संसद के विशेष सत्र में जो निकला वो न चौंकाने वाला निकला और न देश की राजनीति की काया पलट करने वाला। केंद्र सरकार ने बहु प्रतीक्षित महिला आरक्षण विधेयक का नाम भर नहीं बदला बल्कि उसमें इतने पेच डाल दिए कि देश की महिलायें उन्हें सुलझाते-सुलझाते बूढ़ी हो जाएँगी लेकिन पेच दूर नहीं होंगे। गोदी मीडिया इस विधेयक को केंद्र सरकार का 'ब्रम्हास्त्र' बता रहा है किन्तु ऐसा हकीकत में है नहीं। हकीकत और अफ़साने में बहुत अंतर है।
जुमलेबाजी में सिद्धहस्त केंद्र सरकार और सरकारी पार्टी की ओर से महिला आरक्षण विधेयक का नाम अब नारी शक्ति वंदन विधेयक कर दिया गया है। जुमलेबाज जानते हैं कि इसे 'नयी बोतल में पुरानी शराब ' की पैकिंग कहा जाता है। यानी कुछ बदला नहीं। सब कुछ ठीक वैसा ही जैसा पहले था। डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में भी और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी कुछ नहीं बदला था। इस विधेयक की कल्पना करने वाली कांग्रेस की सरकार में भी। सब महिलाओं की वंदना तो करना चाहते हैं लेकिन महिलाओं कि प्रति ईमानदार नहीं हैं। ये बेईमानी कल भी थी और आज भी है और शायद कल भी रहेगी।
नारी समाज की असल वंदना तो राजीव गांधी पहले ही स्थानीय निकायों और पंचायत चुनावों में आरक्षण का प्रावधान करके कर ही चुके थे। देश की आधी आबादी को उसका पूरा हक देने के लिए कोई दिल से राजी नहीं है। आज की सरकार भी नहीं। आज की सरकार ने भी देश की आधी आबादी यानी महिलाओं के हाथ में एक ऐसा झुनझुना पकड़ा दिया है जिसे वे बजाती रहें और अधिकार पाने का ख्वाब देखकर मुदित होती रहें, मन के लड्डू खाती रहें। कम से कम उन्हें इस वंदना विधेयक को कानूनी जामा पहनते हुए देखने के लिए 2027 यानी चार साल और इंतजार करना होगा। इन चार सालों में देश और दुनिया कहाँ जाएगी, कोई नहीं जानता।
अब महिलाओं को यदि अपनी वंदना करनी है तो सबसे पहले तो वे विधेयक लाने वाली सरकार को अपना वोट दें। फिर लोकसभा क्षेत्रों के परिसीमन की प्रतीक्षा करें और इसके साथ ही 2027 में होने वाली जनगणना का इन्तजार भी करें। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा महिलाओं को झुनझुना पकड़ाकर 2024 के आम चुनाव में विजयश्री हासिल करना चाहती है लेकिन ऐसा होगा नहीं। अब देश की आधी आबादी काफी समझदार हो गयी है। उसके हाथ में झुनझुना या लॉलीपाप पकड़कर उसे बहलाया नहीं जा सकता। उसे राष्ट्रपति के पद पर एक आदिवासी महिला को बैठाकर भी मूर्ख नहीं बनाया जा सकता क्योंकि आधी आबादी को पता है कि सत्तारूढ़ पार्टी की महिलाओं को लेकर मानसिकता क्या है?
संसद में भले ही इस विधेयक की विसंगतियों पर उंगली उठाने वाले शरद यादव, मुलायम सिंह यादव और लालू यादव नहीं हैं लेकिन उनके वंशज तो हैं। मायावती नहीं हैं लेकिन दूसरी महिलाएँ तो हैं जो जानती हैं कि इस विधेयक से सकल नारी समाज की शक्ति की वंदना नहीं हो सकती।
इसमें बहुत कुछ उलट-फेर करने की ज़रूरत होगी। देश में तमाम पुण्य कार्यों के लिए अवतार लेने वाले हमारे भाग्यविधाता खुद भी गफलत में हैं और पूरे देश को गफलत में डालने की कोशिश कर रहे हैं। वे संख्या बल के आधार पर इस आभासी वंदना विधेयक को सदन के दोनों सदनों में अव्वल तो पारित करा नहीं सकते और यदि करा भी लें तो इस विधेयक के क़ानून बनने से वे आधी आबादी के साथ न्याय नहीं कर सकते।
सरकार और सरकारी पार्टी का आत्मविश्वास इतना है कि वो आज से लेकर 2047 तक सत्ता में बने रहने का ख्वाब देख रही है। ख्वाब देखने पर इस देश में कोई पाबंदी नहीं है। पाबंदी है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर। सरकार जब चाहे तब इंटरनेट की 'कान-कुच्ची' कर देती है। दुनिया में अभिव्यक्ति की सबसे बड़े कलियुगी तंत्र इंटरनेट की सबसे ज्यादा 'कान-कुच्ची' दुनिया में अगर कहीं होती है तो वो देश है हमारा प्यारा भारत देश। हम लोकनिंदा से भी नहीं डरते। दुनिया हमारी आलोचना करती है तो करती रहे। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम इस मामले में बनाये जाने वाले इंडेक्सों में लगातार नीचे गिरते जाते हैं किन्तु हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम निंदा प्रूफ राष्ट्र हैं।
सरकार और सरकारी पार्टी ने आगामी महीने में होने वाले पांच राज्यों के चुनावों में उतरने से पहले जो जिरह बख्तर पहना है उसके ऊपर पहले सनातन पर खतरे और जी-20 की कामयाबी के तमगे लगाए गए थे किन्तु उनकी हवा दो दिन में ही निकल गयी। हारकर सरकार और सरकारी पार्टी को महिला आरक्षण विधेयक की याद आयी और उसने इस विधेयक का नाम बदलकर नारी शक्ति वंदन विधेयक कर दिया। नए विधेयक को लाने के लिए नए संसद भवन में प्रवेश का इन्तजार किया। लेकिन केवल भवन बदलने से क्या सब कुछ बदल जाता है? नया भवन भी पुराने संसद भवन की तरह हंगामे में डूबा है बल्कि नए भवन में पुराने भवन से ज्यादा प्रतिध्वनियाँ [ईको] सुनाई दे रही हैं।
नए भवन में प्रवेश करते समय भी सरकार के साथ विपक्ष नहीं था। विपक्ष पीछे था, सबसे आगे अवतार पुरुष और उनकी भक्तमंडली थी। नए संसद भवन में प्रवेश के चित्र तब ज्यादा प्रभावी होते जब उसमें पहली पक्ति में पंतप्रधान के साथ कॉकस के बजाय विपक्ष के नेता और संसद के पीठासीन अधिकारी भी नज़र आते। बहरहाल, बात नारी शक्ति वंदन विधेयक की हो रही है। मैंने बीते रोज अपने आलेख में इस विधेयक के आने की सुगबुगाहट के बीच महिलाओं से मंगल गीत गाने का आह्वान किया था। अब मैं अपने आह्वान को वापस लेता हूँ क्योंकि इस विधेयक में नारियों के मंगल के लिए तत्काल कुछ नहीं है। उन्हें 'आकाश-कुसुम' दिखाए गए हैं। झांसा दिया गया है।
'हिप्टोनाइज' किया गया है। आँखों में धूल झोंकी गयी है। मजा तब आता जब सरकार और सरकारी पार्टी ईमानदारी का प्रदर्शन करती। सरकार और सरकारी पार्टी के पास ईमानदारी नाम की चीज है ही नहीं शायद। सरकार और सरकारी पार्टी का चरित्र ही सियासत के लिए आँखों में धूल झोंकने का है।
मोदी के चुनाव पर मैं कोई उंगली उठाने वाला नहीं हूँ क्योंकि उनके चुनाव के नेतृत्व में ही इस देश और दुनिया ने मणिपुर को जलते हुए देखा है। वहाँ आग आज भी सुलग रही है। धुआँ आज भी उठ रहा है। इस नेतृत्व में जम्मू -कश्मीर की जनता से वादा खिलाफी की गयी। आज चार साल बाद भी न जम्मू-कश्मीर को उसके राज्य की हैसियत मिली और न आतंक से मुक्ति। आज भी वहां सैनिकों को शहादतें देनी पड़ रही हैं। मुझे आशंका है कि संसद का विशेष सत्र कुछ विशेष किये बिना ही हंगामे की भेंट चढ़ेगा। अहमन्यता के बोझ से दबकर सिसकेगा। नए संसद भवन में इतिहास बनते-बनते बिगड़ जाएगा और एक नयी कड़वाहट के साथ इसका आगाज याद किया जाएगा।
(राकेश अचल के फेसबुक पेज से)
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