वर्तमान काल बड़ा रोमांचक है। जब चारों ओर विरोधाभास प्रतीत होने लगे तो ऐसा ही होता है। लोकतंत्र में भी ऐसा ही होता है जब आर्थिक सत्ता विकेन्द्रित हो किन्तु तंत्र की सता विकेन्द्रित नहीं होती| ऐसी स्थिति में उसके कुछ स्वाभाविक दुष्परिणाम होते हैं, जैसा आज के भारत में है। जब समाज को आर्थिक आजादी तो मिले पर राजनैतिक गुलामी बनी रहे तब पूँजी राज्यशक्ति के साथ भ्रष्ट समझौते कर अपनी शक्ति बढ़ा लेती है। साधारण नियम होता है कि केवल श्रम, मनुष्य को श्रमिक तथा केवल पूँजी व्यक्ति को वणिक बनाती है। अगर वणिक श्रम को खरीद ले तो वही उद्योगपति बन जाता है और अगर वो बुद्धि भी खरीद ले तो पूरी सत्ता ही हाथ लग जाती है। पूँजी+श्रम+बुद्धि = सत्ता।