भारत और कनाडा के रिश्तों में आयी कड़वाहट के बीच 'कनाडा में विपक्ष के नेता पियरे पोइलिवरे के एक बयान ने कनाडा में रहने वाले हिन्दुस्तानियों को जिस तरह से आश्वस्त किया है, क्या वैसा ही आश्वासन भारत की सत्ता और विपक्ष के नेता संसद में भाजपा संसद रमेश बिधूड़ी द्वारा बसपा संसद दानिश अली के साथ किये गये व्यवहार के बाद देश के अल्पसंख्यक मुसलमानों को दे सकते हैं ? क्या देश में कोई ऐसा नेता है जो असंख्य मुसलमानों की अस्मिता को आहत करने के बाद अपने हाथों में मरहम लेकर खड़ा नजर आये ?
आपको याद ही होगा कि इन दिनों कनाडा में खलिस्तान मुद्दा चरम पर है. लगातार हो रही बयानबाजी के बीच ' सिख फॉर जस्टिस ' के चीफ गुरपतवंत सिंह पन्नू ने कनाडा के हिंदुओं को देश छोड़ने की धमकी दी थी । इसी धमकी के बीच 'कनाडा में विपक्ष के नेता पियरे पोइलिवरे के एक बयान ने कनाडा में रहने वाले हिन्दुस्तानियों को जिस तरह से आश्वस्त किया है वो सराहनीय है। । पियरे ने अपने संदेश में लोगों, खासतौर पर हिंदुओं के लिए कहा कि, 'हरेक कनाडाई बिना किसी डर के जीने का हकदार है’ ।
हाल के दिनों में, हमने कनाडा में हिंदुओं को निशाना बनाते हुए घृणित टिप्पणियां देखी हैं। रूढ़िवादी हमारे हिंदू पड़ोसियों और दोस्तों के खिलाफ इन टिप्पणियों की निंदा करते हैं। हिंदुओं ने हमारे देश के हर हिस्से में अमूल्य योगदान दिया है और उनका यहां हमेशा स्वागत किया जायेगा। कनाडा में हिन्दुस्तानी प्रवासी हैं लेकिन हिन्दुस्तान में रहने वाले मुसलमान प्रवासी नहीं इस देश के मूल निवासी है। उन्हें दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह न धमकाया जा सकता है और न अपमानित किया जा सकता है। हिन्दुस्तान का संविधान यहां रहने वाले सभी लोगों को एक जैसे अधिकार देता है। संविधान में अल्पसंख्यकों को अलग से संरक्षण भी दिया है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि अब सत्तारूढ़ दल और उसके रमेश बिधूड़ी जैसे सांसद अल्पसंख्यकों को सीधे देख लेने की धमकियां देते दिखाई दे रहे हैं। दुर्भाग्य ये भी है कि ऐसे सांसद के खिलाफ त्वरित कार्रवाई के बजाय उसे संरक्षण देने की अक्षम्य कोशिशें की जा रहीं हैं। सवाल ये है कि क्या हम इस देश में रहने वाले लोग कनाडा या अमेरिका के लोगों की तरह शांति से नहीं रह सकते?
हमारे देश के बहुसंख्यक हिन्दू और उनके कथित नेता और राजनीतिक दल कब तक अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को हिन्दुस्तानी नहीं मानेंगे ? क्या हिन्दुओं की ठेकेदारी करने वाले लोग और दल इसी मुद्दे पर 1947 में हम भारतीयों द्वारा दी गयी कीमत से मुतमईन नहीं हैं ? 1947 में भारत जिन परिस्थितयों में एक संप्रभु राष्ट्र बना था उसे झुठलाया नहीं जा सकता किन्तु उस समय जो अल्पसंख्यक आबादी पाकिस्तान नहीं गयी उसे हिन्दुस्तानी न मानने की भूल करना देश के संविधान और समरसता का अपमान करना है। दुर्भाग्य से जो बार-बार किया जा रहा है । संसद से सड़कों तक ये अपमान होता दिखाई दे रहा है ।
हिन्दुओं की ठेकेदारी करने वाले सत्तारूढ़ दल ने तो अपनी पार्टी में नाम मात्र के लिए दिखाई देने वाले अल्पसंख्यक नेताओं को भी अस्तित्वविहीन कर दिया है । ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। सवाल एक बिधूड़ी का नहीं है बल्कि बिधूड़ी जैसे लोगों को पैदा करने वाले समूचे राजनीतिक दलों और सोच का है। भाजपा का नाम इस विष वमन में बार- बार आता है। बिधूड़ी से पहले उनके पास अनेक बिधुड़ियाँ भी थीं। जो सरे आम आग उगलतीं थीं। मुसलमानों का नाम लेकर आग उगलतीं थीं लेकिन दुर्भाग्य हिन्दुस्तान का, एक भी सनातनी क़ानून एक भी विष वमनकर्ता को सबक नहीं सीखा पाया।
इसी का नतीजा है कि आज हमारी संसद ने वो सब नजारा देखा जो पिछले 75 साल में कभी नहीं देखा गया था। ये विषबेल अब तेजी से फैलती दिखाई जा रही है। इसका उपचार अब जरूरी हो गया है। हमारे देश की मौजूदा सत्ता के मुंह में राम और बगल में छुरी नहीं बल्कि बारूद ही बारूद भरी है । हमारे भाग्यविधाताओं की हर मुद्रा अल्पसंख्यकों को लेकर बारूदी नजर आती है। ऊपर वाले ने यदि ऐसे भाग्यविधाताओं को जरा और ताकतवर बनाया होता तो ये भारत के मुसलमानों के लिए अब तक एक अलग मुल्क बना चुके होते और इसके लिए किसी दुश्मन मुल्क को कोशिश नहीं करना पड़ती। हम खुद इसके लिए काफी होते।
खुदा न खास्ता यदि देश में मौजूदा सत्तारूढ़ दल को 2047 तक सत्ता में रहने का मौक़ा मिल गया [ जो असम्भव है । तो तय है है कि ये अल्पसंख्यकों को देश के बाहर खदेड़ने या दूसरे दर्जे का नागरिक बनने पर मजबूर कर देंगे । हमारी सरकारी पार्टी का विश्व बंधुत्व और वसुधैव कुटुंबकम का नारा अपनी ही जमीन पर दम तोड़ देगा। कनाडा से हमारे रिश्त क्यों बिगड़े इस पर बहस से पहले हमें इस बात पर बहस करनी होगी कि हम अपने ही देश में रहने वाले अल्पसंख्यकों से अपने रिश्ते क्यों बिगाड़ने पर आमादा हैं ? क्या इसके बिना देश की सत्ता में नहीं रहा जा सकता ?
भारत को जबरन हिन्दू राष्ट्र बनाने की संकल्पना ही भयावह है। धर्म के आधार पर बने देशों की दुर्दशा दुनिया देख रही है फिर भी हम सबक नहीं लेना चाहते। कभी-कभी मुझे लगता है कि ये संकीर्णता कहीं हमें ले न डूबे । जिन लोगों ने आजादी के पहले से और आजादी के बाद मिलजुलकर रहना न सीखा हो, मेलजोल की दीक्षा न ली हो वे समरसता का महत्व कैसे समझ सकते हैं ?
ताजा माहौल में गड़े मुर्दे आखिर उखाड़े किसने ? क्या जरूरत थी संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान पंत प्रधान को स्वर्णमंदिर पर अतीत में आतंकियों के खिलाफ की गयी सैन्य कार्रवाई की निदा करने की ? खालिस्तान का भूत तो कब का बोतल में बंद हो गया था। उसे बोतल के बाहर निकाला किसने ? अब स्थिति ये आ गयी है कि ये मुद्दा अब हमारी विदेश नीति पर भारी पड़ रहा है। मजे की बात ये है कि इस मुद्दे पर हम अपनी नीति की समीक्षा करने के बजाय हैडमास्टर बनने पर आमादा है। एक ऐसे देश के पंत प्रधान को सबक सिखाने की कोशिश कर रहे हैं जो लम्बे समय से भारतीयों को अपने देश में समान अवसर देता आरहा है।
कनाडा के पंत प्रधान का आचरण बचकाना और गैर जिम्मेदाराना हो सकता है लेकिन हमें तो गाम्भीर्य का परिचय देना चाहिए। हम क्यों अपने देश में रहने वाले अल्पसंख्यकों को चिंता में डाल रहे हैं ? वे तो मुसलमान नहीं है। उनकी पूरी कौम तो आतंकवादी नहीं है ? वैसे तो कोई भी कौम किस एक -दो सिरफिरे लोगों की करतूतों की वजह से लांछित नहीं की जा सकती किन्तु हम जान- बूझकर ऐसा कर रहे हैं। हम मुसलमानों के प्रति शंकालु है। हम सिखों के प्रति शंकालु है। हमें ईसाइयों पर भी यकीन नहीं है। हमारी नजर में मुसलमान और सिख आतंकवादी हैं और ईसाई हिन्दू धर्म के दुश्मन। ऐसे में आखिर देश का भावी स्वरूप क्या होगा ?
क्या कोई देश घरेलू अविश्वास और आशंकाओं के माहौल में तरक्की कर सकता है ? विश्व गुरु बन सकता है ? उसे विश्व मित्र कहे जाने का हक है ? ये तमाम सवाल खड़े करते हुए मैं न भाजपाई हूँ और न कांग्रेसी। मैं किसी अल्पसंख्यक दल का भी सदस्य नहीं हूँ । मै ये तमाम सवाल एक निष्ठवान हिंदुस्तानी होने के नाते कर रहा हू। एक हिन्दू होने के नाते कर रहा हूँ।
हमें हमारे पूर्वजों ने अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत के जहर से कभी नहीं सींचा। हमारे यहां राम और रहीम के साथ खड़े होने, बैठने और रहने की संस्कृति रही है । हमने अपने कार्य व्यवहार में वसुधैव कुटुंबकम की भावना को जिया है। हम इस मूलमंत्र की भावना को राजनीतिक दलों के एजेंडे से ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं। हमारे पूर्वज कहते थे कि जहर तो हर सांप में होता है किन्तु कुछ में कम होता है कुछ में ज्यादा इसलिए हर सांप को जहरीला समझकर मार देना अक्लमंदी नहीं है।
ये बात वे किस संदर्भ में कहते थे ये मुझे आज समझ में आ रहा हैं । आप भी अपने विवेक से आपने आसपास विचरण करने वाले सर्पों को पहचानें। साँपों में कोई अल्प संख्यक या बहु संख्यक नहीं होता। सांप सिर्फ सांप होता है। उसका जहर जानलेवा होता है। संयोग से अब हमारे पास सर्पदंश से उपचार की तमाम वैज्ञानिक विधियां मौजूद है। हमें यानि हम हिन्दुस्तानीयों को हर तरह के जहर का उपचार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब भी मौक़ा मिले इन विषैले साँपों में अपने मताधिकार का विषरोधी इंजेक्शन अवश्य लगाइये। मत देखिये की सांप किस प्रजाति का है ? आप सिर्फ जहर पर ध्यान दीजिये।
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