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कहीं ‘नो टेस्टिंग, नो कोरोना’ कोई सियासी दाँव तो नहीं!

24 मार्च तक जहाँ हम प्रति दस लाख लोगों में से सिर्फ़ 18 की टेस्टिंग कर रहे थे, वो अब बढ़कर 98 व्यक्ति प्रति दस लाख हो गयी है। दूसरी ओर, विकसित देशों में रोज़ाना 7 से लेकर 10 हज़ार लोग प्रति दस लाख की दर से टेस्टिंग हो रही है। भारत का ऐसा प्रदर्शन तब है जबकि सरकार का दावा है कि उसके पास रोज़ाना 15,000 नमूनों की जाँच करने की क्षमता है।
मुकेश कुमार सिंह

बीते कुछ दिनों में हरेक जागरूक हिन्दुस्तानी का वास्ता इस सवाल से ज़रूर पड़ा होगा कि पश्चिम के विकसित देशों की अपेक्षा क्या भारत पर कोरोना की मार कम पड़ी है? क्या भारत के आँकड़े देश की सच्ची तसवीर दिखा रहे हैं? यदि आपके ज़हन में ऐसे सवाल उठे हैं तो आपका कौतूहल बिल्कुल वाज़िब है। कोरोना के कुछेक आँकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। मसलन, भारत में कोरोना से संक्रमित होने के बाद स्वस्थ होने वालों की तादाद 7.7 प्रतिशत ही क्यों है, जबकि दुनिया का औसत 21 फ़ीसदी लोगों का है? इसी तरह, ये चमत्कार नहीं तो फिर और क्या है कि दुनिया में कोरोना के जहाँ 5.8 फ़ीसदी मरीज़ मर रहे हैं, वहीं भारत में ये महज 2.8 प्रतिशत ही है?

दोनों आँकड़े विरोधाभासी हैं। यदि कोरोना से मुक़ाबले की हमारी नीतियाँ और उसे लागू करने का तरीक़ा बेहतर होता तो स्वस्थ होने वालों का अनुपात भी वैश्विक औसत से बेहतर क्यों नहीं होता? कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत सरकार ने ख़ूब सोच-विचारकर ‘टेस्टिंग नहीं, तो कोरोना नहीं’ वाली अघोषित नीति का रास्ता थामा है। कोरोना ज्वालामुखी के फटने से पहले अमेरिका भी भारत की तरह सिर्फ़ उन्हीं लोगों की जाँच करने के रास्ते पर चल रहा था, जिनमें बुखार, खाँसी और साँस लेने में तकलीफ़ के लक्षण उभरे थे। इसीलिए वहाँ देखते ही देखते हालात भयावह होते चले गये। इतने कि आज दुनिया के कुल मृतकों में सबसे ज़्यादा अमेरिकी ही हैं।

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कोरोना से निपटने के लिहाज़ से मोदी सरकार की नीतियाँ पूरी तरह से अमेरिका की पिछलग्गू रही हैं। अमेरिका की ही तरह भारत ने विदेश आवागमन पर रोक लगाने और देश की सीमा को सील करने में बेहद देरी की। अमेरिका की ही तरह ही मेडिकल इमरजेंसी का प्रोटोकॉल अपनाने और लॉकडाउन का फ़ैसला लेने में क़रीब दो महीने की देरी की गयी। अमेरिका की तरह ही व्यापक पैमाने पर कोरोना टेस्टिंग की मुहिम छेड़ने में कोताही की गयी। अमेरिका की तरह ही वेंटिलेटरों का इन्तज़ाम करने में भारत भी ख़ूब बिदकता रहा। अमेरिका की तरह ही वक़्त रहते चिकित्साकर्मियों के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपकरणों (PPE) को जुटाने में हीला-हवाली होती रही।

अमेरिका में पहला कोरोना पॉजिटिव जहाँ 22 जनवरी को मिला, वहीं भारत में 30 जनवरी को। अमेरिका में कोरोना जहाँ अब तक क़रीब 15,000 लोगों को मरघट पहुँचा चुका है, वहाँ उससे चार गुना आबादी वाले भारत में अभी स्कोर पौने दो सौ के आसपास ही है।

ऐसे विशाल फ़ासले की वजह से भारतीय आँकड़ों पर शक़ होता है। सभी जानते हैं कि भारत में कोरोना की टेस्टिंग ही इतनी कम हो रही है कि सही तसवीर सामने आ ही नहीं सकती।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) के ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक़, 8 अप्रैल 2020 की रात 9 बजे तक भारत की 130 करोड़ की आबादी में से कुल 1,27,919 नमूनों की जाँच हुई। इनसे 5,114 लोगों के कोरोना पॉजिटिव होने की पुष्टि हुई। 24 मार्च तक जहाँ हम प्रति दस लाख लोगों में से सिर्फ़ 18 की टेस्टिंग कर रहे थे, वो अब बढ़कर 98 व्यक्ति प्रति दस लाख हो गयी है। दूसरी ओर, विकसित देशों में रोज़ाना 7 से लेकर 10 हज़ार लोग प्रति दस लाख की दर से टेस्टिंग हो रही है। भारत का ऐसा प्रदर्शन तब है जबकि सरकार का दावा है कि उसके पास रोज़ाना 15,000 नमूनों की जाँच करने की क्षमता है। इस क्षमता के मुक़ाबले, 8 अप्रैल को पहली बार सबसे अधिक यानी 13,143 नमूने जाँच के लिए लैब में पहुँचे। 

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क्या नीतियाँ उम्दा हैं?

टेस्टिंग के न्यूनतम स्तर की वजह से ही हम अभी तक 5,114 कोरोना पॉजिटिव का ही पता लगा पाए हैं। देश में कोरोना से सबसे ज़्यादा प्रभावित 30 ज़िलों की पहचान करके वहाँ और सख़्त क़दम उठाये जा रहे हैं, लेकिन नीति आयोग का कहना है कि अब देश के 732 में से 400 ज़िले ही कोरोना से अछूते रह गये हैं। इसके बावजूद क्या हम यह मानते रहें कि बीते 9 हफ़्ते में भारत में कोरोना के संक्रमितों की संख्या बेहद धीमी रफ़्तार से इसलिए बढ़ी क्योंकि हमारी सरकारों की नीतियाँ और उन्हें लागू करने का तरीक़ा बेहद उम्दा है?

आँकड़ों से खेलने के महारथी और उसे लुकाने-छिपाने के विशेषज्ञ बख़ूबी जानते हैं कि ज़्यादा टेस्ट करवाये जाएँगे तो ज़्यादा संक्रमित भी सामने आएँगे। इससे तो सारा गुड़गोबर हो जाएगा। दरअसल, अमेरिका की तर्ज़ पर भारत में भी टेस्टिंग बग़ैर मरने वालों को कोरोना के मृतकों का दर्ज़ा नहीं मिल सकता। 

न्यूयॉर्क का सरकारी अनुमान है कि वहाँ शहर में रोज़ाना करीब 200 लोगों की मौत उनके घरों में ही हो जा रही है। मौत के बाद न तो पोस्टमार्टम हो रहा है और न ही कोरोना संक्रमण की जाँच। क्योंकि कोरोना जाँच के लिए मृतक के मुँह से लार का नमूना लेना ज़रूरी है।

न्यूयॉर्क प्रशासन की दलील है कि लाश पर संसाधन ख़र्च करना फ़िजूल है। लिहाज़ा, सारा ज़ोर ज़िन्दा मरीज़ों की जाँच पर ही लगाया जाए। ऐसी दलील को भला कौन ग़लत ठहरा सकता है! लेकिन इसके दो पहलू और हैं। पहला, बग़ैर जाँच के मृतकों को कोरोना पॉजिटिव नहीं माना जा सकता। इससे कोरोना के मृतकों की कुल संख्या कम नज़र आएगी तो ट्रम्प सरकार की हाय-हाय कम होगी। अमेरिका का यह चुनावी साल है। इसमें ख़राब आँकड़ों का कमतर रहना ही बेहतर है। दूसरा, घरों में मरने वालों के मृत्यु प्रमाण पत्र में मौत की वजह कोरोना नहीं लिखी जाती है। सरकार तो बस मौत की पुष्टि करती है।

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भारत की स्थिति

अब ज़रा सोचिए कि यही दलीलें भारत में क्या-क्या गुल खिला सकती हैं? यहाँ भी मृत्यु प्रमाण पत्र में कोरोना की बात तो तभी लिखी जाएगी जबकि मृतक को कोरोना पॉजिटिव पाया गया होगा। वर्ना, कोई कैसे किसी के बारे में ऐसा लिख देगा? अब यदि कोरोना ज्वालामुखी भारत में भी वैसे ही फटा जैसे अमेरिका में फटा है तो फिर अन्दाज़ा लगाइए कि यहाँ कितने लाख लोगों के मृत्यु प्रमाण पत्र में कोरोना का ज़िक्र नहीं होगा। कल्पना कीजिए कि यदि भविष्य में सरकार ने मृतकों के परिजनों के लिए किसी अनुग्रह राशि की घोषणा की तो लाखों मृतकों के परिजनों को कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि उनके मृत्यु प्रमाण पत्र में कोरोना का ज़िक्र नहीं होगा।

राष्ट्रपति ट्रम्प आशंका जता चुके हैं कि अमेरिका की 34 करोड़ की आबादी में से क़रीब 2.5 लाख लोग कोरोना की भेंट चढ़ जाएँगे। यदि भारत में ऐसा ही अनुपात रहा तो अमेरिका से चार गुना आबादी वाले 130 करोड़ भारतीयों में से मृतकों की संख्या 10 लाख तक क्यों नहीं पहुँचेगी? अब लगे हाथ आँकड़ों को दबाने-छिपाने का आर्थिक पहलू भी समझते चलिए। 

अनुमान लगाइए कि यदि कोरोना के मृतकों की वास्तविक संख्या 10 लाख रही और सरकारी आँकड़ा एक लाख का ही रहा तो इसका क्या असर पड़ेगा?

पहले तो अपनी शानदार कोरोना नीति के लिए सरकार ख़ूब जमकर अपनी पीठ को ख़ुद ठोकती नज़र आएगी। फिर सियासी फ़ायदा उठाने के लिए उसका करुणानिधान स्वरूप सामने आएगा। एलान होगा कि कोरोना के हरेक मृतक के परिजनों को सरकार अनुग्रह राशि देगी। हालाँकि, ऐसा ज़रूरी नहीं कि अनुग्रह राशि बाँटी ही जाए, लेकिन सरकार के ढर्रों को देखते हुए इसकी सम्भावना को नकारा भी नहीं जा सकता।

अब यदि यह अनुग्रह राशि सिर्फ़ एक-एक लाख रुपये भी हुई तो एक लाख लोगों के लिए इसका बोझ होगा सिर्फ़ 10 अरब रुपये का। जबकि यही सहायता यदि 10 लाख लोगों के नाम पर देने की नौबत आ गयी तो ख़र्च बैठेगा 100 अरब रुपये। इसी सम्भावित बोझ से बचने के लिए दूरदर्शी फ़ैसला है, ‘कोरोना की टेस्टिंग से कन्नी काटते रहना’। कभी किट के नाम पर तो कभी लैब के नाम पर। जितना कम टेस्ट, उतना कम कोरोना। कल्पना कीजिए कि कोरोना के जाने के बाद अनुग्रह राशि का बोझ 100 अरब से घटाकर 10 अरब रुपये तक सीमित रखने से क्या सरकार 90 अरब रुपये की बचत नहीं कर लेगी? ऐसा हुआ तो सोचिए कि इस रक़म से कितना ज़बरदस्त विकास होगा!

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