क्या आप बता सकते हैं कि दीपिका पादुकोण और सोनम कपूर में क्या कॉमन है? जी, दोनों फ़िल्म स्टार हैं, यह बात तो हर कोई जानता है लेकिन अहम बात यह है कि दोनों ने छात्र आंदोलन से जुड़ी फ़िल्मों में काम किया है और उससे भी खास बात यह कि दीपिका पादुकोण तो अपनी फ़िल्म “छपाक” के रिलीज होने के वक्त जेएनयू पहुंची थीं लेकिन सोनम कपूर की फ़िल्म “रांझणा” की कहानी में तो वह जेएनयू की स्टूडेंट ही होती हैं, हीरो अभय देओल के साथ। दीपिका ने प्रकाश झा की फ़िल्म “आरक्षण” में भी अहम किरदार निभाया था। ऐसी ही एक फ़िल्म आई थी आमिर ख़ान की “रंग दे बसंती”, जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र आज़ादी के वक्त के आंदोलनकारियों की भूमिका में थे और तख़्तापलट कर रहे थे।
छात्र आंदोलनों और उससे जुड़ी फ़िल्मों का ज़िक्र यहां पर इसलिए किया गया है क्योंकि सिनेमा को समाज का आईना माना जाता है। यानी सोसायटी जिसे महत्वपूर्ण मानती है, हमारे फ़िल्म निर्माता उस पर ही काम करते हैं। छात्र आंदोलनों से जुड़ी बहुत सी फ़िल्में हैं लेकिन सवाल यह है कि जो बात बॉलीवुड के प्रोड्यूसर को समझ आती है क्या उसका अहसास हमारे पॉलिटिकल लीडर्स को नहीं होता। फ़िल्में ना भी देखी हों तो इतिहास तो सब जानते हैं कि आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद ज़्यादातर बार सत्ता परिवर्तन में छात्र आंदोलनों की भूमिका रही है। शायद ही कोई ऐसा बड़ा आंदोलन रहा होगा जो बिना छात्रों के कामयाब हुआ होगा।
महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन में भी छात्रों और युवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी और युवाओं ने अपने कॉलेज और नौकरियों को छोड़कर आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। एक अहम बात और है कि देश की मौजूदा लीडरशिप में किसी भी राजनीतिक दल के ज़्यादातर नेता छात्र आंदोलनों की उपज रहे हैं। इनमें बहुत से नाम हैं जो गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन से या फिर जयप्रकाश नारायण की ‘संपूर्ण क्रांति’ के आंदोलन से निकले हैं।
देश के ज़्यादातर राजनीतिक दलों के अपने छात्र संगठन भी हैं लेकिन हैरानी है कि वे भी अपने राजनीतिक आकाओं की वजह से चुप्पी साधे बैठे हैं जबकि छात्रों को राजनीति से दूर रहकर मुद्दों पर लड़ाई के लिए मैदान में आना चाहिए और वे आते भी हैं। इस बार भी जेएनयू और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों के समर्थन में देश भर में अलग-अलग कॉलेजों के छात्र सड़क पर उतर आए और कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो ज़्यादातर जगहों पर कोई हिंसा की बड़ी घटना नहीं हुई।
आमतौर पर यह देखा गया है कि छात्र आंदोलनों की आड़ में कई राजनीतिक दल या फिर असामाजिक तत्व हिंसा फैलाने लगते हैं और उससे छात्र आंदोलन बदनाम होता है, फिर भी उसकी ताक़त को कमतर समझना हमेशा ही नुक़सान का सौदा रहा है।
समाज निर्माण और राष्ट्रभक्ति के लिए जब डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शुरुआत की तो उनकी नज़र युवाओं पर थी। डॉ. हेडगेवार उस युवाशक्ति की ताकत को पहचानते थे। फिर नागपुर और महाराष्ट्र से बाहर जब संघ के विस्तार की बात आई तो डॉ. हेडगेवार की पहली नज़र पड़ी काशी पर यानी वाराणसी और वहां वह सबसे पहले गए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से ही निकले माधव सदाशिव गोलवलकर, संघ के दूसरे सरसंघचालक, जिन्होंने संघ के स्वरूप और विस्तार का काम किया था। संघ के चौथे सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह भी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से थे।
सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने अपने सीनियर लीडर प्रभाकर बलवंत दाणी उर्फ भैयाजी दाणी की अगुवाई में एक टोली को शाखा खोलने के लिए काशी भेजा। उनके साथ तात्या तैलंग, बाबू तैलंग, तात्या लोखंडे, अण्णा पांढरीपांडे और अप्पा गुंडे जैसे वरिष्ठ स्वयंसेवक वहां गए। उन्हें वहां पढ़ाई के साथ-साथ विश्वविद्यालय में शाखा खोलने की जिम्मेदारी भी दी गई। खुद डॉ. हेडगेवार 11 मार्च, 1931 से 1 अप्रैल तक काशी रुके और बाबाराव सावरकर के संपर्क से ब्रह्माघाट के धनधानेश्वर मंदिर में पहली शाखा शुरू की गई।
जुलाई में विश्वविद्यालय में शाखा शुरू हई। इसी साल माधव सदाशिव गोलवलकर की यहां अध्यापक के तौर नियुक्ति हुई थी। गोलवलकर भी नागपुर से थे। भैयाजी दाणी ने गोलवलकर से संपर्क किया और उनके दोस्त बन गए। लेकिन गोलवलकर की रुचि तब शाखा में नहीं थी और वह हॉकी और टेनिस खेला करते थे। धीरे-धीरे गोलवलकर भी कभी-कभार शाखा में जाने लगे। फिर वह “गुरुजी” नाम से प्रसिद्ध हुए और शाखा में सक्रिय रूप से शामिल हो गए।
ख़ुद डॉ. हेडगेवार भी कलकत्ता में जब मेडिकल की पढ़ाई करने गए तो वह अनुशीलन समिति के सदस्य बने और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। यही नहीं संघ परिवार में सबसे पहला संगठन 1949 में बना जिसका नाम था - अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद। विद्यार्थी परिषद हालांकि राजनीतिक संगठन नहीं था और ना ही वह कभी जनसंघ के छात्र मोर्चा के तौर पर काम कर रहा था। लेकिन यह भ्रम उस वक्त टूट गया जब 1967 में विधानसभा चुनावों के बाद जनसंघ कई राज्यों में मिली-जुली सरकार में शामिल हो गया और कई मुद्दों पर विद्यार्थी परिषद ने उन सरकारों का विरोध किया।
गुजरात का छात्र आंदोलन
उसी दौरान विद्यार्थी परिषद ने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं को पढ़ाई और इम्तिहान का माध्यम बनाने के लिए आंदोलन चलाया था। गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में भी विद्यार्थी परिषद ने अहम भूमिका निभाई थी। इस बात को अब 46 साल से ज़्यादा हो गए होंगे। जब 1973 में दिसंबर के महीने में गुजरात के मोरबी में एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों को यह पता चला कि उनके हॉस्टल में मैस की फ़ीस को 20 फीसद बढ़ा दिया गया है तो वे भड़क उठे। शुरुआती दिनों में तो यह विरोध कॉलेज कैंपस तक रहा लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन के आंदोलन को नज़रअंदाज़ करने पर छात्र सड़कों पर उतर आए। उस दौरान महंगाई से परेशान जनता भी उनके साथ जुड़ गई। जबकि काफी समय से जनता पहले से ही गुजरात में कांग्रेस की सरकार से परेशान थी। देखते ही देखते आंदोलन पूरे गुजरात में फैल गया और उसे कई राजनीतिक दलों का समर्थन मिल गया। आंदोलन के समर्थन में बिहार से जयप्रकाश नारायण भी आ गए। विपक्षी विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफ़े दे दिए। प्रदेश भर में प्रदर्शन होने लगे। आंदोलन दिल्ली तक पहुंच गया। संसद का घेराव हुआ और प्रदर्शनकारियों को तिहाड़ जेल भेज दिया गया।
गुजरात में 73 दिन तक आंदोलन चला। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने चिमनभाई पटेल की सरकार को आखिरकार बर्खास्त कर दिया। विधानसभा निलंबित हो गई और जब नए चुनाव हुए तो जनता मोर्चा की सरकार बनी। इस आंदोलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी सक्रिय भूमिका निभाई थी। इसके बाद 1975 में मोदी लोक संघर्ष समिति के महासचिव बन गए।
बिहार का छात्र आंदोलन
गुजरात का आंदोलन ख़त्म भी नहीं हुआ था कि बिहार में अब्दुल गफूर की सरकार के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और हॉस्टल की फीस बढ़ाने के विरोध में छात्र आंदोलन शुरू हो गया। पटना से शुरू हुआ यह आंदोलन तेजी से पूरे बिहार में फैल गया। छात्रों ने जेपी से इस आंदोलन का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। जेपी मान गए लेकिन एक शर्त रखी कि आंदोलन अहिंसक रहेगा।ऐसे में मुझे महात्मा गाँधी याद आते हैं जो बार-बार अहिंसक आंदोलन की बात करते हैं और आंदोलन में हिंसा होने पर आंदोलन को मुल्तवी भी करने की हिम्मत रखते हैं। लगता है कि दिल्ली और कुछ दूसरे इलाक़ों में हाल में हुए आंदोलन में छात्रों ने इसका ऐहतियात नहीं बरता, जिस वजह से कुछ लोगों ने उनसे दूर रहना ही बेहतर समझा तो कुछ लोगों ने आंदोलन को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
18 मई, 1974 को पटना के गाँधी मैदान में जेपी आंदोलन की नींव पड़ गई थी। छात्रों और युवाओं के इस आंदोलन को देश भर में फैलने में देर नहीं लगी। जेपी ने छात्रों से अपील की कि “गाँधी ने लोगों से उनका जीवन माँगा था, मैं सिर्फ़ एक साल माँग रहा हूं। छात्र एक साल के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालयों को बंद रखें।”
संघ के स्वयंसेवक भी जुड़े आंदोलन से
जेपी की अपील का एक हद तक असर दिखाई दिया। दिल्ली को इसकी तपन महसूस होने लगी थी। संघ के प्रचारक गोविन्दाचार्य ने जब बिहार में हुए आंदोलन में हिस्सा लिया तो संघ के कुछ नेताओं ने नाराजगी ज़ाहिर की और उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग हुई लेकिन तब के सरसंघचालक ने ना केवल उन्हें इजाजत दे दी, बल्कि संघ के स्वयंसेवकों को भी इस आंदोलन से जोड़ दिया। नतीजा सबके सामने था। इमरजेंसी लग गई, लेकिन जब 1977 में यह हटी तो खुद को सबसे ताक़तवर और लोकप्रिय मानने वाली इंदिरा गाँधी की सरकार और कांग्रेस का कहीं अता-पता नहीं था।
मंडल आयोग की रिपोर्ट का विरोध
बोफ़ोर्स आंदोलन की राजनीतिक आंधी से चुन कर आए विश्वनाथ प्रताप सिंह को छात्र आंदोलन का बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा। 1990 में कमंडल की राजनीति और ताऊ देवीलाल को पटखनी देने के लिए जब वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का एलान किया तो सवर्ण वर्ग के छात्रों ने इसके ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन भी देश भर में फैल गया। सब जानते ही हैं कि वी.पी. सिंह सरकार का क्या हुआ, यदि बीजेपी आडवाणी की गिरफ्तारी के बहाने से समर्थन वापस नहीं लेती, तब भी मंडल विरोधी आंदोलन से वी.पी. सिंह की सरकार बच नहीं सकती थी।
2011 का अन्ना आंदोलन और जंतर-मंतर पर युवाओं और छात्रों के तिरंगा फहराते, गीत गाते, नारे लगाने की तसवीरें अभी तक दिमाग में बसी हुईं हैं। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ हुए आंदोलन ने तब भी सरकार को बदल दिया था।
यह सच है कि सभी आंदोलन विवेकपूर्ण और शांति से चलने वाले नहीं होते, कई ऐसे तत्व उसमें जुड़ जाते हैं जो आंदोलन को नुकसान पहुंचाते हैं लेकिन छात्र आंदोलन के लोगों को “संपूर्ण क्रांति” के उन नारों को याद रखना चाहिए जिनमें कहा गया था - ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा, लाठी-गोली सेंट्रल जेल, जालिमों का अंतिम खेल, दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे, कितनी ऊंची जेल तुम्हारी, देखी है और देखेंगे।’
जेपी की “संपूर्ण क्रांति” गाँधी की “समग्र क्रांति” है। जेपी ने 5 जून 1974 को अपने भाषण में कहा था - ‘‘यह क्रांति है मित्रों! विधानसभा का विघटन मात्र इसका उद्देश्य नहीं है। यह तो महज मील का पत्थर है। हमारी मंज़िल तो बहुत दूर है और हमें अभी बहुत दूर तक जाना है। यह संदेश हमेशा और हर आंदोलनकारी के लिए महत्वपूर्ण है।’’ आख़िरी बात मुझे याद आती है कि प्रसिद्ध चिंतक आचार्य नरेन्द्र देव ने लिखा था कि जब कोई राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त कर लेता है तो सबसे पहले वह उन संघर्षशील तत्वों को समाप्त करने की कोशिश करता है जिन्होंने सत्ता हासिल करने में उसकी सहायता की हो।
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