कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय
जीत
कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय
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गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
हार
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की 114वी जयंती (28 सितंबर) पर कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी 136 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी में औपचारिक रूप से शामिल हो गए।
कुछ राजनीतिक विश्लेषक पहले से ही कहते रहे हैं कि सीपीआई से लोकसभा चुनाव लड़ने वाले कन्हैया कुमार और गुजरात से निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी आगे चलकर कांग्रेस में शामिल होंगे। यह अनुमान अब सही साबित हो गया है।
कन्हैया कुमार फरवरी, 2016 में अचानक सुर्खियों में आए थे। उस समय वे जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। जेएनयू में एक कार्यक्रम को रद्द किए जाने के विरोध में आयोजित पैदल मार्च में लगे देश विरोधी नारों का आरोप कन्हैया कुमार पर लगाया गया।
दरअसल, डीएसयू (डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन) नामक एक बहुत छोटे उग्र वामपंथी छात्र संगठन द्वारा 9 फरवरी को 'कंट्री विदआउट पोस्ट आफिस' नामक एक कार्यक्रम तय था। यह वाक्य अमेरिकी कश्मीरी कवि आगा शाहिद अली की एक कविता का शीर्षक है।
इस कार्यक्रम में दिल्ली सरकार द्वारा कश्मीर पर लगाई गई पाबंदियों पर चर्चा होनी थी। जाहिर है, दक्षिणपंथियों के लिए यह आयोजन हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद को उभारने का एक मौका था। इसलिए विरोध होना ही था।
लेकिन विरोध करने वालों की बौद्धिकता का आलम यह था कि तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री एम. वैंकैया नायडू ने कहा कि यह आयोजन इसलिए ग़लत है क्योंकि भारत में लाखों पोस्ट आफिस मौजूद हैं! नायडू ना तो इस कविता को जानते थे और ना इसके मर्म को समझ सके। लेकिन विरोध करना ही था, सो उन्होंने किया। उनके जैसे कई बड़े नेताओं ने तमाम बातें करके जेएनयू का पैशाचीकरण करने की कोशिश की।
जेएनयू प्रशासन द्वारा इस आयोजन की अनुमति प्रदान की गई थी। लेकिन आयोजन के महज पंद्रह मिनट पहले प्रशासन द्वारा अनुमति रद्द कर दी गई। जेएनयू प्रशासन के मनमाने रवैये के विरोध में कैंपस में एक पैदल मार्च निकाला गया।
इस दौरान भीड़ में घुस आए कुछ नकाबपोशों ने देश विरोधी नारे लगाए। वहाँ पहले से ही उपस्थित गोदी मीडिया ने इन नकाबपोशों और नारों को अपने कैमरों में कैद कर लिया। इसके बाद जेएनयू के खिलाफ नफरत का गुबार पेश किया गया।
दिन रात चौबीस घंटे सिर्फ जेएनयू की खबरें और बीजेपी नेताओं के ऊल जुलूल बयान परोसे गए।
जेएनयू को नक्सलियों का अड्डा और टुकड़े टुकड़े गैंग कहकर प्रचारित किया गया। जेएनयू के छात्रों को देशद्रोही कहा गया। छात्राओं का चरित्र हनन किया गया। अचानक पूरे देश में राष्ट्रवाद उबाल मारने लगा।
परोसे जा रहे इस उग्र राष्ट्रवाद का नतीजा यह हुआ कि जिस समय, गिरफ्तार किए गए कन्हैया कुमार को कोर्ट में पेश किया गया तब 'जोशीले देशभक्त' वकीलों ने उनपर जानलेवा हमला किया। दो सप्ताह बाद कन्हैया कुमार को ज़मानत मिल गई।
इसके बाद कन्हैया कुमार ने जेएनयू में जोरदार भाषण दिया। कन्हैया ने जातिवाद, ब्राह्मणवाद, भुखमरी, भेदभाव से आजादी का नारा लगाया। आज कन्हैया अपने आकर्षक भाषण और तार्किकता के लिए पूरे देश में मशहूर हैं।
जेएनयू के छात्र जिन नकाबपोशों के नारों के कारण बदनाम हुए, वे अब तक गायब हैं। भारत की शक्तिशाली सुरक्षा एजेंसियाँ उन्हें पकड़ने में नाकाम हुई हैं। सुरक्षा एजेंसियों और सरकार की नाकामी पर बड़ा सवाल है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वास्तव में सुरक्षा एजेंसियाँ इनकी तलाश करना चाहती हैं?
जेएनयू के अधिकांश छात्रों का मानना है कि वे नकाबपोश जेएनयू को बदनाम करने की साजिश का हिस्सा थे। इसलिए उन्हें पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता।तब सवाल उठता है कि कोई सरकार या संगठन देश के सबसे नामी संस्थान की बदनामी क्यों करना चाहेंगे? इसका जवाब तलाशने के लिए तत्कालीन परिस्थितियों को समझना जरूरी है।
बौद्धिक खुलापन और संवादधर्मिता जेएनयू की खास पहचान है। जेएनयू के छात्र साहस के साथ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी राय रखते हैं। हाशिए के समाज का विमर्श जेएनयू के डीएनए में है।
दरअसल, हैदराबाद विश्वविद्यालय के अंबेडकरवादी और अत्यंत प्रतिभाशाली दलित शोधार्थी रोहित बेमुला ने दक्षिणपंथी संगठनों और विश्वविद्यालय प्रशासन के उत्पीड़न से हारकर 17 जनवरी 2016 को आत्महत्या कर ली थी। पीछे छोड़े गए अपने खत में रोहित बेमुला ने जातिगत उत्पीड़न और दक्षिणपंथी सत्ता पर ऐतिहासिक सवाल उठाए थे।
जातिगत उत्पीड़न और दलितों, आदिवासियों को शिक्षा जगत से बाहर धकेलने की प्रक्रिया लंबे समय से इस देश में खामोशी से चल रही है। प्रो. सुखदेव थोरट ने अपनी रिपोर्ट में शिक्षण संस्थानों में होने वाली आत्महत्याओं के सच को बेपर्दा किया है।प्रो. सतीश देशपांडे ने अपने लेखों में भी शिक्षण संस्थानों में अगड़ी जाति के वर्चस्व और कमजोर वर्गों के बहिष्करण को रेखांकित किया है।
रोहित बेमुला की आत्महत्या को लेकर जेएनयू में प्रतिरोध और आंदोलन हुआ। संस्थानों में दलितों और आदिवासियों के उत्पीड़न और बहिष्करण के विमर्श और प्रतिरोध से मोदी सरकार मुश्किल में आ गई। जेएनयू के छात्रों ने कैंपस से बाहर निकलकर रोहित बेमुला की आत्महत्या पर सरकार को घेरा।
इन छात्रों ने संघ के दिल्ली स्थित कार्यालय झंडेवालां पर भी विरोध प्रदर्शन किया। पूरे देश में यह बड़ा मुद्दा बन गया था। इससे पहले नवंबर 2015 में जेएनयू के छात्र शिक्षण संस्थानों में फीस वृद्वि को भी मुद्दा बनाकर बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन कर चुके थे।
माना जाता है कि नौजवानों और हाशिए के समाज के इन सवालों पर मुखर जेएनयू के छात्रों को 'सबक' सिखाने के लिए 9 फरवरी की घटना को अंजाम दिया गया था।
इस विवादित घटनाक्रम के बाद कश्मीर और अफ़जल गुरु के इर्द गिर्द उठे उग्र राष्ट्रवाद के शोर में हाशिए की घुटती आवाज़ों दफ्न किया जा रहा था। सवाल उठाने वाले देशद्रोही और टुकड़े टुकड़े गैंग साबित किए जा रहे थे।
इन हालातों में कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी जेएनयू के छात्रों के साथ खड़े हुए। जाहिर है, जेएनयू के साथ साथ रोहित बेमुला की चिट्ठी पर उभरे सैकड़ों सालों के अन्याय के ख़िलाफ़ भी राहुल गाँधी खड़े हुए थे।
भारत के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय की लोकतांत्रिक संस्कृति और शैक्षिक माहौल को हौसला देने के लिए पहुँचे राहुल गांधी की इस हिम्मत की तमाम बुद्धिजीवियों और नौजवान छात्रों ने सराहना की।
दरअसल, जून 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा स्थापित जेएनयू देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों और सपनों को साकार करने वाला विश्वविद्यालय बना। जेएनयू अपने बौद्धिक खुलेपन, लोकतांत्रिक मूल्यों और स्वतंत्र जीवनशैली के लिए जाना जाता है।
विज्ञान और तकनीकी विषयों की अपेक्षा जेएनयू में मानविकी और साहित्य जैसे मनुष्य को संवेदनशील बनाने वाले विषयों को अधिक तरजीह दी जाती है। जेएनयू में समूचे भारत के विभिन्न पृष्ठभूमि वाले छात्र-छात्राओं का मेलजोल और आपसदारी की भावना नेहरू के समावेशी राष्ट्रवाद को मजबूत और प्रासंगिक बनाती है।
कट्टरपंथी हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों और बीजेपी सरकार द्वारा जेएनयू पर एक सोची-समझी रणनीति के तहत हमला किया गया था। वैचारिक रूप से जेएनयू को वामपंथियों का गढ़ माना जाता है।
लेकिन इसकी खासियत इसका वैविध्य है। जेएनयू में समूचे भारत के विभिन्न पृष्ठभूमि वाले छात्रों की आमद होती है। इसका कारण जेएनयू की विशेष प्रवेश नीति है।
दिलचस्प यह है कि जेएनयू छात्रसंघ चुनाव के लिए 1970 में छात्रों का एक निर्वाचित निर्वाचक मंडल बनाया गया। इसके निर्देशन में 1971 में छात्रसंघ चुनाव हुए। 1972 के दूसरे छात्रसंघ ने एक प्रवेश नीति बनाई। इसमें विशेष आरक्षण का प्रावधान किया गया। दरअसल, सामाजिक पिछड़ेपन के साथ साथ क्षेत्रीय, लैंगिक और आर्थिक पिछड़ेपन को भी आरक्षण का आधार बनाया गया। गाँव या पहाड़ से आने वाले छात्रों और लड़कियों को अतिरिक्त अंक देने का प्रावधान किया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि 1973 के बैच में ही देश के दूर दराज के दलित, आदिवासी छात्र-छात्राओं की बड़ी खेप जेएनयू पहुँची। आर्थिक पिछड़ेपन को देखते हुए एक समान न्यूनतम शैक्षणिक शुल्क के साथ-साथ न्यूनतम खर्चे पर हास्टल की व्यवस्था की गई।
इन अनुकूल परिस्थितियों में दलित, आदिवासी और कमजोर वर्ग के लड़के- लड़कियों ने उच्च शिक्षा हासिल करके विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिमान स्थापित किए हैं।
लुटियन दिल्ली और दूसरे राजनीतिक हलकों में होने वाली घटनाओं की प्रतिक्रिया जेएनयू में हमेशा होती रही है। कई बार जेएनयू के छात्र- छात्राओं ने बड़े आंदोलनों का नेतृत्व किया।
दक्षिणपंथी राजनीति भी हमेशा से जेएनयू में सक्रिय रही है। कांग्रेसनीत यूपीए सरकार में शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा 2006 में उच्च शिक्षा में लागू किए गए पिछड़ों के आरक्षण का विरोध जेएनयू के विद्यार्थियों के एक तबके द्वारा हुआ था।
लेकिन यह विरोध पूरे लोकतांत्रिक तरीके से और बिना किसी भावनात्मक उत्तेजना के हुआ। बावजूद इसके वामपंथी, गाँधीवादी, सोशलिस्ट विचारधारा और अन्य आजाद खयाल रखने वाले अगड़ी जाति के अधिकांश छात्रों ने आरक्षण का समर्थन किया था।
पिछले 7 साल से जेएनयू को लगातार टार्गेट किया जा रहा है। उसकी प्रवेश नीति और न्यूनतम फीस की अवधारणा को ध्वस्त कर दिया गया है। आरक्षण की व्यवस्था से भी छेड़छाड़ हुई है।
संघ की सिफारिश पर नियुक्तियाँ होने के आरोप लग रहे हैं। लोकतांत्रिक और संवादधर्मी परिवेश को उग्र हिन्दुत्ववादी माहौल में तब्दील किया जा रहा है।
हाशिए के समाज के विमर्श और सवालों को दरकिनार किया जा रहा है। प्रतिरोध की संस्कृति के स्थान पर सवालों के समाहार की संस्कृति विकसित हो रही है।
रोहित बेमुला की आत्महत्या से उपजे सवाल आज भी जस के तस हैं। बल्कि उससे भी ज्यादा भयावह हैं। फरवरी 2016 की परिस्थितियों से उपजे कन्हैया क्या कांग्रेस में जाकर इन सवालों से जूझेंगे? कहीं राजनीतिक महत्वाकांक्षा में बुनियादी सवाल गुम तो नहीं हो जाएंगे?
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