loader

‘संविधान सुरक्षा दिवस ’, क्यों नहीं?

भाजपा की अगुआई वाली एनडीए सरकार ने आपातकाल की याद में हर साल 25 जून को "संविधान हत्या दिवस" के रूप में मनाने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को सत्ता में एक दशक तक रहने के बाद यह खयाल क्यों आया? इसका तात्कालिक जवाब चार जून को आए लोकसभा चुनाव के नतीजे में ढूंढा जा सकता है, जिसमें भाजपा अपने दम पर बहुमत से 33 सीटें कम रह गई। इस चुनाव में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने संविधान पर संभावित हमले को मुद्दा बनाया था।और अब वह संसद के भीतर और बाहर मोदी सरकार पर इसे लेकर हमलावर है। जाहिर है, "संविधान हत्या दिवस" की घोषणा एक नया राजनीतिक नरैटिव खड़ा करने की कोशिश है। शायद उससे अधिक।
आगे बढ़ने से पहले एक सवाल और। क्या राहुल गांधी की जगह कोई और विपक्ष का नेता होता, तब भी मोदी सरकार यानी एनडीए सरकार यह घोषणा करती? इस सवाल को अभी ऐसे ही रहने देते हैं। यह फैसला चाहे जो कुछ भी हो, यह मोदी सरकार की सर्वसम्मति के बजाए मनमाने तरीके से संसद चलाने की मंशा को और पुष्ट करता है, जिसकी झलक देश ने संसद के पहले सत्र में देखी है।  
ताजा ख़बरें
गौर करें, आपातकाल के साये में 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हराकर सत्ता में आई जनता पार्टी तक ने "संविधान हत्या दिवस" जैसे किसी राजनीतिक शिगूफे के बारे में नहीं सोचा था।
वास्तविकता यह है कि 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने एक साल से लंबित लोकसभा चुनाव कराए जाने का फैसला किया, तो उससे जेल में बंद और जेल से रिहा किए जा चुके विपक्ष के नेताओं को हैरत हुई थी। इसके बावजूद कई ऐसे नेता थे, जिन्होंने इंदिरा के लोकतांत्रिक रास्ते की ओर बढ़ने को नेहरू की विरासत से जोड़ कर देखा था। इंदिरा ने चुनाव कराने का ऐलान रेडियो प्रसारण में किया था। इंदिरा के घनघोर विरोधी समाजवादी नेता मधु लिमये तब जेल में थे। यह सूचना जब उन तक पहुंची, तो उनकी प्रतिक्रिया थीः "इसमें तर्क, खुद को जायज ठहराने की कोशिश यह सब कुछ दिखा, लेकिन सबसे ऊपर इसमें उदार न सही, लोकप्रिय लोकतंत्र की सर्वोच्चता के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान भी नज़र आया और वैधता हासिल करने की चाहत भी। चाहे कुछ भी हो, इंदिरा गांधी कभी भूल नहीं सकती थीं कि वह जवाहरलाल नेहरू की बेटी हैं और हमारी ही तरह महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए स्वतंत्रता संग्राम से निकली हैं।" (janta Party, Experiment-An Insider’s Account of Opposition Politics, 1975-1977, Volume-1, pp 211-12)
इंदिरा ने आपातकाल की घोषणा किन हालात में की थी और कैसे उनके बेटे संजय गांधी संविधानेतर सत्ता केंद्र बन गए थे, इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। फिर भी, उस दौर के तीन घटनाक्रम पर गौर किया जाना चाहिएः
पहला, 12 जून, 1975 को आया इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला जिसमें इंदिरा गांधी के 1971 के रायबरेली से निर्वाचन को जस्टिस सिन्हा ने निरस्त कर दिया था। जस्टिस सिन्हा के फैसले के दो बड़े आधार थे, पहला, प्रधानमंत्री सचिवालय में पदस्थ यशपाल कपूर अपने इस्तीफे की औपचारिक मंजूरी से पहले से इंदिरा के चुनाव का काम संभाल रहे थे और दूसरा, इंदिरा के प्रचार में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया गया। इस पर लंदन के अखबार द गार्डियन की टिप्पणी थी, कि यह ऐसा है, जैसे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को ट्रैफिक उल्लंघन के कारण पद से हटा दिया जाए! 
दूसरा, 25 जून, 1975 को जेपी की दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई विपक्ष की रैली, जिसमें लोकनायक ने पुलिस और सशस्त्र बलों से अपनी अपील दोहराई कि वे गैरकानूनी और असंवैधानिक आदेशों का पालन न करें। दरअसल 1973 में पहले गुजरात और उसके बाद 1974 में बिहार में भड़के छात्र आंदोलन ने 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की अगुआई में कांग्रेस की भारी जीत के बाद से बेजान पड़े विपक्ष में नई जान डाल दी थी। इस आंदोलन को जेपी का नेतृत्व मिला था।
तीसरा, 12 जून को आया गुजरात विधानसभा चुनाव का नतीजा, जिसमें कांग्रेस हार गई। मगर दिलचस्प यह है कि बाबू भाई पटेल की अगुआई में जनता मोर्चा की सरकार उन्हीं चिमन भाई पटेल के किसान मजदूर लोकपक्ष के समर्थन से बन पाई थी, जिनके खिलाफ गुजरात का छात्र आंदोलन खड़ा हुआ था। दरअसल मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद चिमन भाई पटेल ने कांग्रेस छोड़कर अपना दल बना लिया था।
आपातकाल लगाए जाने के तुरंत बाद रातोंरात जेपी सहित बड़े विपक्षी नेताओं को मेंटनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट यानी मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया था। आपातकाल हमारे लोकतंत्र का काला अध्याय है, इससे कौन इनकार कर सकता है। लेकिन कुछ तथ्यों पर गौर किया जाना चाहिए। एक तो यह कि अप्रैल, 1976 में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. कर्णसिंह ने नई जनसंख्या नीति पेश की। संजय गांधी ने फौरन इसे अपने पांच सूत्री कार्यक्रम में जोड़ दिया था और उसके बाद जबरिया नसंबदी का दौर शुरू हो गया। उत्तर और पश्चिम भारत में कांग्रेस की पराजय की एक बड़ी वजह जबरिया नसबंदी थी। लेकिन हैरत की बात यह है कि भाजपा और आरएसएस आपातकाल को तो याद करते हैं, लेकिन जबरिया नसंबदी का आख्यान अक्सर भूल जाते हैं, जिसके किरदार संजय गांधी थे!
जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद अनेक नेता इंदिरा और संजय गांधी को आपातकाल की ज्यादतियों के लिए जेल में डालना चाहते थे, जिनमें चरण सिंह प्रमुख थे। जनता पार्टी की सरकार ने आपातकाल की ज्यादतियों को लेकर बकायदा जस्टिस जे सी शाह की अगुआई में एक आयोग का ही गठन कर दिया था। शाह कमीशन ने इंदिरा को भी तलब किया था। मजेदार यह है कि महज डेढ़ साल बाद मोरारजी देसाई की सरकार के गिरने के बाद चरण सिंह इंदिरा के समर्थन से ही प्रधानमंत्री बने थे। जाहिर है, यह सब आपातकाल की कटुता को दरकिनार कर किया गया होगा। इस उपक्रम में चरण सिंह के खास सहयोगी थे राजनारायण जिन्होंने इंदिरा को 1971 के चुनाव को चुनौती दी थी और 1977 में उन्हें पराजित किया था।
बेशक नरेंद्र मोदी भी आपातकाल के दौरान जेल में थे, लेकिन वह तब कोई प्रमुख नेता नहीं थे। वास्तव में नीतीश कुमार और दिवंगत सुशील मोदी बिहार के छात्र आंदोलन में लालू प्रसाद यादव के साथ थे।
लालकृष्ण आडवाणी आपातकाल को लेकर कांग्रेस पर हमलावर रहे हैं। जॉर्ज फर्नांडीज ने तो जेल के भीतर से ही मुजफ्फरपुर से चुनाव जीता था। अटल बिहारी वाजपेयी भी जेल में थे, लेकिन उनका खासा वक्त एम्स में बीता था। इसके बावजूद अटल, आडवाणी और जॉर्ज की एनडीए सरकार ने "संविधान हत्या दिवस" मनाने जैसा प्रतिगामी कदम नहीं उठाया।
और यह जानने के लिए आप गूगल कर सकते हैं कि किस तरह से आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख एम.डी. (बालासाहब) देवरस ने यरवदा सेंट्रल जेल से इंदिरा गांधी को कई पत्र लिखे, जिनमें से एक पत्र में उन्होंने गुजरात और बिहार के छात्र आंदोलनों में आरएसएस की भूमिका से ही इनकार कर दिया था! तो एक पत्र में उन्होंने 10 नवंबर, 1975 के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को लेकर इंदिरा गांधी को बधाई तक दी, जिसमें 1971 के उनके निर्वाचन को वैध ठहराया गया।(संदर्भः मधुकर दत्तात्रेय देवरस, हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति)
विश्लेषण से और खबरें
आपातकाल जैसे कदम की किसी भी परिपक्व और उदार लोकतंत्र में जगह नहीं हो सकती। खुद इंदिरा गांधी ने आपातकाल को लेकर 1978 में ही माफी मांग ली थी। आपातकाल को किसी रूप में याद किया जा सकता है या उससे कोई सबक लिया जा सकता है, तो यही कि  देश के आम नागरिकों के सांविधानिक अधिकार अक्षुण्ण रहें। महात्मा गांधी के देश में "संविधान हत्या दिवस" की नहीं," संविधान सुरक्षा दिवस" की जरूरत है। सरकार ने इस घोषणा के जरिये साफ कर दिया है कि संसद में विपक्ष खासतौर से कांग्रेस के साथ सहमति बनाने की उसे कोई फिक्र नहीं है। लेकिन यह 2014 या 2019 नहीं है, जब भाजपा के पास अपने दम पर बहुमत था। सहमति के बिना प्रधानमंत्री मोदी के लिए संसद में आगे की राह और मुश्किल होने वाली है। 
(सुदीप ठाकुर 1970 के दशक पर केंद्रित किताब दस साल, जिनसे देश की सियासत बदल गई के लेखक हैं)
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
सुदीप ठाकुर
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विश्लेषण से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें