आप जब कुछ करते हैं तो अपने स्वभाव, संस्कार और इंसानियत के नाते करते हैं। उसका कारण ढूंढेंगे तो मिलेगा भी नहीं। मैंने कोविड के इस भयावह समय में लोगों को अपनों को बचाने की खातिर लाचार देखा, बेबस देखा। इंसान जब मुसीबत में होता है, खासकर जब जान पर बन आती है- उसके या उसके अपनों की, तब वह उसी को याद करता है, जिसपर उसका सबसे ज्यादा भरोसा होता है। यह सिर्फ समझने वाली बात है। जिसपर गुजरी होगी, उसको समझने में देरी नहीं लगेगी। मुझे भी किसी ने अपने भाई और किसी ने अपने पति की खातिर फोन किया। जान नहीं बचेगी यह लग गया था, लेकिन एक उम्मीद थी कि इस वक्त भी इलाज मिल जाए तो शायद ज़िंदगी बच जाए। ठीक ऐसे ही वक्त पर उन लोगों ने फोन किया, जिनको मैं अपना कहता हूँ या वे कहते होंगे कि हां इस शहर में उनको मैं जानता हूं या जानती हूं। मैंने उन लोगों को इलाज मिले इसकी खातिर सिस्टम को झकझोरा। जीवन भर मैं लिहाजी रहा। अपने लिए कुछ कहने में हमेशा हिचक रही। लेकिन इन मामलों में मैंने अपनी पूरी ताकत लगाई और उसका फल ये रहा कि जिंदगियां बचीं। अगले दिन जब फोन आता है कि सर अब बच जाएंगे, ठीक हैं, शरीर के अंदर कुछ अच्छा सा पसरता हुआ लगता है। शायद वह आत्मा या रुह के उल्लसित होने से होता होगा।