गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
हार
गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
हार
चंपाई सोरेन
बीजेपी - सरायकेला
जीत
‘बच्चा किसके साथ अच्छी तरह से खेल सकता है, अपनी माँ के साथ या पराई माँ के साथ! अगर कोई आदमी किसी जबान के साथ खेलना चाहे और जबान का मजा तो तभी आता है, जब उसको बोलने वाला या लिखने वाला उसके साथ खेले, तो कौन हिंदुस्तानी है जो अंग्रेजी के साथ खेल सकता है? हिंदुस्तानी आदमी तेलुगू, हिंदी, उर्दू, बंगाली, मराठी के साथ खेल सकता है। उसमें नए-नए ढाँचे बना सकता है। उसमें जान डाल सकता है, रंग ला सकता है। बच्चा अपनी माँ के साथ जितनी अच्छी तरह से खेल सकता है, दूसरे की माँ के साथ उतनी अच्छी तरह से नहीं खेल सकता।’ - डॉ. राममनोहर लोहिया
हिंदू राष्ट्र के हिमायती आज यूपी जैसे सूबे में अंग्रेजी को अनिवार्य बना रहे हैं। उग्र हिंदुत्व की राजनीति करने वाले शुद्ध हिंदी में संबोधन देते हैं, हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन सकी, गाहे-बगाहे यह सवाल भी दागते रहते हैं; लेकिन सरकारी कार्यालयों से लेकर शिक्षण संस्थानों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए उनके प्रयास सिफर हैं। दरअसल, हिंदू धर्म की तरह ही हिंदी भाषा की अस्मिता भी उनके लिए राजनीतिक प्रोपेगेंडा मात्र है। वास्तविकता यह है कि ये हुक्मरान न हिंदी भाषा के प्रति ईमानदार हैं और न वफादार।
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा हिंदी को राजभाषा बनाया गया। लेकिन इसमें एक शर्त जोड़ दी गई कि अगले 15 साल तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। तर्क यह दिया गया कि इस दौरान हिंदी को समुन्नत बनाकर 26 जनवरी 1965 को अंग्रेजी के स्थान पर पूर्णरूप से लागू कर दिया जाएगा। इतिहास गवाह है कि यह तारीख़ आज तक नहीं आई।
1960 के दशक में बंगाल और दक्षिणी प्रांतों, खासकर तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन हुए। नतीजे में 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित करके अंग्रेजी को सह राजभाषा का दर्जा दे दिया गया और यह प्रावधान किया गया कि ग़ैर हिंदी भाषी प्रांतों की जब तक सहमति नहीं होती है, राजभाषा हिंदी को लागू नहीं किया जाएगा। यह व्यवस्था आज भी जारी है।
1976 के राजभाषा अधिनियम द्वारा भाषिक आधार पर भारत को क, ख, ग, तीन क्षेत्रों में विभाजित करके सरकारी कामकाज चल रहा है। दरअसल, अंग्रेजी का प्रयोग अनवरत जारी है। हिंदी की स्थिति अभी भी, प्रसिद्ध हिंदी कवि रघुवीर सहाय के शब्दों में 'दुहाजू की बीवी' की तरह है।
प्रतिवर्ष 14 सितंबर को सरकारी दफ्तरों, निकायों और महकमों में हिंदी दिवस का आयोजन किया जाता है। एक रस्मी उत्सव की तरह हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए संकल्प दोहराए जाते हैं। लेकिन अगले दिन से सब पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं।
सवाल उठता है कि हिंदी के प्रयोग में सफलता क्यों नहीं मिली? ग़ैर-हिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी को स्वीकार्यता क्यों नहीं प्राप्त हुई?
राजभाषा हिंदी को लागू करने में सरकारी ढुलमुलपन का विरोध करते हुए समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया ने सार्थक हस्तक्षेप किया। डॉक्टर लोहिया ने मुखरता से राजकाज की भाषा के रूप में अंग्रेजी के प्रयोग पर कड़ी आपत्ति की। इस वजह से आम तौर पर माना जाता है कि लोहिया अंग्रेजी के विरोधी थे। सच्चाई यह है कि लोहिया अंग्रेजी के विरोधी नहीं बल्कि हिंदी के समर्थक हैं।
दरअसल, अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में डॉक्टर लोहिया किसी भाषा के विरोधी नहीं थे। वह हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के भी उतने ही समर्थक थे। लोहिया अंग्रेजी भाषा के ख़िलाफ़ नहीं थे, बल्कि उसकी मानसिकता और सामंती स्वभाव के विरोधी थे। अंग्रेजी भाषा जन विरोधी है। देश के करोड़ों दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों के लिए अंग्रेजी नुक़सानदेह है। 'सामंती भाषा बनाम लोक भाषा' निबंध में लोहिया ने लिखा है, ‘अंग्रेजी हिंदुस्तान को ज़्यादा नुक़सान इसलिए नहीं पहुंचा रही है कि वह विदेशी है बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग में वह सामंती है। आबादी का सिर्फ़ एक प्रतिशत छोटा सा अल्पमत ही अंग्रेजी में ऐसी योग्यता हासिल कर पाता है कि वह उसे सत्ता या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है। इस छोटे से अल्पमत के हाथ में विशाल जनसमुदाय पर अधिकार और शोषण करने का हथियार है।’
सरकारी कामकाज और देश स्तरीय परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता से हाशिए के तबक़ों को न तो न्याय मिल सकता है और ना ही सही अर्थ में जनतंत्र स्थापित हो सकता है। लोहिया ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है, ‘लोकभाषा के बिना लोकराज असंभव है। कुछ लोग यह ग़लत सोचते हैं कि उनके बच्चों को मौक़ा मिलने पर वह अंग्रेजी में उच्च वर्ग जैसी ही योग्यता हासिल कर सकते हैं। सौ में एक की बात अलग है, पर यह असंभव है। उच्च वर्ग अपने घरों में अंग्रेजी का वातावरण बना सकते हैं और पीढ़ियों से बनाते आ रहे हैं। विदेशी भाषाओं के अध्ययन में जनता इन पुश्तैनी ग़ुलामों का मुक़ाबला नहीं कर सकती।’
जब हिंदी की जगह अंग्रेजी को राजभाषा पद पर बिठाया गया, तब यह तर्क दिया गया कि हिंदी समृद्ध नहीं है। उसके पास पारिभाषिक शब्दावली की कमी है। यही तर्क देशी भाषाओं के लिए दिया गया और पूरे देश में विदेशी अंग्रेजी भाषा को थोप दिया गया।
यह बात सही है कि अंग्रेजी के मुक़ाबले हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली की कमी है। लेकिन तमाम भारतीय भाषाओं के पास अंग्रेजी की अपेक्षा दो गुना शब्द भंडार है। हिंदी का प्रयोग करने और नई शब्दावली के निर्माण से इस कमजोरी को दूर किया जा सकता है। लोहिया ने 'देशी भाषाएँ बनाम अंग्रेजी' निबंध में लिखा, ‘जो लोग कहते हैं कि तेलुगू, हिंदी, उर्दू, मराठी ग़रीब भाषाएँ हैं और आधुनिक दुनिया के लायक नहीं हैं उनको तो और इन भाषाओं के इस्तेमाल की बात सोचनी चाहिए, क्योंकि इस्तेमाल करते-करते ही भाषाएँ धनी बनेंगी। जब मैं कभी इस तर्क को सुनता हूँ, हिंदुस्तान में, तो बहुत आश्चर्य होता है कि मामूली बुद्धि के लोग भी कैसे इस बात को कह सकते हैं कि अंग्रेजी का इस्तेमाल करो क्योंकि तुम्हारी भाषाएँ ग़रीब हैं। अगर अंग्रेजी का इस्तेमाल करते रह जाओगे तो तुम्हारी अपनी भाषाएँ कभी धनी बन ही नहीं पाएंगी।’ इसके लिए समय की नहीं बल्कि इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।
हिंदी का प्रयोग कैसे होगा? हमारी भाषा नीति क्या होनी चाहिए? डॉ. लोहिया ने अपना दृष्टिकोण पेश करते हुए लिखा है कि, ‘केंद्रीय सरकार की भाषा हिंदी होनी चाहिए। ठीक इसके बाद दस वर्ष के लिए दिल्ली केंद्रीय सरकार की गजटी नौकरियाँ ग़ैर हिंदी लोगों के लिए सुरक्षित रहें। केंद्र का राज्यों से व्यवहार हिंदी में हो और जब तक कि वे हिंदी जान लें, केंद्र को अपनी भाषाओं में लिखें। स्नातकी तक की पढ़ाई का माध्यम अपनी मातृभाषा हो और उसके बाद का हिंदी। जिला जज व मजिस्टर (मजिस्ट्रेट) अपनी भाषाओं में कार्यवाही कर सकते हैं, उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय में हिंदुस्तानी होनी चाहिए। जबकि लोकसभा में साधारणतः भाषण हिंदुस्तानी में हों लेकिन जो हिंदी ना जानते हों, वे अपनी भाषा में बोलें।’
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग संबंधी डॉ. लोहिया के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। लोहिया के रास्ते भाषा के मुद्दे को हल ही नहीं किया जा सकता है बल्कि राष्ट्रीयता को भी मज़बूत किया जा सकता है।
About Us । Mission Statement । Board of Directors । Editorial Board | Satya Hindi Editorial Standards
Grievance Redressal । Terms of use । Privacy Policy
अपनी राय बतायें