कभी-कभी राजनीतिक प्रतिष्ठान अच्छे प्रस्ताव भी देते हैं। संसद की स्थायी समिति का प्रस्ताव है कि महिलाओं को माहवारी के दिनों में छुट्टियाँ मिलें। उन्हें उनकी मेडिकल छुट्टियों का हिस्सा न माना जाए। इसके लिए उन्हें कोई मेडिकल सर्टिफिकेट न देना पड़े।
अगर इस प्रस्ताव पर सरकार की मुहर लगी तो यह बात नौकरी-पेशा महिलाओं के लिए एक बड़ी क्रांति से कम नहीं होगी। इसके पहले छह महीने का मातृत्व अवकाश भी इसी क्रांति का पूर्व चरण था। दरअसल, ऐसे प्रस्ताव महिलाओं को बस सुविधा नहीं देते, बल्कि उनके जैविक अधिकार के प्रति उस संवेदनशीलता की ज़रूरत को रेखांकित करते हैं जिसमें हम इसे सहज रूप से स्वीकार कर सकें।
लेकिन क्रांतियों के बारे में एक बात कही जाती है कि वे सबसे पहले अपने बच्चों को खा जाती हैं। इस क्रांति के भी अपने ख़तरे हैं। नौकरी-पेशा महिलाओं की दुनिया पहले भी पुरुष पूर्वग्रहों से आक्रांत और पीड़ित रही है। उनके बारे में तरह-तरह की धारणाएँ प्रचलित की जाती रही हैं। उन्हें ठीक से काम नहीं आता, उनका ध्यान अपने घर पर ज़्यादा रहता है, वे सज-सँवर कर दफ़्तर आती हैं, उनकी वजह से सहकर्मियों को मुश्किल होती है, वे बॉस को रिझा कर तरक्की हासिल करती हैं। कुछ समय पहले अपने महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने का विरोध कर रहे हमारे सैन्य प्रतिष्ठान के वकीलों को ऐसे ही तर्कों पर अदालत की फटकार झेलनी पड़ी थी।
हालाँकि जैसे-जैसे महिलाओं की संख्या कार्यस्थलों में बढ़ रही है, वैसे वैसे इन धारणाओं के परकोटे दरक भी रहे हैं। वे लगातार साबित कर रही हैं कि योग्यता और योगदान में वह अपने पुरुष सहकर्मियों से कहीं पीछे नहीं हैं, बल्कि वे अपने दायित्वों को कहीं ज़्यादा संजीदगी से लेती हैं और उन्हें समय पर पूरा करने की कोशिश करती हैं।
जाहिर है, ऐसे किसी कुतर्क से डर कर यह प्रगतिशील क़दम नहीं रोका जा सकता। लेकिन ज़रूरत वह मानसिकता बदलने की है जो स्त्री उत्पादकता को भी बिल्कुल तत्कालिक कसौटियों पर देखती है।
हालाँकि यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट और प्रमाणित हो चुकी है कि देशों की अर्थव्यवस्था और समाजों की खुशहाली में महिलाओं की अदृश्य उत्पादकता की भूमिका बहुत बड़ी होती है। अगर उनके काम की गणना जीडीपी में की जाए तो हम पाएंगे कि हमारी जीडीपी कई प्रतिशत बढ़ी हुई है। नौकरी देने वाले संस्थानों और निजी कंपनियों को भी इस अदृश्य उत्पादकता का ध्यान रखना चाहिए- महज इस तर्क से नहीं कि संतानोत्पत्ति या बच्चों के लालन-पालन में महिलाओं की केंद्रीय भूमिका होती है और इसी के बूते समाज चलता है इसलिए हमें उनका खयाल रखना चाहिए, बल्कि इस समझदारी से भी कि किसी कंपनी में महिला कामगारों की बड़ी तादाद लंबे समय में कई स्तरों पर कंपनी की उत्पादकता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाती है। आप उन्हें दफ्तरों से बाहर रखेंगे, तो वे समाज से भी बाहर होती जाएंगी और ऐसी कई भूमिकाओं से कटती चली जाएंगी जो आज के आधुनिक समय में वे सहज भाव से निभाती हैं और जिसकी वजह से उनके जीवनसाथी भी निश्चिंत और संतुष्ट रहते हैं। यानी उनका होना दफ़्तर और समाज दोनों के पर्यावरण को बेहतर और स्वास्थ्यप्रद बनाता है।
हालाँकि फिर दुहराना होगा कि एक घोर स्त्रीविरोधी माहौल में यह समझ आसानी से नहीं आएगी। अभी तो सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की लड़ाई बिल्कुल प्राथमिक स्तर पर ही जारी है- वे सुरक्षित महसूस करें, उन्हें सम्मान से देखा जाए, उनकी निजता का सम्मान किया जाए, उन्हें काम के बराबरी के मौक़े दिए जाएँ आदि-आदि। यह वह मोर्चा है जिस पर स्त्रियों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील माने जाने वाले पुरुष भी कमज़ोर पड़ते देखे गए हैं।
धीरे-धीरे माहौल कुछ बदला है, धीरे-धीरे वे अपनी भूलों से भी सीख रहे हैं। पुरुष वर्चस्व के बहुत सारे दुर्ग टूटे हैं। पहले जिन क्षेत्रों में महिलाओं का जाना निषिद्ध माना जाता था, वहाँ वे दिखाई पड़ने लगी हैं। उनसे निरंतर संवाद करके पुरुष भी बदल रहा है।
अगर संसदीय समिति के प्रस्ताव लागू हो पाता है तो यह महिलाओं को ही कुछ सुविधा भर नहीं देगा, बल्कि पुरुषों को भी देर-सबेर संवेदनशील बनाएगा। बहरहाल, पहली लड़ाई इसी बात की होगी कि महिलाएँ कार्यस्थलों से बाहर न की जाने लगें। उनकी नियुक्ति के अवसर बढ़ें, उनकी छुट्टी को भी सम्मान से देखा जाए। अभी संभवतः यह कुछ दूर का सपना है लेकिन ऐसा सपना है जो पूरा होगा तो समाज ज़्यादा स्वस्थ होगा और उत्पादक भी।
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