है। बाबा ने यह दावा भी किया था कि वे कैंसर और एड्स का इलाज भी कर सकते हैं। वे तो समलैंगिकता को भी एक रोग मानते हैं और उनका दावा है कि वे इलाज से उसे ठीक कर सकते हैं।

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अब तक उन्हें सत्ता का संरक्षण प्राप्त था और इसी के चलते वे इतने अहंकारी हो गए थे कि वे एलोपैथी का मजाक बनाते थे और ‘अपनी' प्रणाली को सर्वश्रेष्ठ बताते थे।

बाबा लोग इतने मजे में क्यों हैं? इसका कारण यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत में धर्म के नाम पर राजनीति का बोलबाला बढ़ा है। इसके साथ ही प्राचीन ज्ञान का भी महिमामंडन किया जा रहा है। वैज्ञानिकता और तार्किकता में विश्वास करने वाले लोग चाहते हैं कि प्राचीन ज्ञान को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसा जाए। यही बात डॉक्टर दाभोलकर, गोविंद पंसारे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश कहते थे। और उन्हें इसकी क़ीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। आज हमारे देश में तार्किक सोच और पद्धतियों को परे हटाकर केवल आस्था पर आधारित ज्ञान का ढोल पीटा जा रहा है। यहाँ तक कि शैक्षणिक संस्थाओं में भी आस्था आधारित ज्ञान विद्यार्थियों को पढ़ाया जा रहा है।

बाबा रामदेव श्रद्धा और अंधश्रद्धा के कांबो से पीड़ित रोगी समाज के लक्षण हैं। सुप्रीम कोर्ट ने चिकित्सा की दुनिया में बाबाओं की मनमानी को रोकने का जो प्रयास किया है वह सराहनीय है। 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी अवार्ड से सम्मानित हैं) 

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राम पुनियानी
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