कहा जा रहा है कि ये लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए करो या मरो जैसा है। बीते लोकसभा चुनावों के नतीजे इस धारणा को पुष्ट करते हैं। बावजूद इसके कि 2014 की 44 सीटों की तुलना में 2019 में कांग्रेस अपनी सीटों में मामूली बढ़ोतरी करते हुए 52 सांसदों को लोकसभा में भेजने में सफल हुई थी। दरअसल कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह अपने वोटों को दूसरे दलों की तुलना में सीटों में बदलने में सफल नही हो पा रही है। बेशक, पिछले कुछ चुनावों में उसके वोट प्रतिशत में कमी आई है। मगर दूसरे दलों की तुलना में उसके वोट आनुपातिक रूप से सीटों में नहीं बदलते।
शुरुआत 2019 से ही करें, तो उस चुनाव में केवल दो दल ही पांच फीसदी से अधिक मत हासिल कर सके थे। भाजपा ने 37.3 फीसदी मत हासिल किए थे और उसे 303 सीटें मिली थीं। कांग्रेस ने 19.46 फीसदी हासिल किए थे और उसे केवल 52 सीटें मिलीं। वोट प्रतिशत के मामले में तृणमूल कांग्रेस तीसरे नंबर पर थी और उसे केवल 4.06 फीसदी मत मिले थे, लेकिन वह 22 सीटें जीतने में सफल रही। उसके बाद बसपा थी, जिसे केवल 3.62 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन वह दस सीटें जीत गई। उसे उत्तर प्रदेश में सपा से गठबंधन का फायदा हुआ था। यह अलग बात है कि 2.55 फीसदी वोट के साथ वोट प्रतिशत के लिहाज से पांचवें नंबर पर रही सपा पांच सीट ही जीत सकी।
एक या दो राज्यों में केंद्रित छोटे दलों की स्थिति इस लिहाज से बेहतर रही है। मसलन, वाईएसआर कांग्रेस, द्रमुक या बीजू जनता दल को देखें, तो इन दलों को क्रमशः 2.53, 2.34 और 1.68 फीसदी ही वोट मिले, लेकिन उनकी सीटें क्रमशः 22, 24 और 12 थीं। जनता दल (यू) को 1.45 फीसदी वोट मिले थे और उसने भाजपा के साथ गठबंधन में रहते हुए 16 सीटें जीती थीं। इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना एनडीए का हिस्सा थी और उसे 2.09 फीसदी वोट और 18 सीटें मिली थीं। लोकजनशक्ति पार्टी को भी एनडीए में रहने का फायदा हुआ था और वह केवल 0.6 फीसदी वोट के साथ छह सीटें जीत गई। दूसरी ओर राजद 1.08 फीसदी वोट हासिल कर एक भी सीट नहीं जीत सकी।
यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस किसी भी दूसरे दल की तुलना में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ती है, लिहाजा उसका वोट प्रतिशत और सीटों में वैसा संतुलन नहीं दिखता जैसा कि दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों में नजर आता है। लेकिन भाजपा से तुलना करके देखें, तो गणित कुछ और ही नज़र आता है। और अब तो दोनों ही दलों में चुनाव लड़ने वाली सीटों में भी खास अंतर नहीं रहा है।
थोड़ा और पहले के चुनावों को देखें, तो कांग्रेस और भाजपा की यह तुलना और भी दिलचस्प है। 1999 में एनडीए की अगुआई करते हुए भाजपा ने केवल 339 सीटों पर चुनाव लड़ा और महज 23.75 फीसदी मतों के साथ वह 182 सीटें जीत गई। वहीं 453 सीटों पर चुनाव लड़कर कांग्रेस भाजपा से करीब पांच फीसदी अधिक यानी 28.3 फीसदी वोट हासिल करने के बावजूद केवल 114 सीटें ही जीत सकी।
कांग्रेस का रिकॉर्ड इस मामले में अपनी सहयोगी कम्युनिस्ट पार्टियों से भी खराब़ है। 1999 के चुनाव में माकपा ने लड़ी गई 72 सीटों में से 33 जीतीं, जबकि उसे केवल 5.4 फीसदी वोट मिले थे। 2004 में माकपा ने अपना प्रदर्शन और बेहतर करते हुए लड़ी गई 69 सीटों में से 43 सीटें जीतीं और उसे पिछली बार की तुलना में थोड़े से अधिक कुल 5.6 फीसदी वोट मिले थे।
अपने वोट को सीटों में बदलने का एक अद्भुत रिकॉर्ड स्वतंत्र पार्टी के नाम है, जो अब इतिहास के पन्नों में दफन है। राजा-महाराजाओं की मदद से सी राजागोपालाचारी ने 1959 में इस पार्टी का गठन किया था। 1967 में अपने दूसरे ही लोकसभा चुनाव में इस पार्टी ने 178 सीटें लड़कर 44 सीटें जीत ली थीं, जबकि उसे केवल 8.67 फीसदी वोट ही मिले थे। भाजपा की पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ ने स्वतंत्र पार्टी के साथ चुनाव लड़ा था और वह 9.31 फीसदी वोट के साथ 35 सीटें जीतने में सफल हुई।
यह पता नहीं कि कांग्रेस के भीतर इस पर मंथन हुआ या नहीं कि आखिर वह अपने वोट को (चाहे वह जो भी हो) आनुपातिक रूप से सीटों में क्यों नहीं बदल पा रही है। बीते दो चुनावों में उसे क्रमशः 19.52 फीसदी और 19. 46 फीसदी मत मिले हैं। दोनों चुनावों में मिली उसकी सीटों का योग सौ भी नहीं है!
दरअसल कांग्रेस को उन्हीं सीटों पर विशेष रणनीति से काम करने की जरूरत है, जहां भाजपा से उसका सीधा मुकाबला है। वह चाहे, तो ऐसी सौ सीटों की शिनाख्त कर सकती है, जहां वह भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में है। इन सीटों के लिए उसे अधिक जोर लगाने की जरूरत है। कांग्रेस जब तक अपने वोट को सीटों में नहीं बदलती, उसकी आगे की राह कठिन बनी रहेगी।
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