आखिर साल बीतने ही वाला है। मुश्किल से। डर, चिंता, नाराज़गी, अनदेखी, धर्म के नाम पर बढ़ता राजनीतिक कारोबार और बंटता हुआ समाज। ऐसा नहीं है कि नया साल आएगा तो सब कुछ यकायक बदल जाएगा या फिर अब हम सवेरे सवेरे स्नान कर नई आत्मा और शरीर के साथ मन, कर्म और वचन से ज़्यादा बेहतर हो जाएंगे लेकिन उम्मीद करने में तो कोई बुराई नही है और ना ही ऐसा करने की कोशिश से कोई गड़बड़ी होगी।
कमोबेश तो यह साल कोरोना की दूसरी लहर से डरते, मरते, बचते बीता। सब कुछ करीब-करीब ठहरा सा ही रहा, लगा जिंदगी की रफ्तार थम गई हो। अपने-अपने घरों में बंद, दिमागी रोशनी को बुझाकर घायल होता सेक्यूलरिज़्म और समाज। राष्ट्रवाद की नई डोज से ऊर्जा लेने की कोशिश करते कथित राष्ट्र भक्त।
कोरोना और चुनाव
पूरे साल में अगर कुछ नहीं थमा तो वो है राजनीति। राजनीति की रफ्तार नहीं थमी। लॉकडाउन को झेलते समाज, बंद स्कूल कालेज, सिनेमाघर, बाज़ारों के बीच चुनावी और गैर चुनावी राजनीतिक रैलियां नहीं थमी। दूसरों को मॉस्क लगाने और दो गज की दूरी, ज़रूरी का भाषण देने वाले दिग्गज राजनेता हज़ारों की भीड़ से खचाखच भरी रैलियों को देखकर आल्हादित होते रहे, इससे भी ज़्यादा चर्चा रही धर्म की, राजनीतिक धर्म की, हिन्दू और हिन्दूत्व की। असली और नकली हिन्दू के बीच बहस होती रही।
कुछ नेता कुर्ते पर जनेऊ पहन कर दिखाते रहे तो कुछ अपना गोत्र बता कर ब्राह्मण होने का दावा करते रहे।
राजनीतिक रैलियों में चंडी पाठ भी हुआ, महामृत्युंजय पाठ और हनुमान चालीसा भी और राजनीति को बदलने आए नेताओं ने सार्वजनिक दिवाली पूजन कर कहा- जयश्री राम।
कोरोना की दूसरी लहर
साल के आखिर तक आते-आते धर्म के नाम पर राजनीति जिन्ना के बहाने, फिर अब्बाजान करते, तिलक और गंगा में डुबकी लगाते लगाते उस धार्मिक जंगल में बदल गई, जहां हर कोई अपने को राजा समझने लगा। इस साल ने गंगा और दूसरी नदियों में बहती लाशों को देखा। अस्पतालों में बेड की कमी, ऑक्सीजन के अभाव में तड़पते और फिर मरते लोगों के गवाह हम बने, फिर कोरोना से लड़ाई के लिए वैक्सीन को लेकर होती राजनीति, मरने वालों को लेकर झूठे आंकड़ों के खेल, राशन बांटते बैग पर राजनेताओं की तस्वीरें, बहुत सी कड़वी यादें रह गई, वो फिर से नहीं हो,यह उम्मीद नए साल से हो सकती है।
बीजेपी ने अब धर्म को नया कलेवर दिया है राष्ट्रवाद के नाम से, यानी आप धर्म के ख़िलाफ़ तो फिर भी बोल सकते हैं, लेकिन राष्ट्रवाद के ख़िलाफ बोलना तो बड़ा राजनीतिक खतरा होगा।
राम मंदिर निर्माण का मुद्दा
नब्बे के दशक में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर बीजेपी ने जो अपनी हिन्दू धर्म के छाते तले राजनीति को उग्रता दी, उसने पार्टी को ना केवल सरकार तक पहुंचाया बल्कि एक स्पष्ट बहुमत वाली मजबूत मोदी सरकार भी दी। बहुत से समझदार लोग अक्सर कहते रहे कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती, यानी उनका इशारा था कि राम मंदिर का मुद्दा हर बार चुनावी जीत नहीं दिला सकता। यह बात बीजेपी ने शायद बेहतर तरीके से समझी। वो जानते होंगें कि बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरने और फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राम मंदिर का निर्माण शुरु होने के बाद यह राजनीतिक मुद्दा होने के बजाय धार्मिक मुद्दा हो जाएगा और अब उनका वोटर श्रद्धालु में बदल जाएगा। फिर धर्म की राजनीति के लिए नए प्रतीकों की ज़रुरत पड़ेगी।
मथुरा पर नज़र
पूजास्थल कानून बनने के बाद यह भी साफ हो गया कि अब विश्व हिन्दू परिषद और बीजेपी के उस नारे- अयोध्या तो झांकी है, मथुरा काशी बाकी है, पर चलना आसान नहीं होगा। खास तौर से दोनों स्थानों पर मस्जिद को तोड़ना फिलहाल ना तो मुमकिन दिखाई देता है और ना ही राजनीतिक तौर पर फायदेमंद, खासतौर से जब आप केन्द्र और राज्य दोनों जगहों पर सरकार में हों। काशी और मथुरा में बनी मस्जिद को तोड़ा तो नहीं जा सकता, लेकिन बिना उसे तोड़े काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का काम पूरा करके प्रधानमंत्री ने एक नया केन्द्र बना दिया,जहां से धर्म के बहाने राजनीति को चलाना मुश्किल काम नहीं होगा।
अब बीजेपी के लिए अयोध्या ही नहीं, काशी भी हिन्दू आस्था का आकर्षण बन गया है। खासतौर से 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अयोध्या के बजाय काशी मुद्दा बना रहेगा।
धर्म निरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के नाम पर होती राजनीति को सबसे पहले बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने चुनौती दी थी, जब उन्होंने नया शब्द अपनी राजनीति में उतारा –‘स्यूडोसेक्युलर’ यानी ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’।
राजनीति में धर्म
अब कोई राम मंदिर निर्माण का विरोध करने की हिमाकत नहीं कर सकता, अब तो हर राजनेता अयोध्या पहुंचना चाहता है, रामलला के दर्शन करना चाहता है। पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में राजनेता चंडी पाठ करके या दुर्गा पूजा और रामलीला की बात करके खुद को दूसरे से बड़ा हिन्दू साबित करे में लग गए। उससे पहले गुजरात और कर्नाटक के चुनावों में जनेऊधारी ब्राह्मण होने का दावा किया गया।
काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को लेकर अब सब लोग अपना अपना दावा पेश करना चाहते हैं, अब मां गंगा को लेकर उसकी गंदगी की चर्चा कोई नहीं करता। अब तो शाम को गंगा के घाट पर आरती की तस्वीरों में शामिल होना राजनीतिक ज़रूरत है। राजनीतिक रैलियों में जाने से पहले वहां के प्रमुख मंदिर में आरती और पूजा किसी भी राजनीतिक दल की जरूरत बन गया है शायद। अब इस मसले पर सिर्फ़ बीजेपी को घेरने से काम नहीं चलेगा, हर कोई उसी रास्ते पर जाने के लिए तैयार है।
राजनीतिक दलों का हिन्दू प्रेम
बीजेपी के धार्मिक राजनीतिक जाल में फंसते राजनेता दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भी अब अपने हिन्दू प्रेम को जाहिर कर रही है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर या राम मंदिर निर्माण के विरोध की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही, लेकिन इसका फायदा उन्हें मिले, ऐसा राजनीतिक विशेषज्ञ नहीं मानते हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी अभी तक अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति कर रही है, लेकिन अब दोनों ही पार्टियां मुसलमानों का नाम लेने तक से कतरा रही हैं,यानी बीजेपी अपने एंजेडा पर सफल होती दिख रही है।
बात यहां तक भी रुक जाती तो शायद ज़्यादा नहीं बिगडता लेकिन अब बात धर्म के नाम पर हिन्दू उग्रवाद तक पहुंच गई है। कथित धर्म संसदों में जिस तरह का जहर बोया जा रहा है, दूसरे धर्म के लोगों को मारने के लिए शस्त्र उठाने के लिए भड़काया जा रहा है। फिर अगली धर्म संसद में गांधी को गाली दी जा रही है, गांधी के हत्यारे गोडसे की प्रशंसा की जा रही है और उसके बाद उस पर कोई शर्मिन्दगी नहीं है, माफ़ी नहीं मांगी जा रही है।
गिरफ्तार नहीं किया गया। इससे भी ज़्यादा किसी राजनेता ने इसको लेकर हंगामा नहीं किया, बीजेपी नेताओं ने चुप्पी साध ली और कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को साधु संतों के नाराज़ होने का डर दिखाई दिया,तो वो भी विरोध नहीं कर रहे।
यह सच है कि आज भी 90 फीसद हिन्दू इस तरह के व्यवहार करने वाले नहीं है और ना ही खुद को जोड़ना चाहते हैं, लेकिन उस पर चुप्पी ज़्यादा डराती है। मशहूर हिट फ़िल्म शोले का वो संवाद याद आ रहा है- “इतना सन्नाटा क्यों है, भाई”?काश, यह सन्नाटा आने वाले नए साल में ना बना रहे। दिसम्बर में छाई हुई धुंध मकर सक्रांति तक सूर्य के उत्तरायण में पहुंचने तक चमकदार धूप और रोशनी दे और जीने के लिए ऊर्जा भी।
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