वर्तमान काल बड़ा रोमांचक है। जब चारों ओर विरोधाभास प्रतीत होने लगे तो ऐसा ही होता है। लोकतंत्र में भी ऐसा ही होता है जब आर्थिक सत्ता विकेन्द्रित हो किन्तु तंत्र की सता विकेन्द्रित नहीं होती| ऐसी स्थिति में उसके कुछ स्वाभाविक दुष्परिणाम होते हैं, जैसा आज के भारत में है। जब समाज को आर्थिक आजादी तो मिले पर राजनैतिक गुलामी बनी रहे तब पूँजी राज्यशक्ति के साथ भ्रष्ट समझौते कर अपनी शक्ति बढ़ा लेती है। साधारण नियम होता है कि केवल श्रम, मनुष्य को श्रमिक तथा केवल पूँजी व्यक्ति को वणिक बनाती है। अगर वणिक श्रम को खरीद ले तो वही उद्योगपति बन जाता है और अगर वो बुद्धि भी खरीद ले तो पूरी सत्ता ही हाथ लग जाती है। पूँजी+श्रम+बुद्धि = सत्ता।
स्वतन्त्र भारत में तंत्र लोक पर हावी कैसे?
- विचार
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- 15 Aug, 2024

तंत्र अपने सभी गलत काम संविधान को ढाल बनाकर ही करता है। पहले संविधान को संशोधित कर उसे मन-मुताबिक़ बनाता है, फिर उसी संविधान की दुहाई देकर अनाप-शनाप क़ानून जनता पर ठोक देता है।
भारत एक लोकतंत्र है। भारत के संविधान की उद्देशिका का प्रारम्भ ही "हम भारत के लोग" से होता है। 1946 से 1949 तक चली संविधान सभा ने भी इस बात पर जोर दिया था। उनके अनुसार संविधान 'लोक' की स्वतंत्रता का दस्तावेज होता है। उन्होंने उसी समय यह आशंका भी जताई थी कि 'तंत्र' इस दस्तावेज का भविष्य में बेजा इस्तेमाल भी कर सकता है। साथ ही उन्होंने भारतीय जनता का, विशेषकर ग्रामीण समाज पर पूरा भरोसा भी जताया और कहा कि इस संविधान की बची-खुची त्रुटियों को 'लोक' समय-समय पर परिष्कार भी कर लेगा।