ऐसे होर्डिंग आपको देश के किसी भी शहर में दिख जाएँगे। कोविड-19 के मुफ्त टीके के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रिया अदा करने वाले ऐसे होर्डिंग्स ने कोविड काल में भी प्रचार का कारोबार करने वालों की चांदी कर दी है। बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री तो इस काम में बढ़-चढ़ कर आगे आ ही रहे हैं, ज़िला और कस्बा स्तर के छुटभैय्ये नेताओं को भी इस बहाने प्रधानमंत्री के साथ अपनी तस्वीर लगाने का मौक़ा मिल गया है। और जहाँ बीजेपी की सरकार नहीं है वहाँ भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है। वहाँ मुफ्त टीके का श्रेय लेने के लिए मुख्यमंत्री अपने होर्डिंग लगवा रहे हैं और अख़बारों में विज्ञापन छपवा रहे हैं।
जबकि देश में न तो मुफ्त टीकाकरण पहली बार हुआ है और न ही यह कोई नई बात ही है। असल में, भारत में वैक्सीनेशन का पूरा इतिहास ही दरअसल मुफ्त टीकाकरण का इतिहास है।
इसकी शुरुआत सन 1802 में तभी हो गई थी जब पहली बार चेचक का आधुनिक टीका, जिसे एडवर्ड जेनर की वैक्सीन भी कहा जाता है, पहली बार भारत आया था।
उस समय तक पूरे भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हो चुका था और टीकाकरण के पूरे अभियान में यह बात कहीं भी नहीं थी कि सरकार को इसके लिए किसी से कोई पैसा लेना है। इसके लिए पूरे देश में बड़े पैमाने पर वैक्सीनेटर्स की भर्ती हुई थी जिन्हें इसका बाकायदा प्रशिक्षण दिया गया था। उन्हें वैक्सीन की सारी सुविधाएँ मुफ्त दी जाती थीं और वे पूरे क्षेत्र में घूम-घूम कर लोगों को चेचक का टीका लगाते थे। इसके बदले में उन लोगों को मामूली सा मानदेय दिया जाता था।
इसके अलावा उनसे कहा गया था कि वे जिसे टीका लगाएँ उससे वे एक पैसा ले सकते हैं। इस तरीक़े को अपनाए जाने के पीछे दो कारण था। एक तो यह माना गया कि वैक्सीनेटर्स के कम मानदेय की इससे भरपाई हो जाएगी। दूसरी सोच यह थी कि वे जितने लोगों की टीका लगाएंगे उतनी ही ज़्यादा उनकी आमदनी होगी जिससे वे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के टीकाकरण की कोशिश करेंगे।
लेकिन हकीकत में इस नीति का नतीजा कुछ और ही निकला। एक तो बहुत से लोगों ने टीका लगवाने से सिर्फ़ इसीलिए इनकार कर दिया कि उन्हें इसके लिए एक पैसा देना पड़ेगा। फिर बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्होंने टीका तो लगवा लिया लेकिन पैसा देने से साफ़ मना कर दिया। इस वजह से आए दिन झगड़े शुरू हो गए।
तब बंगाल की एक अदालत में एक याचिका दी गई थी कि वह ऐसे लोगों को टीके के बदले एक पैसा देने के लिए बाध्य करे। अदालत ने ऐसा कोई आदेश से देने से साफ़ इनकार कर दिया। उसने कहा था कि ऐसे किसी भी दबाव से टीकाकरण की रफ्तार बाधित हो सकती है।
अदालत ने यह भी कहा कि टीके के बदले पैसे लेने के लिए क़ानून व्यवस्था लागू करने वाले तंत्र की मदद भी नहीं ली जा सकती है।
ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार को जब यह लगा कि इस एक पैसे वाली व्यवस्था से टीकाकरण ठीक से नहीं हो पा रहा तो उसने इस नियम को ख़त्म कर दिया। अब टीकाकरण के लिए पैसे लेने का प्रावधान तो ख़त्म हो गया लेकिन वैक्सीनेटर्स का मानदेय नहीं बढ़ाया गया और उनकी समस्या ख़त्म होने के बजाए और बढ़ गईं।
इसे लेकर असंतोष इतना बढ़ा कि दार्जिलिंग क्षेत्र के सभी वैक्सीनेटर्स हड़ताल पर चले गए। ऐसे ही असंतोष की ख़बरें जब देश भर से आने लगीं तो वैक्सीनेटर्स को मिलने वाले पैसे को बढ़ाया गया। अभी तक जिन लोगों को ‘लाईसेंस्ड वैक्सीनेटर्स‘ कहा जाता था अब उन्हें ‘पेड वैक्सीनेटर्स‘ कहा जाने लगा।
पूरे देश में टीकाकरण का यह तरीका अब तक चल रहा है। हाल-फ़िलहाल में इस तरीक़े का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल पल्स पोलियो अभियान में हुआ।
इसे लेकर शुरू से ही सोच यह रही है कि टीकाकरण देश को महामारी से बचाने के लिए होता है, यह किसी को व्यक्तिगत फायदा पहुँचाने के लिए नहीं होता इसलिए इसे मुफ्त ही होना चाहिए।

बाद में बच्चों के अनिवार्य टीकाकरण के जो प्रोटोकॉल बने उनमें भी यही नीति अपनाई गई। जब हैपीटाईटिस जैसी महंगी वैक्सीन को अनिवार्य टीकाकरण का हिस्सा बनाया गया तो इस नीति में थोड़ा बदलाव कर दिया गया।
सभी को मुफ्त टीके की नीति में बदलाव करते हुए इसके लिए एक हाईब्रिड व्यवस्था की गई। यानी सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में मुफ्त टीका उपलब्ध रहेगा लेकिन जो लोग निजी अस्पतालों या डाॅक्टरों के पास जाकर टीका लगवाना चाहते हैं वे पैसे देकर भी टीकाकरण करवा सकते हैं।
कोविड-19 के जिस मुफ्त टीके के लिए इन दिनों देश भर में इतना गायन-वादन हो रहा है वह वास्तव में पूरी तरह मुफ्त टीका नहीं है। इसके लिए भी हाईब्रिड व्यवस्था ही रखी गई है। अब आपको तय करना है कि आप स्वास्थ्य केंद्र और टीका शिविर वगैरह में धक्के खाते हुए मुफ्त टीका लगवाना पसंद करेंगे या फिर किसी बड़े अस्पताल में 780 रुपये में कोविशील्ड और एक हजार रुपये में स्पूतनिक-वी की एक डोज़ लेना चाहेंगे। यानी देश को महामारी से मुक्त करने के लिए आप धक्के खाना पसंद करेंगे या फिर अपनी जेब ढीली करना।
अपनी राय बतायें