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अगर “अभी हिंदू थक गया है, सो रहा है” तो जिम्मेदार कौन? 

क्यों दलितों और पिछड़ों को ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था में समाहित करने का अभियान संघ का प्रमुख एजेंडा नहीं रहा जबकि अल्पसंख्यकों को मूल हिंदू जीवन शैली में समाहित करने की पुरजोर वकालत वीर सावरकर से गोलवलकर तक करते रहे? 

एन.के. सिंह

“गांधी जी ने कहा था हिंदुत्व सत्य के सतत अनुसंधान का नाम है, ये काम करते-करते हिंदू समाज थक गया है, सो गया है, परन्तु जब जागेगा, पहले से अधिक ऊर्जा लेकर जागेगा और सारी दुनिया को प्रकाशित करेगा”- उपरोक्त उद्गार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने विगत सप्ताह देश की राजधानी में एक पुस्तक के विमोचन के दौरान व्यक्त किये। 

लेकिन शायद सरसंघचालक भूल गए कि जिस साल और दिन संघ का जन्म हो रहा था उसी साल और दिन के लगभग पांच हफ्ते बाद गाँधी ने यंग इंडिया के एक लेख में कहा था “हमें हर चीज को यह कह कर नहीं टालना चाहिए कि इसे स्वराज मिलने के बाद करेंगे क्योंकि इसका सीधा मतलब है स्वराज के उद्देश्य को ही ख़ारिज कर देना। स्वराज वह समाज ही हासिल करता है जो बहादुर और पवित्र सोच वाला हो।” 

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गाँधी का इसरार समाज सुधार को लेकर ही था। लेकिन सच बात यह है कि स्वयं गाँधी ने ही नहीं कांग्रेस ने भी राजनीतिक स्वतंत्रता के मुकाबले हमेशा समाज सुधार को, खासकर हिंदू समाज की कुरीतियों पर प्रभावी प्रहार को ख़ारिज या निलंबित रखा।

दलित को घोड़ी चढ़ने से रोका 

फिर भी संघ जैसी संस्था के प्रमुख की हिंदुत्व पर कही गयी बात को गंभीरता से न लेने का कोई कारण नहीं है। लेकिन समझ में नहीं आता कि क्यों इस कथन वाले दिन ही गुजरात के बनासकांठा में एक दलित के अपनी शादी में घोड़ी पर चढ़ने से कुछ उच्च जाति के हिंदू इतने नाराज हुए कि जुलूस पर पत्थरबाजी की? क्या वह सत्य का अनुसंधान था? हाथरस काण्ड में जब युवाओं ने बलात्कार कर एक दलित लड़की को मार दिया तो वह भी सत्य का अनुसंधान था? 

hindu revolution in india - Satya Hindi

हिंदू जाग गया है! 

दुनिया के सबसे बड़े, वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध और अतुलनीय सांगठनिक क्षमता वाले लगभग 100 वर्ष पुराने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख की बात से हिंदू समाज की वर्तमान दशा और दिशा के बारे में बहुत कुछ समझ में नहीं आ सका। स्वयं संघ और उसके अनुषांगिक संगठन कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदू जाग गया है। यह भी मान्यता है कि उसका सत्य आच्छादित था और अब प्रकाश में आने लगा है। 

पांच हज़ार साल पुरानी संस्कृति के अनुयायी अगर अभी भी सत्य का अनुसंधान कर रहे हैं तो अपने स्वर्णिम काल में ये क्या कर रहे थे?

बहरहाल, सरसंघचालक से अपेक्षा तो यह होती है कि वह ये बताएं कि संघ के 96 वर्ष के प्रयास के बावजूद सत्य की खोज अभी भी जारी क्यों रही या उसकी परिणति सोने में क्यों हुई? संघ ने तो एक नहीं दो-दो बार समरसता कार्यक्रम और सन 1992 में वाराणसी में डोम राजा के घर खाना खाकर दलितों को साथ लाने की कोशिश की थी।

हिटलर की भ्रष्ट चेतना

सामाजिक चेतना के दो पक्ष होते हैं- सकारात्मक चेतना और भ्रष्ट चेतना। हिटलर ने भी वह चेतना जगाई पर वह चेतना का भ्रष्ट पक्ष था। दरअसल चेतना के भ्रष्ट पक्ष को उभारना संगठनों व व्यक्तियों के लिए आसान और तेज प्रक्रिया होती है जबकि रचनात्मक चेतना के विकास में समय और प्रयास भी ज्यादा लगता है। बहरहाल सौ साल का समय कम नहीं होता।    

क्या संघ हिंदू चेतना को जगाने में असफल रहा? और अगर चेतना जगी तो क्रियात्मकता बढ़नी चाहिए न कि उनींदापन।

कांग्रेस ने किया ख़ारिज 

सन 1828 में समाज सुधारक राजा राममोहन रॉय ने लिखा “बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि धर्म का वर्तमान स्वरुप जिस पर हिंदू भरोसा करता है राजनीतिक हित नहीं साध सकता। जातिवाद और उससे पैदा हुए अनेकानेक विभेद हिंदुओं को देशभक्ति की चेतना से वंचित करते हैं जबकि धार्मिक कर्मकांड और शुद्धिकरण के नियम उसे किसी भी बड़े प्रयास के प्रति हतोत्साहित करते हैं। मैं सोचता हूँ कि धार्मिक सुधार सामाजिक चैन और राजनीतिक लाभ की अपरिहार्य शर्त है।”  

लेकिन कांग्रेस के जन्म से ही दो धाराएँ थीं- जिसमें एक को महादेव गोविन्द रानाडे का नेतृत्व मिला और दूसरे को दादाभाई, गोखले आदि का। पहला समाज (हिंदू) में सुधार को प्राथमिकता देता था जबकि दूसरा अंग्रेजों से राजनीतिक शिरकत चाहता था। कांग्रेस अधिवेशन में दोनों के मंच अगल-बगल लगे लेकिन दो साल बाद के अधिवेशन में ही पार्टी के लक्ष्य और नीतियों की स्पष्ट व्याख्या करते हुए अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी ने इस प्रयास और मंच को यह कह कर ख़त्म कर दिया कि “एक राष्ट्रीय कांग्रेस को अपने को केवल उन प्रश्नों तक ही सीमित रखना होगा जिसमें पूरे समाज की सहभागिता है। लिहाज़ा कांग्रेस सामाजिक सुधार पर चर्चा करने का मंच नहीं है बल्कि यहाँ हम उन मुद्दों पर चर्चा करते हैं जिन्हें लेकर हम अपने अंग्रेज शासकों को अपनी राजनीतिक आकांक्षायें बता सकते हैं”।

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रचनात्मक चेतना से डरते हैं संगठन

सन 1921 की जनगणना के आधार पर तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत ने पाया कि बाल-विवाह के सामाजिक दोष के कारण 32 लाख औरतें बच्चा पैदा होने के समय मर जाती हैं क्योंकि उनकी शारीरिक संरचना बच्चे जनने के लिए परिपक्व नहीं होती। यह संख्या प्रथम विश्व-युद्ध में कुल मारे गए लोगों से ज्यादा थी। 

बाल विवाह पर लाया गया बिल

यह भी पाया गया कि प्रसव के वक्त नवजात के मरने की तादाद भी बेहद अधिक है और जो बच रहे हैं वे शारीरिक और मानसिक रूप से आजीवन कमजोर रहते हैं और जल्द मृत्यु को प्राप्त होते हैं। चूंकि बाल विवाह धार्मिक कुरीति का मामला था इसलिए अंग्रेज हाथ लगाने से डरते थे लिहाज़ा केन्द्रीय लेजिस्लेटिव असेंबली (आज की संसद की भांति) में उनकी शह पर एक प्राइवेट मेम्बर बिल लाया गया जिसमें बाल-विवाह की उम्र से छेड़छाड़ करने की जुर्रत न करते हुए मात्र यह कहा गया कि “एज ऑफ़ कंसेंट” (शारीरिक संपर्क की उम्र) को 12 साल से बढ़ा कर 14 साल किया जाए। लेकिन हिंदू सदस्यों का विरोध इतना जबरदस्त रहा कि सरकार के पसीने छूट गए। 

सदन में मद्रास से सदस्य टी रंगाचारिअर ने जबरदस्त विरोध करते हुए कहा “इसका मतलब उस शादीशुदा लड़की को बाप को बलात अपने घर रखना पड़ेगा। ध्यान रखें उसकी उम्र 12 से 14 हो चुकी है। क्या हमारे घरों में लडकियां नहीं हैं? बहनें नहीं हैं? इसे याद करो और अपने पड़ोसियों को याद करो। हमारी आदतें, हमारी जवानी के खतरे, अपने यहाँ की जलवायु, देश की दशा को ध्यान करो और फिर सोच कर अपना फैसला दो।”

जिस वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ उसी वर्ष यानी सन 1925 में ब्रितानी हुकूमत ने प्राइवेट मेम्बर बिल के रूप में बाल-विवाह निरोधक बिल पेश किया। लेकिन सदस्यों के विरोध के कारण इसे ख़ारिज करना पड़ा। 

“अस वर्सेज देम” का फ़ॉर्मेट 

क्या वजह है कि समाज सुधार या हिंदुओं में व्याप्त कुरीतियों पर कोई सार्थक और प्रभावी हमला संघ या कोई अन्य संगठन आज तक नहीं कर सका? दलित प्रताड़ना क्यों आज पहले से भी बड़ी और ज्यादा विद्रूप शक्ल में दिखायी देती है? 

क्यों दलितों और पिछड़ों को ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था में समाहित करने का अभियान संघ का प्रमुख एजेंडा नहीं रहा जबकि अल्पसंख्यकों को मूल हिंदू जीवन शैली में समाहित करने की पुरजोर वकालत वीर सावरकर से गोलवलकर तक करते रहे?

“लेकिन जब तक वह (अल्पसंख्यक) हमारे देश के अलावा, हमारी संस्कृति और हमारा इतिहास नहीं अपनाता और हमारे भूभाग को अपना प्यारा भूभाग ही नहीं इबादत-स्थल नहीं मानता, वह हिंदुफोल्ड में समाहित नहीं हो सकता” पृष्ठ 101 (हिंदुत्व-सावरकर)।

लेकिन क्या यही तर्क तब नहीं प्रयुक्त किया जाना चाहिए जब दलित ये सभी शर्तें मानते हुए भी उस “फोल्ड” के एक वर्ग द्वारा आज ज्यादा प्रताड़ित होता है? क्या उसके समाहन की भी कोई शर्त है?  

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क्यों भ्रष्टाचार संघ का मुद्दा नहीं 

क्यों भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन करना अन्ना हजारे का काम हो जाता है जिसे स्वयं संघ पीछे से समर्थन का दावा करता है? क्यों आगे से यानी “फ्रंटल अटैक” नहीं? और क्यों हिंदू सोये या नहीं, संघ उदासीन रहता है जब राजनीतिक सशक्तिकरण (बीजेपी शासन) में हिंदुओं का एक तबक़ा ऊना, अलीगढ़, हाथरस और भीमा कोरेगांव में दबे-कुचलों पर हमला करता है और फिर भी भीमा कोरेगाँव की घटना में एक खास वर्ग को गिरफ्तार करने में राज्य की शक्तियां लग जाती हैं? 

अख़लाक़, पहलू खान, जुनैद और तबरेज का मरना क्या किसी समाज के सोने का परिचायक है या नकारात्मक सशक्तिकरण का?

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