बीते कुछ दिनों में हरेक जागरूक हिन्दुस्तानी का वास्ता इस सवाल से ज़रूर पड़ा होगा कि पश्चिम के विकसित देशों की अपेक्षा क्या भारत पर कोरोना की मार कम पड़ी है? क्या भारत के आँकड़े देश की सच्ची तसवीर दिखा रहे हैं? यदि आपके ज़हन में ऐसे सवाल उठे हैं तो आपका कौतूहल बिल्कुल वाज़िब है। कोरोना के कुछेक आँकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। मसलन, भारत में कोरोना से संक्रमित होने के बाद स्वस्थ होने वालों की तादाद 7.7 प्रतिशत ही क्यों है, जबकि दुनिया का औसत 21 फ़ीसदी लोगों का है? इसी तरह, ये चमत्कार नहीं तो फिर और क्या है कि दुनिया में कोरोना के जहाँ 5.8 फ़ीसदी मरीज़ मर रहे हैं, वहीं भारत में ये महज 2.8 प्रतिशत ही है?
कहीं ‘नो टेस्टिंग, नो कोरोना’ कोई सियासी दाँव तो नहीं!
- विचार
- |
- |
- 10 Apr, 2020

24 मार्च तक जहाँ हम प्रति दस लाख लोगों में से सिर्फ़ 18 की टेस्टिंग कर रहे थे, वो अब बढ़कर 98 व्यक्ति प्रति दस लाख हो गयी है। दूसरी ओर, विकसित देशों में रोज़ाना 7 से लेकर 10 हज़ार लोग प्रति दस लाख की दर से टेस्टिंग हो रही है। भारत का ऐसा प्रदर्शन तब है जबकि सरकार का दावा है कि उसके पास रोज़ाना 15,000 नमूनों की जाँच करने की क्षमता है।
दोनों आँकड़े विरोधाभासी हैं। यदि कोरोना से मुक़ाबले की हमारी नीतियाँ और उसे लागू करने का तरीक़ा बेहतर होता तो स्वस्थ होने वालों का अनुपात भी वैश्विक औसत से बेहतर क्यों नहीं होता? कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत सरकार ने ख़ूब सोच-विचारकर ‘टेस्टिंग नहीं, तो कोरोना नहीं’ वाली अघोषित नीति का रास्ता थामा है। कोरोना ज्वालामुखी के फटने से पहले अमेरिका भी भारत की तरह सिर्फ़ उन्हीं लोगों की जाँच करने के रास्ते पर चल रहा था, जिनमें बुखार, खाँसी और साँस लेने में तकलीफ़ के लक्षण उभरे थे। इसीलिए वहाँ देखते ही देखते हालात भयावह होते चले गये। इतने कि आज दुनिया के कुल मृतकों में सबसे ज़्यादा अमेरिकी ही हैं।
मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। 28 साल लम्बे करियर में इन्होंने कई न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। पत्रकारिता की शुरुआत 1990 में टाइम्स समूह के प्रशिक्षण संस्थान से हुई। पत्रकारिता के दौरान इनका दिल्ली