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मोदी सरकार की नाकामी पर राहुल का 'मास्टर स्ट्रोक' है न्यूनतम आमदनी का एलान

राहुल गाँधी के न्यूनतम आमदनी की घोषणा ने राजनीतिक हलकों में सनसनी फैला दी है। उनकी यह घोषणा बहुत गहरी रणनीति की ओर इशारा कर रही है। उन्होंने अर्थव्यवस्था सरीखा विषय चुना, जिसका असर जितना व्यापक है, उतनी ही व्यापक बीजेपी की वित्तीय विफलता। 

एक न्यायपूर्ण व्यवस्था केवल उसे ही माना जा सकता है जिसमें शक्तिशाली के अधिकतम और शक्तिहीन के न्यूनतम अधिकार पूरी तरह स्पष्ट हों। वर्तमान भारत में सबसे शक्तिहीन नागरिक के संवैधानिक अधिकार तो स्पष्ट हैं, पर आर्थिक अधिकार अस्पष्ट हैं। इसी विडंबना के चलते एक हालिया ऑक्सफ़ैम रिपोर्ट के अनुसार भारत के सबसे रईस 1% लोगों की आमदनी रोज़ाना 2200 करोड़ रुपये है। एक तरफ़ यदि भारत की कुल संपत्ति के 73% की मलकीयत 1% जनता के पास है तो दूसरी तरफ़, 67 करोड़ जनता के पास 3% से भी कम संपत्ति बची है।

सिर्फ़ अमीरों का विकास

इसका सीधा अर्थ यह है कि भारत के अमीरों का विकास ‘दिन दूनी रात चौगुनी’ गति से हो रहा है, पर ग़रीब की दशा दयनीय की दयनीय बनी हुई है। इसी विषमता के चलते भारत के क़रीब-क़रीब हर वर्ग में किसी न किसी तरह का असंतोष रहता है तथा हर एक वर्ग सरकारों पर किसी न किसी तरह की सहूलियत की माँग का दबाव बनाने की सतत कोशिश में रहते हैं, चाहे वे किसान हों, युवा हों, दलित हों, सवर्ण हों, श्रमिक हों - सब अपनी-अपनी माँगें कर रहे हैं, क्योंकि आमदनी सबकी घट रही है।

  • आज देश का बहुत विशाल तबक़ा हाशिए पर पड़ा हुआ है। भारी आर्थिक विकास के बावजूद वह भय और अभाव का नरक झेल रहा है। 90% लोगों की समस्या केवल ग़रीबी है।  

ग़रीबी हटेगी तो बेरोज़गारी मिटेगी?

वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष ने सटीक आकलन किया है कि वर्तमान भारत की मूल समस्या ग़रीबी है, बेरोज़गारी नहीं। क्योंकि कोई भी व्यक्ति यदि संपन्न है तो वह बेरोज़गार नहीं हो सकता।

राहुल गाँधी ने न्यूनतम आमदनी का तरोताज़ा शगूफ़ा छोड़ा है, क्योंकि वह जानते हैं कि देश की समस्या कम पैसा नहीं है, समस्या है धन के असीम केंद्रीकरण की। तो धन का विकेंद्रीकरण का उनका समाधान सही तो है ही, लोकलुभावन भी है।

बीजेपी इस मामले में बैकफ़ुट पर रहेगी। क्योंकि 2014 से हर खाते में 15 लाख के खोखले इंतज़ार में भारत की जनता की आँखें भी सूख चुकी हैं। जुमला नामक शब्द अब मानक बन चुका है। ऐसे में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 15 हज़ार, भारत की अर्थव्यवस्था पर बग़ैर किसी भार के देने कि सिफ़ारिश तो अरविंद सुब्रह्मण्यन जैसे आर्थिक विशेषज्ञ लंबे समय से करते ही आये हैं। दुनिया भर के कई विकसित राष्ट्र जैसे अमेरिका, फ़्रांस, नॉर्वे, फिनलैंड आदि अपने नागरिकों को न्यूनतम आमदनी देते आए हैं।

जनता का पैसा जनता में बाँटना तर्कसंगत 

सब जानते हैं कि समाज की सबसे संपन्न इकाई सरकारें होती हैं, जिसके पास टैक्स आदि के माध्यम से सबसे अधिक कमाई भी होती है, सर्वाधिक संसाधन भी होते हैं। ऐसे में राहुल गाँधी अगर कहते हैं कि हमारी सरकार जनता से प्राप्त पैसा वापस जनता में बाँटने की व्यवस्था करेगी तो यह तर्कसंगत भी है और लोकप्रिय भी। जब किसी कंपनी के हर शेयर धारक को कंपनी के लाभांश का हिस्सा मिलना क़ानून-सम्मत है तो देश के सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सा हर नागरिक में बाँटना भी वही विचार है।

न्यायपूर्ण व्यवस्था की माँग

निष्पक्ष दृष्टि से भी देखें तो न्यायपूर्ण व्यवस्था का निर्माण केवल सबसे कमज़ोर व्यक्ति के न्यूनतम आर्थिक अधिकार को परिभाषित व संरक्षित करके ही किया जा सकता है। राष्ट्रीय संपत्ति से मिलने वाले शुद्ध लाभ में समान लाभांश पाना हर नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार भी है, शासन का संवैधानिक दायित्व भी। 

इस दृष्टि से कांग्रेस का यह नवीनतम नारा 2019 के चुनावी नैरेटिव को, जनता के जनमानस के रुझान को अपनी ओर करने का पूरा माद्दा रखता है। सनद रहे कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के ऐसे ही ‘बिजली हाफ़, पानी माफ़’ के नारे ने दो-दो राष्ट्रीय दलों को दो-दो बार पूरी तरह से निपटाया है।

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