जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ विलय को पक्का करने के लिए वहाँ की मुसलिम-बहुल जनता से राय लेने का जो वादा नेहरू सरकार ने विलय पत्र को स्वीकार करते हुए किया था, उसे वह कभी भी नहीं पूरा कर पाए क्योंकि भारत और पाकिस्तान सरकार में राज्य से दोनों पक्षों की सेनाओं को हटाने और साझा प्रशासनिक नियंत्रण में रायशुमारी कराने पर रज़ामंदी नहीं हो पाई। अगर 1947-48 में जनमत संग्रह हो जाता तो नतीजा भारत में पक्ष में आने की पूरी संभावना थी क्योंकि शेख़ अब्दुल्ला जो कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता थे, वह पाकिस्तान के मुक़ाबले भारत को बेहतर साथी समझते थे।
अनुच्छेद 370 : विलय पर टालमटोल से शेख़ अब्दुल्ला बने नेहरू के 'दुश्मन'
- विचार
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- नीरेंद्र नागर
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- 5 Jul, 2019

अनुच्छेद 370 पर विशेष : नेहरू और शेख़ अब्दुल्ला बहुत अच्छे मित्र थे और शेख़ के भरोसे ही नेहरू ने अक्टूबर 1947 में जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद वहाँ जनमतसंग्रह कराने का वादा किया था। अगले कुछ सालों तक सबकुछ ठीक चला लेकिन 1953 आते-आते दोनों दोस्तों में अविश्वास इतना बढ़ा कि नेहरू के आदेश पर शेख़ को जेल में बंद कर दिया गया। कश्मीर सीरीज़ में आज पढ़ें कैसे दो दोस्त बने दुश्मन।
जब दो-तीन सालों तक भी जनमत संग्रह का कोई चांस बनता नहीं दिखा तो तय हुआ कि राज्य में निर्वाचन के माध्यम से एक प्रतिनिध सभा का गठन किया जाए जो राज्य के भारत में विलय के बारे में अनुकूल फ़ैसला करने के साथ-साथ विलय पत्र की भावनाओं के अनुसार राज्य का संविधान भी बनाए। चूँकि महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय के लिए जो दस्तावेज़ साइन किया था, उसी में राज्य के लिए विशेष दर्ज़े और स्वायत्तता की शर्त थी इसलिए भारतीय संविधान में उन सभी बातों का उल्लेख होना था जिससे राज्य की स्वायत्तता की गारंटी होती।
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