जी-20 के आयोजन के समानांतर गोदी मीडिया और बीजेपी आईटी सेल मोदी जी की प्रसिद्धि और उनके ‘महाबली’ होने का ढोल बजाता रहा। आयोजन की समाप्ति के बाद भी इसमें कमी नहीं आयी। उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हनोई पहुँचते ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भारत में मानवाधिकारों और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का सवाल उठा दिया, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के भारत रहते हुए वहाँ खालिस्तान के मुद्दे पर जनमत-संग्रह की इजाज़त दी गयी या सोमवार को शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के 54वें सत्र में मणिपुर और हरियाणा के नूंह में हुई हिंसा का सवाल उठा। यूएन ह्यूमन राइट्स कमिश्नर वोल्कर तुर्क ने साफ़ कहा कि मानवाधिकार और मुस्लिमों की सुरक्षा को लेकर भारत को ‘दोगुने प्रयास’ करने की ज़रूरत है। यह सब मोदी के ‘महाबली’ होने पर ही नहीं, भारत के वास्तविक लोकतंत्र होने पर भी सवाल की तरह हैं। लेकिन सरकार के प्रचारतंत्र के साथ नत्थी मीडिया के लिए इसका कोई महत्व नहीं है। वो मोदी जी की छवि चमकाने के लिए नेहरू से लेकर इंदिरा गाँधी के दौर में भारत के कमज़ोर होने के क़िस्से गढ़ रहा है।
ऐसा ही एक क़िस्सा अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को लेकर गढ़ा गया है। कहा जा रहा है कि निक्सन ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मुलाक़ात के लिए 45 मिनट तक इंतज़ार कराया था, तब इस तरह भारत को अपमानित किया जाता था। लेकिन अगर इस क़िस्से के आगे पीछे की कहानी जान ली जाए तो न सिर्फ़ उलट नतीजे निकलेंगे बल्कि अमेरिका को कूटनीतिक रूप से मात देने को लेकर भारतीय इतिहास का एक ‘महान अध्याय’ भी सामने आयेगा।
दरअसल, रिचर्ड निक्सन शुरू से ही इंदिरा गांधी से चिढ़ते थे और निजी बातचीत में उनके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग करते थे। ख़ासतौर पर इंदिरा की ग़रीब समर्थक नीतियों, ख़ासतौर पर पूर्व रियासतों का प्रीवीपर्स ख़त्म करने से लेकर बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने उनकी ऐसी समाजवादी छवि बना दी थी जिससे सोवियत यूनियन से शीतयुद्ध के दौर में अमेरिका का सशंकित होना स्वाभाविक था।
ये 1971 की आती सर्दियों की बात है जब नवंबर में पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे दमन-उत्पीड़न और उससे भारत पर बढ़ रहे आबादी के दबाव की ओर ध्यान खींचने के लिए इंदिरा गाँधी ने अमेरिका की यात्रा की थी। लेकिन व्हाइट हाउस में जब स्वागत भाषण के दौरान निक्सन ने पूर्वी पाकिस्तान का नाम भी नहीं लिया। उल्टे बिहार के बाढ़ पीड़ितों को लेकर सहानुभूति प्रकट की। इंदिरा गाँधी ने इसका तुरंत जवाब दिया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति निक्सन एक मानव निर्मित त्रासदी को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। यही नहीं, बाद में उन्होंने अमेरिका की वियतनाम और चीन नीति पर निक्सन से कुछ इस अंदाज़ में बात की जैसे कि उन्हें कुछ पता ही न हो। विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर ने अपनी किताब ‘व्हाइट हाउस इयर्स’ में लिखा, “इंदिरा ने कुछ इस अंदाज़ में निक्सन से बात की जैसे कि एक प्रोफ़ेसर पढ़ाई में थोड़े कमज़ोर छात्र का मनोबल बढ़ाने के लिए उससे बात करता है।...निक्सन ने एक भावहीन शिष्टता के ज़रिए किसी तरह ग़ुस्से को पिया।”
पैंतालीस मिनट बाद जब इंदिरा गाँधी से निक्सन मिलने पहुँचे तो इरादा पाकिस्तान पर बातचीत का था, लेकिन इंदिरा ने इस पर बात ही नहीं की। वे अमेरिकी विदेश नीति पर ही तीखे ढंग से सवाल करती रहीं।
यही नहीं, बाद में जब निक्सन ने इंदिरा गाँधी के लिए रात्रि भोज दिया तो एक बार फिर उन्होंने अपने साथ हुए व्यवहार का जवाब दिया। वे राष्ट्रपति निक्सन के साथ औपचारिक भोज की मेज पर थीं, लेकिन उन्होंने आँखें बंद कर लीं और कुछ भी बोलने से इंकार कर दिया। सारे मेहमान उन्हें देख रहे थे और इंदिरा किसी को नहीं देख रही थीं। राष्ट्रपति को भी नहीं। उन्होंने अपने अपमान का इस कौशल से जवाब दिया कि निक्सन हतप्रभ रह गये।
अमेरिका से लौटकर इंदिरा गाँधी ने जो किया, उसने इतिहास नहीं भूगोल भी बदल दिया। 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने पश्चिमी सेक्टर में भारतीय बेस पर जैसे ही बमबारी की, इंदिरा गाँधी ने भारतीय सेना को कार्रवाई करने का आदेश दे दिया। वाशिंगटन के ओवल ऑफिस में बैठे निक्सन ने भारत के रवैये की निंदा की और सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया। लेकिन भारत को आतंकित करने की इस कोशिश का इंदिरा पर कोई असर नहीं पड़ा। सातवें बेड़े के पहुँचने के पहले ही ढाका को आज़ाद करा लिया गया था। बांग्लादेश के जन्म की घोषणा कर दी गयी थी। 90 हजार पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण के साथ विश्व के सामरिक इतिहास में चमकदार पन्ना जुड़ गया था। यह सब एक महिला का कारनामा था जिसे भारत में विपक्ष कभी ‘गूँगी गुड़िया’ कहता था और अमेरिका में बैठे निक्सन जो कहते थे, उसे लिखा नहीं जा सकता।
अपनी बहादुरी और कौशल से विश्व में भारत की धाक जमाने वाली इंदिरा गाँधी आज मोदी जी के भक्तों के निशाने पर हैं। उन्हें नीचा दिखाया जा रहा है ताकि उनके भगवान का सिंहासन ऊँचा हो सके। वे यह भी भूल जाते हैं कि मोदी जी ने 20 देशों का सम्मेलन जिस दिल्ली में कराया है, वहीं मार्च 1983 को इंदिरा गाँधी ने सौ देशों का सम्मेलन कराया था जिसमें चार हज़ार से ज़्यादा विदेशी मेहमान शामिल हुए थे। यह गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सम्मेलन था। लेकिन उस सम्मेलन में दिल्ली की सड़कें इंदिरा गाँधी की तस्वीरों से नहीं पाटी गयी थीं। उस सफल आयोजन का सेहरा देश के सिर बंधा था न कि प्रधानमंत्री के सिर जैसा कि जी-20 को लेकर हो रहा है।
नेहरू से लेकर इंदिरा तक भारत की विश्व में एक नैतिक आभा थी। तीसरी दुनिया के देश उसकी ओर आशा भरी निगाह से देखते थे। तब भारत एक कमज़ोर अर्थव्यवस्था था लेकिन उसकी बात विश्व मंच पर ग़ौर से सुनी जाती थी। वह मानवाधिकार से लेकर अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के मुद्दे पर ताकतवर राष्ट्रों की निंदा करने से भी नहीं हिचकता था लेकिन मोदी जी के राज में इन्हीं मुद्दों पर भारत को घेरा जा रहा है। कूटनीतिक स्तर पर इससे बड़ी विफलता और क्या हो सकती है?
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)
अपनी राय बतायें