भाषा के कई कौतुक होते हैं।

हमें यह याद रखना चाहिए कि भारत में 22 से अधिक सूचित भाषाएँ हैं और उससे अधिक बोलियाँ हैं, जिन सबका अपना लोकतांत्रिक वजूद भी है। हमारा लिखित संविधान भी इसकी पूरी आज़ादी देकर हमें मज़बूत बनाता है। इसे हम कैसे बिसरा सकते हैं? यह देश हमें बहुत सारे संघर्षों के बाद मिला है, इसकी अनेकता में एकता के भाव को हम कुछ सिरफिरे तर्कों की वजह से कैसे नष्ट होने दे सकते हैं?
अभी हाल ही के दिनों में, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत के विद्वान श्री फ़िरोज़ ख़ान के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान प्रभाग में हुई नियुक्ति को लेकर कुछ हिंदूवादी संगठनों ने काफ़ी हंगामा खड़ा किया। उनकी नियुक्ति के ख़िलाफ़ धरना-प्रदर्शन किया गया और नियमों के ख़िलाफ़ अत्यधिक दबाव में आकर विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी नियुक्ति दूसरे विभाग में कर दी। ग़ौरतलब है कि फ़िरोज़ ख़ान की बोलचाल की भाषा आंचलिक अवधी/हिंदी/उर्दू की मिली-जुली भाषा है, उनकी शिक्षा-दीक्षा संस्कृत में हुई, लेकिन चूँकि उनका धर्म इसलाम है, रुढ़िवादी, कट्टर धार्मिक सोच के पिछड़े लोगों ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने के योग्य नहीं माना, जबकि वे उस पद के आवेदनकर्ताओं में श्रेष्ठ योग्यता प्राप्त थे।
कहना नहीं होगा कि यह अत्यंत दुखद है।
ख़ासतौर से उस देश में जहाँ सदियों से भाषा निहायत खुले ढंग से पुष्पित पल्लवित हुई। उसे कभी धर्म और जातियों में बाँट कर नहीं देखा गया।