‘बच्चा किसके साथ अच्छी तरह से खेल सकता है, अपनी माँ के साथ या पराई माँ के साथ! अगर कोई आदमी किसी जबान के साथ खेलना चाहे और जबान का मजा तो तभी आता है, जब उसको बोलने वाला या लिखने वाला उसके साथ खेले, तो कौन हिंदुस्तानी है जो अंग्रेजी के साथ खेल सकता है? हिंदुस्तानी आदमी तेलुगू, हिंदी, उर्दू, बंगाली, मराठी के साथ खेल सकता है। उसमें नए-नए ढाँचे बना सकता है। उसमें जान डाल सकता है, रंग ला सकता है। बच्चा अपनी माँ के साथ जितनी अच्छी तरह से खेल सकता है, दूसरे की माँ के साथ उतनी अच्छी तरह से नहीं खेल सकता।’ - डॉ. राममनोहर लोहिया

हिंदी का प्रयोग कैसे होगा? हमारी भाषा नीति क्या होनी चाहिए? हिंदी के प्रयोग में सफलता क्यों नहीं मिली? ग़ैर-हिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी को स्वीकार्यता क्यों नहीं प्राप्त हुई? इस पर डॉ. लोहिया ने अपना दृष्टिकोण पेश किया था। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग संबंधी डॉ. लोहिया के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।
हिंदू राष्ट्र के हिमायती आज यूपी जैसे सूबे में अंग्रेजी को अनिवार्य बना रहे हैं। उग्र हिंदुत्व की राजनीति करने वाले शुद्ध हिंदी में संबोधन देते हैं, हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन सकी, गाहे-बगाहे यह सवाल भी दागते रहते हैं; लेकिन सरकारी कार्यालयों से लेकर शिक्षण संस्थानों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए उनके प्रयास सिफर हैं। दरअसल, हिंदू धर्म की तरह ही हिंदी भाषा की अस्मिता भी उनके लिए राजनीतिक प्रोपेगेंडा मात्र है। वास्तविकता यह है कि ये हुक्मरान न हिंदी भाषा के प्रति ईमानदार हैं और न वफादार।
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।