शरणार्थी शब्द अपने आपमें अपमानजक है और यह 'अ-नागरिक' होने का बोध कराता है। अ-नागरिक होना अपने आपमें अमानवीय यातना का शिकार होना भी है। पिछले वर्षों में जबसे वैश्विक स्तर पर कई टकराव सामने आए हैं, शरणार्थियों की समस्या एक बड़ा मुद्दा बन गई है। हमारी सामूहिक स्मृति में 2015 में यूनान के कोस द्वीप से कुछ किलोमीटर दूर तुर्की के तट पर मिले तीन साल के बच्चे आयलान कुर्दी के शव का मार्मिक दृश्य आज भी ताजा है। उसके पिता ने बेहद जोखिम उठाकर अपने परिवार को सीरिया के युद्धग्रस्त क्षेत्र से सुरक्षित निकालने की कोशिश की थी। इसके एवज में उन्होंने भारी कीमत भी चुकाई थी। सीरिया और इराक़ से यूरोप आने वाले शरणार्थियों के लिए कोस द्वीप यूनान का प्रवेश द्वार है। मगर भारत में लोकसभा चुनाव से ऐन पहले सीएए यानी नागरिकता संशोधन क़ानून लागू किया गया है, उसने मोदी सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। प्रताप भानू मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने ताजा आलेख में लिखा है- "इस कानून के लिए दिसंबर 2014 की सीमा क्यों रखी गई जबकि सरकार खुद कह रही है कि पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न जारी है।" सीएए जिस स्वरूप में लागू हुआ है, उसने तो गांधी, नेहरू और पटेल जैसे नेताओं के विवेक पर ही सवाल खड़ा कर दिया है, जिन्होंने विभाजन के बाद देश को अभूतपूर्व स्थिति से उबारा था।