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गंगा मां ने गोदी से उतारा या “पहरेदार” पर शक हुआ

मसल है समझदार को इशारा काफी होता है. लेकिन राजनीति में यह अप्लाई नहीं करता क्योंकि इस क्लास वाले खुद “इशारों” याने इमोशन को बेचने के बिज़नस में (इसे धंधा कहना इसलिए गलत होगा क्योंकि यह शब्द किसी और वर्ग के लिए प्रयुक्त होता है) हो उसके लिए चुनाव परिणाम के जरिये दिए गए इशारों का कोई मतलब नहीं होता. तभी तो पीएम मोदी ने “मोदी है तो ...” के सार्वभौमिक शब्द-समूह को चार जून की हार के बाद “एनडीए” से बदल दिया. 
ऐसा करने वाला यह समझता है कि जनता उसके छलावे को समझने का “आईक्यू” नहीं रखती. अचानक नेहरु के तीन शासन काल के बरअक्स “एनडीए” के तीन टर्म रखा जाता है बगैर यह बताये कि नेहरु गठबंधन की बैसाखी पर नहीं थे. हार की लाज न दिखने के लिए नेहरु जिसने बकौल मोदी देश को गर्त में पहुंचा दिया था, आज उसी मोदी के लिए तुलनीय हो गए थे. मोदी अपने को उस टॉपर बच्चे के रूप में दिखाने लगे जो हर बात अव्वल आत है लेकिन इस बार बस कुछ मार्क्स पहले से कम हो गए. कितना छलावा होता है इस तरह की फरेब की राजनीति में ?
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अगर पांच साल में “मोदी की गारंटी” पर भरोसे की बात हो तो कहाँ नहीं भरोसा टूटा इस स्व-नियुक्त “पहरेदार” और भाजपा के प्रवक्ताओं-नेताओं के तकियाकलाम “यशस्वी प्रधानमंत्री मोदी” से ?

कैसे टूटा जनता का भरोसा

पहला भरोसा: सन 2019-24 के बीच 5.80 करोड़ नए मतदाता जुड़े. भाजपा को इसमें से केवल 50 लाख वोट मिले जबकि कांग्रेस करीब 1.60 करोड़. किस पर भरोसा किया नए युवाओं ने?दूसरा भरोसा: राम मंदिर वाले अयोध्या में जहां मोदी ने सब को किनारे कर अकेले रामलला विग्रह की पहली पूजा की. लोगों ने भाजपा प्रत्याशी को हरा दिया.
तीसरा भरोसा: गंगा मां द्वारा सन 2014 में “बुलाये जाने वाले के बाद और सन 2014 में उसी गंगा मां द्वारा गोद लिए जाने तक” मोदी को गंगा-किनारे वाले लोगों ने 3.50 लाख कम वोट दिए. चौथा भरोसा: हिंदुत्व की लेबोरेटरी उत्तर प्रदेश में जहां पिछले चुनाव के मुकाबले 8.2 प्रतिशत वोट कम पड़े.
पांचवां भरोसा: देश के उन नौ राज्यों में जहां भाजपा का खाता भी नहीं खुला, उन 16 राज्यों में जहां पहले के मुकाबले मत 22 से एक प्रतिशत तक गिरा है.
छठा भरोसा: मोदी को ग्रामीण भारत ने ख़ारिज किया जहां से 398 सीटें आतीं हैं. यहाँ सन 2019 में भाजपा को 40 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि शहरी भारत के 145 सीट्स पर मात्र 33 लेकिन इस बार ठीक उलट ग्रामीण भारत ने मात्र 33 प्रतिशत मोदी की पार्टी को वोट दिया जबकि शहरी भारत ने 40 फीसदी. शहर के लोगों को शायद मोदी का “अन्तरराष्ट्रीय स्तर का एअरपोर्ट” और “ऑनलाइन आर्डर के 15 मिनट में गरम पिट्जा आ जाना” भारत के विकास का नया पैमाना लगता है. लिहाज़ा शहरों में हर तीन में दो भाजपा प्रत्याशी जीते लेकिन इतने प्रत्याशी गाँव से जिताने में भाजपा को हर पांच में से तीन सीटें हारनी पडीं. याने ग्रामीण भारत ने भी मोदी को ख़ारिज किया.    
सातवाँ भरोसा: राजस्थान के बाड़मेर में जो भाजपा की परम्परागत सीट है मोदी ने चुनाव-भाषण में स्तरहीनता की पराकाष्ठ पर जाते हुए कहा था “घुसपैठिये और ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले”. भाजपा प्रत्याशी हार गया.
आठवाँ भरोसा: बनासकांठा (गुजरात) जहां का किसान दूध उत्पादन करता है, मोदी ने कहा “अगर तुम्हारे पास दो भैसें होंगीं तो कांग्रेस वाले एक भैंस खोल कर मुसलमान को दे देंगें. वोटर्स ने कांग्रेस प्रत्याशी को जीता दिया.     
हार के बाद गठबंधन में शामिल टीडीपी और जेडीयू की बैसाखी थामने की मजबूरी के बावजूद इस नेता के शब्द सुनिए “भारत की राजनीतिक व्यवस्था में एनडीए एक ओर्गानिक गठबंधन है”. “मैं, मोदी, मोदी की गारंटी” की तोता-रटंत दस साल तक लगातार करने वाला व्यक्ति चुनाव परिणामों की मजबूरी में कैसे पलटता है.परिणाम के बाद की स्पीच में दर्जनों बार गठबंधन-एनडीए शब्द-युगल आए. लेकिन अपने को “चमकाने” की लत कहाँ जाये. अगला वाक्य था “मैं तो पैदा हीं भारत माता के काम के लिए हुआ. मैं वे दिन लाना चाहता हूँ जब विदेश के लोग भारतीयों से हाथ मिलाने में गर्व करें”. मोदी ने यहाँ भी मिथ्या प्रलाप किया. 
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दो दिन पहले यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में “बाल कुपोषण” या पोषण की गरीबी” (चाइल्ड फ़ूड पावर्टी)  की स्थिति पर जिन 20 देशों को “गंभीर स्थिति” में रखा गया है उसमें भारत भी है. रिपोर्ट के अनुसार, तमाम कम आय वाले देश जैसे बुर्कीना फासो और नेपाल ने अपने यहाँ पिछले दस वर्षों में बाल खाद्य अभाव की गंभीर स्थिति को आधा कम कर दिया जबकि गरीबी के लिए कुख्यात रवांडा ने एक-तिहाई कम कर दिया है और पेरू ने अपनी इस स्थिति को पांच प्रतिशत से बढ़ने नहीं दिया है.
मोदी छलावा राजनीति छोड़ कर यथार्थ का गवर्नेंस मॉडल दें तभी अगला पांच साल बेहतर होगा. 
(लेखक एनके सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव हैं)
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