पत्रकारिता के एक ऐसे अंधकार भरे कालखंड जिसमें एक बड़ी संख्या में अख़बार मालिकों की किडनियाँ हुकूमतों द्वारा विज्ञापनों की एवज़ में निकाल लीं गईं हों ,कई सम्पादकों की रीढ़ की हड्डियाँ अपनी जगहों से खिसक चुकीं हों, अपने को उनका शिष्य या शागिर्द बताने का दम भरने वाले कई पत्रकार भयातुर होकर सत्ता की चाकरी के काम में जुट चुके हों, राजेन्द्र माथुर अगर आज हमारे बीच होते तो किस समाचार पत्र के सम्पादक होते, किसके लिए लिख रहे होते और कौन उन्हें छापने का साहस कर रहा होता ? भारतीय पत्रकारिता के इस यशस्वी सम्पादक-पत्रकार की आज (नौ अप्रैल) पुण्यतिथि है।
इस समय राजेंद्र माथुर को याद करना ज़रूरी है
- विचार
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- 9 Apr, 2022

क्या इस बात पर आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि इस समय जब छोटी-छोटी जगहों पर साधनहीन पत्रकारों को उनकी साहसपूर्ण पत्रकारिता के लिए असहिष्णु सत्ताओं द्वारा जेलों में डाला जा रहा है, थानों पर कपड़े उतरवाकर उन्हें नंगा किया जा रहा है, 1975 में आपातकाल के ख़िलाफ़ लगातार लिखते रहने वाले राजेंद्र माथुर को इंदिरा गांधी की हुकूमत ने क्यों नहीं सताया, जेल में बंद क्यों नहीं किया?
पत्रकारिता जिस दौर से आज गुज़र रही है उसमें राजेंद्र माथुर का स्मरण करना भी साहस का काम माना जा सकता है।
ऐसा इसलिए कि नौ अप्रैल 1991 के दिन वे तमाम लोग जो दिल्ली में स्वास्थ्य विहार स्थित उनके निवास स्थान पर सैंकड़ों की संख्या में जमा हुए थे उनमें से अधिकांश पिछले तीस वर्षों के दौरान या तो हमारे बीच से अनुपस्थित हो चुके हैं या उनमें से कई ने राजेंद्र माथुर के शारीरिक चोला त्यागने के बाद अपनी पत्रकारिता के चोले और झोले बदल लिए हैं।