आखिर साल बीतने ही वाला है। मुश्किल से। डर, चिंता, नाराज़गी, अनदेखी, धर्म के नाम पर बढ़ता राजनीतिक कारोबार और बंटता हुआ समाज। ऐसा नहीं है कि नया साल आएगा तो सब कुछ यकायक बदल जाएगा या फिर अब हम सवेरे सवेरे स्नान कर नई आत्मा और शरीर के साथ मन, कर्म और वचन से ज़्यादा बेहतर हो जाएंगे लेकिन उम्मीद करने में तो कोई बुराई नही है और ना ही ऐसा करने की कोशिश से कोई गड़बड़ी होगी।
नब्बे फ़ीसदी हिंदू धर्म संसद से अपने को नहीं जोड़ता!
- विचार
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- 31 Dec, 2021

कथित धर्म संसदों में जहर बोया जा रहा है, दूसरे धर्म के लोगों को मारने के लिए शस्त्र उठाने के लिए भड़काया जा रहा है। फिर अगली धर्म संसद में गांधी को गाली दी जा रही है, गांधी के हत्यारे गोडसे की प्रशंसा की जा रही है और उसके बाद उस पर कोई शर्मिन्दगी नहीं है, माफ़ी नहीं मांगी जा रही है।
कमोबेश तो यह साल कोरोना की दूसरी लहर से डरते, मरते, बचते बीता। सब कुछ करीब-करीब ठहरा सा ही रहा, लगा जिंदगी की रफ्तार थम गई हो। अपने-अपने घरों में बंद, दिमागी रोशनी को बुझाकर घायल होता सेक्यूलरिज़्म और समाज। राष्ट्रवाद की नई डोज से ऊर्जा लेने की कोशिश करते कथित राष्ट्र भक्त।
कोरोना और चुनाव
पूरे साल में अगर कुछ नहीं थमा तो वो है राजनीति। राजनीति की रफ्तार नहीं थमी। लॉकडाउन को झेलते समाज, बंद स्कूल कालेज, सिनेमाघर, बाज़ारों के बीच चुनावी और गैर चुनावी राजनीतिक रैलियां नहीं थमी। दूसरों को मॉस्क लगाने और दो गज की दूरी, ज़रूरी का भाषण देने वाले दिग्गज राजनेता हज़ारों की भीड़ से खचाखच भरी रैलियों को देखकर आल्हादित होते रहे, इससे भी ज़्यादा चर्चा रही धर्म की, राजनीतिक धर्म की, हिन्दू और हिन्दूत्व की। असली और नकली हिन्दू के बीच बहस होती रही।